रविवार, 26 जनवरी 2014

प्रतिदान

बेटा ! तुम पहली बार घर से कहीं बाहर जा रही हो, सम्हल कर रहना, दूर घूमने नहीं जाना, शाम होने के बाद हॅास्टल से बाहर नहीं निकलना, किसी से ज्यादा अनावश्यक घुलने मिलने की जरूरत नहीं है । मां मेरे कपड़ों को सहेजते हुये दिल्ली जाने के पहले मुझे ढेर सारी हिदायतें देते हुये समझा रही थी ।
 
मैने अमरूद को एक कोने से कुतरकर चबाते हुये मजाकिया लहजे में कहा - मां, फिक्र मत किया करो, अब मैं बड़ी हो गयी हू, डोन्ट वरी, मम्मा...ऐसा कहते हुये उनके गोद सें चिपक गयीं।
 
मां मेरी ओर एकटक देख रही थी, मैने उनके गले में हाथ डालते हुये कहा- देखना, मैं आपको रोज लंबी-लंबी चिट्ठियां लिखा करूंगी, सुबह क्या खाया, क्या पीया, सब कुछ पत्रों में कहूंगी, देखना भला डाकिया भी परेशान हो जायेगा।
 
तुम्हे हरदम मजाक ही सूझते रहता है, अब बड़ी हो गयी हो, बचपना छोड़ो अर्चना। तुम्हारी उम्र में मेरी शादी हो गयी थी, पूरे घर सम्हालती थी, सास, ससुर, देवर, ननंद और फिर तेरे पापा, सबको संतुष्ट करना कोई हंसी ठट्ठा का खेल नहीं था - मां ने मेरे बालों को सहलाते हुये बड़े प्यार से गंभीर होकर कहा। 
 
 
मां मैं तो अभी भी छोटी सी बच्ची हूं, देखो तुम्हारे कंधे तक आती हूं, मैं मां के पास लाड़ से चिपक गयी और मां का बनावटी गुस्सा उनकी खिलखिलाहट में कहीं खो सा गया।
 
 
उस दिन शाम मैं पढ़ने के लिये घर से बड़े रूंआसे मन से दिल्ली आ गयी.  नयी जगह, नये लोग सब कुछ अटपटा सा था। कुछ दिनों तक तो मां की याद में बैठकर रोती रही, कभी-कभी घर लौट जाने को मन करता, लेकिन धीरे-धीरे पढ़ायी के साथ सब कुछ ठीक होता गया । मैं मन लगाकर पढ़ा करती किंतु मां की याद आते ही मै पूरी तरह ठहर सी जाती, मेरे सारे उमंग कहीं खो जाते और मैं मायूश हो जाती। लेकिन ऐसी किसी भी परेशानी में मेरा सहारा कालेज का वह छोटा सा गार्डन हुआ करता , जहां की अनोखी सुंदरता मुझे भीतर तक तृप्त कर देती।  
   
एक दिन मैं महाविद्यालय के प्रांगण में अवकाश के क्षणों में बैठी फागुनी बयार का आनंद लेती  कुछ बिखरे सपनों को सहेजने का प्रयत्न कर रही थी. उन पलों में बासंती मादक हवाओं का अहसास मेरे अतृप्त मन को एक सुकुन सा दे रहा था। फाल्गुनी हवा के मादक झोंकों से मेरा रोम-रोम पंखुरित हो रहा था और उन क्षणों में मेरे देह के अगणित पोरों से छलकता हुआ यौवन का सौंदर्य किसी पुष्प की पंखुड़ी पर पड़े शरद ऋतु के ओस के बूंद की तरह आकर्षक लग रहा था। मैं इंद्रधनुषी छटाओं के झरोखों से झाडि़यों की झुरमुटों में छिपकर आ रही एक किरण में अपने सतरंगी सपनों को निहार रही थी और मेरा चंचल चित्त किसी विहंग की तरह आकाष की उन्मुक्त उंचाईयों को नापने की चेष्टा करती, संपूर्ण जगत के सुख और ऐश्वर्य को अपने कदमों के समीप देखने का यत्न कर रही थी।
 
वास्तव में मंै उन दिनों जब भी किसी कार्य से रिक्त होती अथवा अध्ययन से अवकाश के क्षण होते, कल्पना के पंख लगाकर क्षितिज तक जाया करती और वहां से सुंदर-सुंदर सपनों के मोती चुनकर ला दर्पण के सम्मुख इत्मीनान से बैठ उन मोतियों से श्रृंगार कर अपने सौंदर्य को घण्टों निहारा करती। अपने व्यक्तित्व को सौंदर्य का पर्याय मानने वाली मेरी धारणा लगभग परिवर्तित हो चुकी थी और आईनों से मुझे मुहब्बत सी हो गयी थी।  मैं स्वयं के इन्ही सब क्रियाकलापों से महसूस करने लगी थी कि मेरा किशोरपन मुझसे अब विदा हो गया है।
 
किशोरावस्था को विदा कर युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते हुये मैं अपने अंदर होने वाले कुछ भावनात्मक हलचल को पिछले कुछ समय से महसूस करने लगी थी। मेरे अंदर का एकाकीपन अब मुझे कुछ-कुछ सालने लगा था और मेरे हृदय वाटिका में अंकुरित प्यार की नवकोपलें किसी तृप्ति की आस लिये प्रकृति के सौंदर्य के इर्द गिर्द भटकने लगी थीं। मैं कुछ-कुछ अलग सा और बिल्कुल नयापन सा महसूस करने लगी थी। मुझमें किसी रिक्तता का आभास होने लगा था और इसी शून्यताको मैं प्राकृतिक छटाओं के उन खूबसूरत लम्हों से अवकाश के पलों में परिपूरित करने का प्रयत्न किया करती ।
 
                                                              ---2---
घर से कोसों दूर दिल्ली जैसे महानगर में अन्जानों के बीच एक अजीब सा भय मुझे हर रोज सालता था और यही भय कहीं ना कहीं किसी पुरूष के प्यार के अवलंबन को मेरे अंदर जन्म देने लगी थी । स्वयं में तेजी से हो रहे भावनात्मक परिवर्तन के बीच किसी के प्यार की अनायास मुझे आवष्यकता महसूस होने लगी थी और मै भावनाओं के प्रवाह में बहने लगी थी। यद्यपि उस समय विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण की अवस्थाजनक कमजोरियों को अपने संस्कारों से यथासंभव नियंत्रित करने का प्रयत्न करती परंतु हर बार मैं जैसे नाकाम हो जाया करती । मेरे अंदर उठ रही प्यार की लपटों की अतृप्त प्यास से मैं झुलस जाती और उन्ही अन्जानों के बीच किसी हमसफर की आस लिये ईष्वर से प्रार्थना किया करती ।
 
मंा ने मुझे जब अध्ययन हेतु दिल्ली भेजा था तभी ढेर सारी नसीहतों, उपदेशों एवं हमारी गौरवशाली परंपरा का दुहाई देते हुये मुझसे वचन मांगा था कि मैं किसी भी कीमत पर घर कीप्रतिष्ठा को धुमिल नहीं होने दूंगी और मैने उन्हे यह वचन संहर्श हंसते-हंसते दिया था।
 
मैं जानती थी कि सामाजिक प्रतिमानों के विरूद्ध मेरी कोई भी प्रगतिवादी सोंच घर के सम्मान को आंच पहुचायेगी, मां को तोड़ देगी, इसलिये हर हालत में मैं अपने सोंच और संस्कारों में समायोजन बिठाना चाहती थी । इस तरह जब कभी मेरे कदम किसी पुरूष के प्यार की कल्पना में आगे बढ़ती मैं बड़ी निष्ठुरता से उसका दमन करने में कामयाब हो जाया करती, तभी तो अपने मित्रों के बीच मैं संवेदनहीन, निर्दयी, पत्थरहृदय और ना जाने किन-किन उपनामों से जानी जाती । मैं जानती थी कि मेरे अंदर भी जीती जागती भावनाएं हैं, कोमल कल्पनायें साकार स्वरूप प्राप्त करने की चेष्टा कर रही हैं, भावनाओं का तीव्र आवेग मेरे संस्कारों की बनायी परिधीय दीवारों को तोड़ने के लिये बेचैन है । मै यह भी जानती थी कि जितनी निष्ठुरता से मैं अपने अंदर उठ रही प्यार की लपटों को दमन करने का प्रयत्न कर रही हूं, वह उतनी ही तीव्रता से मेरे संस्कारों को झुलसाकर किसी संकीर्ण मार्ग की तलाश में कहीं एक सुर्खछेद बनाने का प्रयत्न कर रही है, किंतु मैं जब तक हो सकता था इन सबसे बचना चाहती थी ।
 
सच तो यह था कि मेरी ईष्वर पर अगाध श्रद्धा थी और मैं मिलन-विरह, संयोग-वियोग अथवा प्यार के किसी सुनहरे पल को उनके द्वारा किसी निष्चित उद्देष्य के लिये दिये गये उपहार के रूप में देखा करती । अतः मैं आश्वस्त थी कि ईष्वर की कृपा जब मुझ पर होगी, किसी स्वस्थ, सुंदर और प्रतिभाषाली पुरूष के प्यार का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होगा। ऐसा नहीं था कि इस उम्र के आते तक किसी युवक का प्रणय प्रस्ताव मुझे ना मिला हो, सभी सामान्य लड़कियों की तरह लड़कों की फब्तियों, छिछोरी हरकतों, एवं फिकरें कसने जैसी परेषानियों का सामना मुझे भी करना पड़ा था, किंतु इन सब परिस्थितियों ने मुझे जहां चारित्रिक रूप से सुद्ढ़ किया था वहीं मैं साहसी भी हुई थी और किसी की आंखों में उसके अंदर पल रहे शैतान को जानने समझने की क्षमता भी मुझमें बड़ी तेजी से विकसित हुई थी ।
 
अभी मैं एक पुष्प पर भौंरे के आकर्षण को निहार ही रही थी कि मेरे सामने दालान पर एक लड़का गमले में पुश्पित गेंदे के एक फूल की पंखुडियों को निकाल-निकाल कर खेलने लगा। छरहरा बदन, गेहुंआ रंग और शर्मीले स्वभाव का वह लड़का वहां बैठकर किसी नोवेल का अध्ययन कर रहा था किंतु वास्तव में वह उसका अभिनय मात्र था। बीच-बीच में वह मेरे सौंदर्य को निहार लेता, किंतु जैसे ही मैं उसे देखने का प्रयत्न करती, वह नजरें नीची कर लेता या फिर अन्यत्र देखने का उपक्रम करने लगता। वैसे भी पिछले कुछ समय से मैं उसके हाव भाव का जो आंकलन कर रही थी उससे सब कुछ सतही नहीं था, मुझे गंभीरता से उसके बारे में विचार करने की आवश्कता थी। मै अभी उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानती थी, केवल उसके नाम से ही थोड़ी बहुत वाकिफ थी, लेकिन जब कभी मैं उससे मिलती, उसका अंतर्मुखी व्यक्तित्व मुझे बहुत भाता था, उसका संकोची स्वभाव मुझे अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेती।

                                                                       ----3----

वह मुझे उस दिन नजरें चुराकर घण्टे भर तक देखता रहा किंतु मैं उस घटना को किसी पुरूश की सामान्य चारित्रिक विषेशता, स्त्रियों के सौंदर्य से उर्जा प्राप्त करने की पुरूशों की प्राकृतिक लालसा से ज्यादा तवज्जो देकर अनावष्यक तनाव मोल नहीं लेना चाहती थी। मैं तो स्वयं में खोयी हुई बस कल्पनाओं के सागर में डुबकियां लगा रही थी, वैसे भी इस उम्र में कल्पनाओं में गोते लगाने का अपना एक अलग महत्व होता है। युवावस्था की दहलीज पर कदम रखना, किसी युवती के लिये वह सुखद अनुभूति होती है जिसका वर्णन सामान्य रूप से कर पाना मुमकिन नही ंतो कठिन अवष्य होता है, विवाह के सुखद अहसास की इंद्रधनुशी कल्पना,भविष्य के केनवास पर कल्पना के रंगों से प्रिय में वंाछित गुणों को उतारने का एक अंतिम अवसर, माता-पिता के घर से विदा होने की नजदीक होती घडि़यां और उनके प्यार की प्रतिपूर्ति में किसी दशरथ और कौशल्या के सपनों को बस एकटक निहारते रहने की अतृप्त इच्छा से कभी उबासी ही नहीं आती । कल्पनाओं में ऐसा महसूस होता है जैसे विवाह के पष्चात सारा घर और पूरे परिवार की इच्छायें केंद्रीकृत होकर उसके इर्द-गिर्द घूमेंगी, सब लोग उसका ऐसे ध्यान रखेंगे जैसे घर में किसी राजकुमारी का आगमन हुआ हो।

लेकिन मैं जानती थी कि हसीन ख्वाबोें की उम्र बहुत ज्यादा नहीं होती, पलकों के समीप जिन स्वप्नों को देखने की मैं चेश्टा कर रही हूं, वह सब मेरी नासमझी है, नितांत कोरी कल्पना मात्र है, मैं यह भी जानती थी कि कल्पना का यथार्थ से गहरा बैर होता है, मैं जो सोंच रही हूं, वह हो नहीं सकता और जिनसे मुझे सख्त नफरत है वही सब मेरी जिंदगी का अहम् हिस्सा बनने वाला है, लेकिन ऐसे क्षणों में मैं किसी दर्शन शास्त्र के इन वाद विवादों से दूर बस उन चंद लम्हों को किसी तरह संपूर्णता से जी लेना चाहती थी।

थोड़ी ही देर में वह लड़का जिसे मै राहुल के रूप में जानती थी, अपने जिंस का पीछे का हिस्सा साफ करते हुये मुझसे कहा-अर्चना, मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूं...

उसकी ये बातें मेरे स्वप्न में दखल सी दे गयी, मेरे सपनों की श्रृंखलाबद्ध कडि़यां जैसे टूटकर बिखरने लगीं, फिर भी मैनें संयत हो दुपट्टे को जरा ठीक करते हुये कहा-

जी, कहिये ।

वह संकोच से कुछ कह नहीं पा रहा था, पर उसके चेहरे के हावभाव उसके अंतर्मन की बातों को स्पष्ट रूप से बयां कर रहे थे।

मैने फिर से कहा- जी कहिये ना, संकोच कैसा?

उसने संकोच भरे लहजे में  कहा- कहीं, आप बुरा तो नहीं मान जायेंगी?

मेरे माथे पर बल पड़ गये-

मैने कहा, राहुल जी, बुरा मानने वाली अगर कोई बात होगी, तो अपना एतराज जरूर दर्ज करूंगी, किंतु उसमें भी मेरा क्रोध नहीं, मेरी शालीनता प्रदर्षित होगी, मैं आपको बुरा मानने के कारणों के बारे में विस्तार से बताउंगी।

राहुल झेंप सा गया,

उसने कहा- तो, फिर रहने दीजीये, ऐसी कोई खास बात नहीं थी। 

मुझे गुस्सा आने लगा, वैसे भी आधी-अधूरी बात कर जब भी कोई मुझे उत्सुकता की देहरी पर छोड़कर अपनी बातों का इतिश्री करने का प्रयत्न करता, मुझे क्रोध सा आ जाता।

 मैंने फिर से अपनी बातों में तल्खी लाते हुये कहा- देखेा राहुल, जब बात छेड़ी है, तो उसे पूरा भी करो, अनावष्यक बीच में किसी बात को छोड़कर मन में किसी उत्सुकता या दुविधा को जन्म देना मेरे विचार से बिल्कुल भी ठीक नहीं होता। वैसे भी हम इंसान ही तो हैं, कमियां हम सबमें होती हैं । हो सकता है, तुम जो कहना चाह रहे हो, वह मेरे विचारों या भावनाओं के अनुकूल हो और मुझे खुषी हो ।

राहुल को मेरी बातों से जरा ताकत का अहसास हुआ, वह मेरे समीप आकर सिर्फ इतना ही कह पाया था कि अर्चना मैं तुमसे... कि इसी बीच मेरी सहेलियां खिलखिलाकर हंसते हुये मेरे समीप आ गयीं और उसकी बात अधूरी रह गयी ।
                                                       ---4---

उसके समस्त क्रियाकलापों, उसके हावभाव एवं आधे-अधूरे शब्दों से मैंने यह अवष्य अनुमान लगा लिया कि वह मुझसे शायद प्रणय निवेदन करना चाहता है। मैं उसके मंुह से यह शब्द सुनने के लिये बेहद उत्सुक थी, किंतु भाग्य ने जैसे उस दिन मेरा साथ नहीं दिया। पूरी रात बड़ी बेचैनी से कटी, एक-एक पल जैसे युगों की तरह बीता, पहले प्यार के पहले अहसास की कल्पना, मेरे सुंदर तन और अतृप्त मन को उस रात्रि में जो सुकुन दे रही थी उसे मैं सिर्फ महसूस कर सकती थी, शब्दों में बता पाना तो उस क्षण नितांत कठिन था। जीवन के कोरे पृश्ठों पर होता प्रथम गुलाबी अहसास, स्वप्नों की पंखुडि़यों से सजे मलमली सेज का अनोखा आनंद, वीणा की मधुर ध्वनि सा धड़कती हुई हृदय की मीठी आवाज और उन सबके बीच दिल में प्यार के ज्वार की उठती तरंगे। मैं अभिभूत थी उन क्षणों को स्वप्नलोक में पाकर, जहां दूर-दूर तक ना कोई शोक था ना जीवन की कठिनाईयां थी, यदि कुछ था तो सिर्फ और सिर्फ जीवन था, खुषियां थी ।

सुबह कालेज जाने की बेसब्री थी, किंतु लम्हों और पलों की मंथर गति से प्रवाह ने प्रतीक्षा और मेरे धैर्य का  जैसे इम्तिहां ले ली । कालेज जाकर मैं स्वयं को एकांत देना चाहती थी ताकि राहुल को मुझसे बातें करने का अवसर मिल सके। राहुल ने भी एकांत पाकर मेरे समक्ष उस दिन प्रणय प्रस्ताव आखिर रख ही दिया । 

मैने राहुल से कहा- तुम जानते हो प्यार की क्या परिभाशा है ?

राहुल ने मुस्कुराते हुये कहा- हां, मैं जानता हूं, प्यार षारीरिक आकर्शण मात्र का ही नाम नहीं है और ना ही प्यार साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाने की अपरिपक्व मानसिकता का प्रतीक है, बल्कि प्यार तो एक दूसरे की महत्वाकांक्षाओं को मूर्त रूप प्रदान करने के लिये किसी अवलंबन प्रदान किये जाने का पर्याय है। प्यार सत्यम् ,षिवम् , सुन्दरम् के गूढ़ अर्थ को स्वयं में समेटे ईष्वर का दिया अनुपम उपहार है। जहां प्यार है, वहां जीवन है और जहां सत्य है, संयम है, विष्वास और पारदर्षिता है, वहां प्यार के बीज सीप से निकले मोती की तरह चमकते हैं।  यकीन मानो अर्चना, तुम्हारा प्यार मुझे समाज के सम्मुख अपनी एक अलग पहचान बनाने में बेहद मददगार साबित होगा और सच कहूं तो यह तुम्हारा मुझ पर एक ऋण है।

मैं खामोश थी, राहुल के विचारों के सम्मुख नतमस्तक थी, वह जितना कुछ कहता, मैं उतना ही उससे प्रभावित होते जाती ।

मैं राहुल के विचारों से उस दिन बेहद प्रभावित थी, मै उसके साथ पार्क पर टहल रही थी तभी राहुल ने मुझसे कहा- अर्चना, क्या तुम खामोश ही रहोगी या कुछ कहोगी भी, तुम्हारे भी तो प्यार के बारे में अपने निजी विचार होंगे?
 
मैं थोड़ा संकोच में पड़ गयी, मैने कहा- मैं भी यही सोंचती हूं । राहुल सचमुच प्यार एक अहसास है, वैसे तो इसकी व्याख्या कठिन है, यह तो अनुभूति मात्र का विषय है, फिर भी मैं तो यही कहूंगी, यह जीवन को और अधिक बेहतर ढंग से जीने की कला प्रदान करने का प्रकृति प्रदत्त एक अनोखा उपहार है।

मेरे विचारों से राहुल भी गद्गद हो गया, हम गार्डन में एक खाली जगह पर अब बैठ चुके थे, फाल्गुन की हल्की बूंदा-बांदी भी हो रही थी, लेकिन हम दोनों इससे बेखबर थे।

मैने राहुल से कहा- एक बात कहूं ?

हां-हां कहो ना !

मैने राहुल से कहा- राहुल, मैं प्यार की सात्विकता में विश्वास करती हूं। यदि यह तुम्हे स्वीकार हो तो ही... अन्यथा हमारे रास्ते अभी भी अलग हैं ।

राहुल ने मेरी ओर कौतुहल से देखते हुये कहा- अर्चना मुझ पर भरोसा रखो, , दैहिक आकर्षण के दम पर टिका प्यार दीर्घजीवी नहीं होता, उसकी उम्र कुकरमुत्ते की उम्र से ज्यादा नहीं होती।


फिर उस दिन पीरियड की बेल के बाद हम अपने क्लासरूपम की ओर चले गये।


अब तो जब कभी मै अध्ययन से रिक्त होती, राहुल के साथ अपने विचारों को बांटती, उसके साथ धूमने का अपना अलग ही आनंद होता और इस तरह मैं राहुल के प्यार में घीरे-धीरे रंगते गयी । मेरे अंदर की कई अनगढ़ प्रतिभायें उसके प्यार के झोंकों के स्पर्श से एक स्वरूप लेने लगीं,उसके प्रोत्साहन के चंद लब्ज मुझमे अपूर्व ताकत और उर्जा का संचार किया करतीं ।

मेरे अंदर की बाल्यावस्था की कई प्रतिभायें जैसे अवसर की तलाश में भटकने लगीं । मैं बचपन से ही सुंदर अल्पोना और रंगोली बनाया करती, इसमें मैने अपनी सुंदर कल्पना से विकसित कर चित्रकारी का अद्भुत रूप देने लगी । मां के साथ जिन हिंदी फिल्मों के गाने गाना मेरे शौक हुआ करतीं, उसे मैं महाविद्यालय के मंचों पर प्रदर्षित कर अपनी कला का लोहा मनवाने लगी ।

प्यार से व्यक्ति का व्यक्तित्व निखरता है,उसका स्वरूप किसी पुष्प की भांति खिल जाता है, यह मैने जीवन में पहली बार महसूस किया । उस पहले प्यार के पहले अहसास ने मेरे अंदर कई परिवर्तन किये, मुझमें धैर्य के गुणों का विकास किया, मेरे विचारों में मैने परिपक्वता का आभास किया ।

मैं राहुल के निष्छल और निःस्वार्थ प्यार को पाकर अपने जीवन से बहुत खुश थी, उसके परिपक्व विचार और जीवन के प्रति उसके आशावादी दृष्टिकोण ने मुझे कुछ कदम आगे बढ़कर सोंचने को जैसे विवश कर दिया । मैं राहुल में वे सभी गुण लगभग देख पा रही थी जो मैने अपने सपनों के राजकुमार के लिये मापदण्ड तय करके रखे थे। उसका व्यक्तित्व मेरे तय मानकों से 80 फीसदी निकट था और सौ फीसदी होने का तो प्रष्न ही नहीं उठता था, क्योंकि ईष्वर हर व्यक्ति में कुछ ना कुछ ऐसी कमियां अवष्य छोड़ जाता है जो उसे अधूरा कर इंसान की श्रेणी में रख देता है और इसी कमीं को हम समायोजन के गुणों द्वारा पूरा कर वैवाहिक जीवन केा सफल बनाने में कामयाब हो जाते हैं ।

हम दोनेा एक दूसरे से बेइंतहा प्यार करने लगे थे और प्यार का मीठा जहर मेरी नसों में घुल कहीं ना कहीं मुझे कमजोर करने लगा था। मुझे अब लगने लगा कि राहुल के बिना जीवन निर्वाह मेरे लिये कठिन हो जायेगा, सो मैने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हुये कहा-

क्या तुम नहीं सोंचते कि हमें अपने प्यार को विवाह का स्वरूप देकर पूर्णता प्रदान करनी चाहिये? एक अटूट बंधन में बंधकर एक दूसरे के स्वप्नों को साकार करने में जिम्मेदारी से मदद करनी चाहिये ?

अर्चना, तुम यदि मुझसे विवाह की इच्छुक हो तो यह मेरा सौभाग्य है। मैं कल ही घर में माता-पिता से बातें करूंगा। लेकिन क्या तुम्हारी मां मेरे साथ विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगी? राहुल खुशी से गद्गद हो चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखेरते हुये कहा।

मैने कहा- राहुल, मेरी मां बहुत संवेदशील है, आधुनिक विचारों की प्रगतिषील महिला है, वे मेरी इच्छा के विरूद्ध कभी नहीं सोंचेंगी।

                                                            -5-

राहुल ने घर में बातें करने की चेष्टा की, किंतु उनके परिवार के लोग किसी भी कीमत पर राजी ना हो सके ।

मैेने राहुल के समक्ष मंदिर में विवाह का प्रस्ताव रखते हुये कहा- राहुल हम परिपक्व हैं चलकर किसी मंदिर में विवाह कर लेते हैं, विवाह के पश्चात हमारे रिश्ते को स्वीकारना उनकी विवशता होगी।

राहुल खामोश हो सिर पकड़कर बैठ गयाए वह आकाश में किसी शून्य को निहारने लगा।

मैने कहा- क्या हुआ ?

राहुल ने कहा. नहीं अर्चना! मैं ऐसा नहीं कर पाउंगा, माता.पिता की मर्जी के विरूद्ध मैं विवाह नहीं कर सकताए जिन्होने मुझे 23 साल तक पाल पोंसकर बड़ा किया, हर कदम पर मेरे लिये तकलीफ सहे, मैं उनके साथ धोखा नहीं कर सकताए विश्वासघात मेरी फितरत में नहीं है । मेरा ऐसा मानना है कि जो व्यक्ति अपने माता.पिता के विश्वास की रक्षा नहीं कर सकता वह भावनाओं के प्रवाह में बहकर यदि किसी स्त्री के विश्वास  की रक्षा करने का दंभ भरता हो तो वह महज एक छलावा है' यह दीर्घकाल तक टिकाउ नहीं होता ।

मैं हताश सी राहुल के समक्ष बैठी अनुरोध भरे स्वर में गिड़गिड़ाते हुये कहने लगी. तुम एक बार फिर से बात करोएउन्हे यह समझाने का प्रयत्न करो कि मैं उनके घर की प्रतिष्ठा और सम्मान को सदैव उंचा करूंगीएएक श्रेष्ठ बहू के रूप में अपना परिचय दूंगी ।

मेरे कहने पर राहुल ने घर में पुनः चर्चा की, लेकिन वह उन्हे ना मना सका।

अब तो मेरे क्रोध का पारा सातवें आसमान पर था। राहुल से विछोह की कल्पना से मैं विरह अग्नि में जलने लगी । मैने कहा- राहुल तुम इतने कायर और डरपोक होगे, मैने उसकी कल्पना भी नहीं की थी ।

क्या तुमने मेरे समक्ष प्रणय प्रस्ताव रखते हुये अपने माता.पिता की अनुमति ली थी ? क्या तुमने मेरी भावनाओं से खेलते हुये उनका विश्वास अर्जित किया था ? तुम्हारा यह कैसा दोहरा मापदण्ड है? क्या तुम भी उन्ही सामान्य पुरूषों की तरह हो, जो प्यार किसी और से करते हैं और शादी किसी और से ? क्या तुम मुझे इस बात पर विवश कर रहे हो कि मैं अपना जूठन हदय लेकर, तुम्हारे रंगो से रंगे अपने बदरंग विश्वास और चारित्रिक पृष्ठों के साथ पराये पुरूष का प्यार स्वीकार कर लूं ? क्या मैं वहां एक अपरोधबोध महसूस नहीं करूंगी ? राहुल क्या किसी दूसरी स्त्री के समक्ष मीठी बातें करते हुये तुम्हारी आत्मा तुम्हे नहीं धिक्कारेगी ?


राहुल चुप था, आखिर उसके पास जवाब भी क्या हो सकता था?

मैं रोने लगी, उसने मुझे ढाढस बंधाते हुये कहा-अर्चना, विरह प्रेम का सौंदर्य है। तुमने प्रेम को समझा ही नहीं, वास्तव में प्रेम रूपी नन्हा सा पौधा तो विरह के अश्रु से सिंचित हो सर्वाधिक पुष्ट होता है। प्रेम वह स्वर्ण कणिका है जो विरह की धधकती ज्वाला में जितनी तपती है उतनी ही अधिक दृढ़ता से आलोकित होती है। सच तो यह है कि उस व्यक्ति ने प्रेम के वास्तविक स्वरूप के कभी दर्षन ही नहीं किये, जिसने विरह वेदना में हदय के तपते दावानल को अपने नयनों से सींचकर कभी षांत करने का प्रयास ना किया हो।

मैं लगातार रो रही थी, उसने अपनी बातों को अविराम पूरा करते हुये कहा- मिलन तो प्रेम का समही स्वरूप होता है। अर्चना, जो मिलन को प्रेम की संपूर्णता मानते हैं, वे प्रेम के वास्तविक स्वरूप को जानते ही नहीं। हमारा विछोह हमारे प्यार को नई उंचाईयां देगा, यकीन करो।

उसकी बातें उस दिन मुझे पूरी तरह बकवास लग रही थीं, मेरे आंसुओं पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ रहा था । मैं रोती हुई टेक्सी पकड़कर हाॅस्टल चली आयी । मैं विरह के उस भय से कांप उस दिन विचलित हो गयी। किसी व्यक्ति का मिलन जितना सुखदायी होता है, विरह उतना ही कष्टकारक भी । मैं नैराश्य के काले बादलों से घिर गयी, मेरे आंखों से छलकती हुई अश्रु की बूंदे मेरे अंतर्मन की व्यथा को प्रतिबिंबित कर रही थी। किसी पुरूष, जिसे मैं दो वर्ष पहले तक जानती भी नहीं थी, के लिये बहते हुये खारे जल की धारा उस रिश्ते को अभिव्यक्त कर रही थी, जिसे सिर्फ हदय से महसूस किया जा सकता है। मैं पूरी तरह टूट चुकी थी, विरह की अग्नि से मेरा संपूर्ण काया झुलस सा गया, मेरे सौंदर्य का आकर्शण किसी टहनी से टूटे पत्ते की तरह कुम्हला गया । मेरी भावनाओं का श्वेत हिमशिखर पिघल.पिघलकर एक सरिता की तरह आंसुओं के रूप में बहता हुआ, मेरे हदय की धधकती ज्वाला को षांत करने का नित प्रयत्न करती, किंतु जैसे वह अधूरी प्यास उस अग्नि को और अधिक तीव्रता से भभका मुझे झुलसा देती।

मैं पागलों सी हो गयी, इस बीच राहुल का विवाह भी हो गया. उसके विवाह के पश्चात तो जैसे मैं अपना आत्मविश्वास खो बैठी, मेरे कदम लड़खड़ाने लगे। मेरी महत्वाकांक्षायें गर्त में समाने लगीं । मैं हर रोज विरह वेदना में जलती, विछोह की पीड़ा से मर्माहत हो चुकी मेरी भावनायें मृतप्राय सी हो गयीए आंखेां की कोशिकायें सूखकर अश्रुविहीन हो गयीं। जिस प्यार ने मेरे अंदर की अगणित प्रतिभाओं को संबल प्रदान कर एक उंचाई दी, उसी ने मेरे अंदर नफरत की जहर भर दी, खुशियां मुझसे रूठ गयीं और गमांे से मुझे प्यार हो गया। एक कमरे में सिसकियां भरकर रोने के सिवाय मेरे पास कोई विकल्प नहीं थाए मैं अकेली रहने लगी और मुझे अब एकांत से प्यार हो गया। दर्द भरे गीत और गजल मेरे जीने का आधार बन गयीं।


मैं व्यस्त रहने का उपाय ढूढ़ने लगी और यही सोंच मैने एक संस्थान में नौकरी ज्वाईन कर ली । इस बीच मुझे विवाह के कई प्रस्ताव मिलेे, किंतु मैं मानसिक रूप से तैयार नहीं थी और कोई ना कोई बहाना बना एक दो वर्षों तक तो इसे टालती रही, किंतु ऐसा बहुत दिनों तक संभव ना हो सका । मैं मां की पीड़ा को महसूस कर रही थी, उसके माथे पर दिखती चिंता की साफ लकीरें मुझे अपने निर्णय पर पुर्नविचार के लिये बाध्य करने लगीं । उसके मौन यद्यपि कुछ ना कह पाती रही हों, लेकिन मै यह आभास करने लगी थी कि वे जल्द से जल्द मेरे हाथ पीले कर पिता के दिये ऋण और अपने उत्तरदायित्व दोनो से मुक्त होना चाहती है। अनिच्छा के बावजूद मां के इरादों का सम्मान करते हुये मैने विवाह का निश्चय कर लिया। मैं अतीत को भुलाकर फिर से एक नया जीवन जीना चाहती थी और मुझे लगा कि नये व्यक्ति का पति के रूप में प्यार मेरे जीवन में आये हुये निर्वात की भरपायी कर देगा, किंतु यह मेरा भ्रम साबित हुआ ।

विवाह के पश्चात जिस सत्य से मेरा साक्षात्कार हुआ वह मुझे नये सिरे से पुनः विचलित करने के लिये पर्याप्त थीं। पति के रूप में शिशिर की पुरूषवादी अहम् दृष्टिकोणए उसके परिवार की रूढि़वादी सोंच मुझे हर कदम पर खटकने लगी। मेरे पति की नजर में स्त्री की हदें घर की देहरी तक सीमित थी] जो मेरे अंदर की ख्वाईषों एवं औरों से अलग हटकर दिखने, सोंचने और समझने जैसी मेरी कई महत्वाकांक्षाओं से टकराने लगी।

विवाह के बाद मैं पहली बार घर आयी, मां के सम्मुख मित्रवत् कुछ परेषानियों को रखने का चेश्टा की तो मां की चिंता को देखकर दुबारा फिर कभी साहस ही नहीं हुआ।

मां ने उस दिन मुझे सिर्फ इतना कहा. बेटा! नयी जगह में समायोजन में थोड़ी कठिनाई अवश्य आती है, यह जीवन का अस्थायी क्षण होता है, जो सभी के जीवन में एक बार आता है और यह समय के साथ समाप्त भी हो जाता है, जब एक दूसरे को तुम सब जानने समझने लगोगे तो सारी परेषानियां खुद ही समाप्त हो जायेंगी। परिवार की गाड़ी ऐसे ही चलती है।

लेकिन मां के तर्क मुझे बहुत दिनों तक संतुष्ट ना कर सकी।  वास्तव में शिशिर मुझे भी एक सामान्य औरत की तरह उसी भीड़ का हिस्सा बनाना चाहता था, जहां सैकड़ों औरतें जन्म लेती हैं और ना जाने कब काल के गाल में समा जाती हैं कि गलियों को भी भनक नहीं लगती। मुझे ऐसी जिंदगी से सख्त चिढ़ थी, मैं स्वयं को ईष्वर की बनायी विशिष्ट कृति के रूप में मानती थी, जिसे कुछ विशेष करने उस परवरदीगार ने इस धरती पर जन्म दिया है। मुझमें गायन, लेखन, चित्रकारी जैसी प्रतिभाएं कूट.कूट कर भरी थी. मैं इसे उभारकर इस संसार में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ना चाहती थी । किंतु शिशिर के हर कदम पर असहयोग, उत्पीड़न और गहरे कटाक्ष से मैं टूटने लगी ।

बेमेल और विसंगत विवाह के बीच मर्यादाओं की कालकेाठरी में दम तोड़ती मेरी अतृप्त इच्छायें एवं सारी महत्वाकांक्षायें मातमी गान गाने लगी। हर कदम पर मैं असहज महसूस करने लगी । मायके में एक संयुक्त परिवार में साथ रहते हुये जिन समायोजन के गुणो का मैने स्वयं में विकास किया था, मेरी वह युक्ति भी परिवार की गाड़ी को पटरी पर लाने में कोई काम ना आ सकी ।

रोज.रोज की वही खिचपिच और उलाहना से मैं तंग आ चुकी थी., मैने एक बार अंतिम प्रयास करते हुये शिशिर से कहा. शिशिर क्यों ना हम कहीं बाहर घूमने चलें. हमें एक दूसरे के विचारों का सम्मान करना होगा, जीवन की गाड़ी आगे बढ़ाने के लिये आखिर हमें एक दूसरे को समझना ही होगा, किसी भी पक्ष के प्रति उपेक्षा से दूसरे के मन में हीनता और कुंठा जन्म लेती है।

शिशिर ने खीझ भरते हुये कहा. देखेा अर्चना! स्त्री की अपनी एक मर्यादा होती हैए उसका अतिक्रमण मेरी दृश्टि से बिल्कुल भी उचित नहीं होता । पति की कामयाबी में खुशी तलाशने का गुण हर स्त्री को विकसित करना ही चाहिये अन्यथा मेरी नजर में जिन स्त्रियों में यह स्वभाव नहीं होता वे अपने परिवार और स्वयं के प्रति गैर जिम्मेदार होती हैं।

मैं शिशिर को हर कदम पर समझाने का प्रयत्न करती किंतु वही ढाक के तीन पात, स्त्रियों के प्रति उसकी सोंच में मैं परिवर्तन ना कर सकी और  अंत तक फलदायी परिणाम के किसी बिंदू तक नहीं पहुंच सकी । मुझे बीते हुये लम्हे फिर से याद आने लगे और मैं शिशिर की राहुल से तुलना करने लगी। कहां राहुल का उज्जवल सहयोगात्मक चरित्र जहां वह हर कदम पर मेरी महत्वाकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिये लालायित रहता, जी.जन लगाकर चेष्टा किया करता और कहां शिशिर की पुरातनपंथी सोंच जहां वह हर मोड़ पर मेरी हदें बताकर मुझे निरंतर कुंठित करने का प्रयत्न किया करता ।

इस तरह दो पुरूषों की तुलना मुझे महंगी पड़ने लगी और मैं अंदर ही अंदर घुटने लगी, राहुल की कमीं एक बार फिर से मुझे सालने लगी। मैं उसे लगभग भूल चुकी थी, किंतु उसकी यादें एक बार फिर मेरे जीवन में परछायी की तरह साथ.साथ चलने लगा ।

कई बार मेरे कदम आत्महत्या की ओर उठने को होते, पर किसी एक दार्र्शनिक के वे शब्द मुझे अनायास याद हो आते जिसमें उन्होने एक बार कहा था. आत्महत्या, दुखों अथवा कष्टों से निजात पाने का कोई स्थायी उपाय नहीं है, हम जिन दुखों से तंग आकर इस जीवन को समाप्त करते हैं, हमारा अगला जन्म उन्ही दुखों और कष्टों से प्रारंभ होता है. तब क्यों ना हम इसी जन्म में इन कश्टों से लड़कर विजयश्री का वरण करें और अगला जन्म बेहतर प्राप्त करें।

इस बीच मेरा एक बेटा भी हुआ, उसके जन्म के साथ मुझे एक नया सहारा मिल गया, जीने की नयी आश फिर से पैदा हो गयी. अब तो मुझे अपने बेटे के लिये हर हाल में जीना था।

दिन गुजरते गये लेकिन कठिनाईयां कम नहीं हुई, अब तो धीरे.धीरे दुखों और कश्टांे से मुझे प्यार सा हो गया था. विपत्तियों के साथ मेरा जैसे चोली दामन का साथ हो गया, लेकिन अब भी मेरी दम तोड़ती महत्वाकांक्षायें कई बार मुझे अंदर तक झकझोर कर रख देती, मैं भीतर ही भीतर छटपटाने लगती।

अब मेरे सामने केवल एक ही विकल्प बचा था. मैं नैसर्गिक रूप से प्राप्त अपनी प्रतिभाओं को मूर्त रूप देने व्यस्त रहने का उपाय ढूढ़ वैवाहिक जीवन में आयी कठिनाइयों से निजात पाने का प्रयत्न करूं.  मुझे मां के कहे वे शब्द आज भी याद थे कि यदि ईष्वर जीवन में कोई समस्या देता है तो उसके उपाय भी वहीं कहीं किनारे पर रख छोड़ता है।

मैं महाविद्याालय के समय अपनी मुखर हुई प्रतिभाओं को फिर से नये आयाम देने का प्रयत्न करने लगी और समय निकाल कर स्टेज शो करने लगी । अपने ही लिखे खूबसूरत गानों से मैने श्रोताओं के हदय में जल्द ही एक अलग जगह बनानी शुरू कर दी और मेरी शहर में एक पहचान बन गयी । मै जी-जान से मेहनत  करती, कुछ ही दिनों में मेरी इस प्रतिभा के सभी कायल हो गये और अब तो कोई भी स्टेज शे मेरा बिना जैसे संभव ही नहीं हो पाता था. श्रेाताओं की ओर से मेरी कोयल सी मधुर आवाज को सुनने डिमांड आती और मेरे पास वक्त ना होने पर आयोजकों को मजबूरन अपने आयोजन की तारीखें आगे बढ़ानी पड़ती, मां सरस्वती मेरे कंठ पर जैसे विराजमान हो गयी और मैं थोड़े ही दिनों में किसी स्टेज शो की सफलता की गारंटी बन गयी ।

अब तो माह में मेरे कम से कम पांच से दस शो होते.

एक बार गाण्ेाश उत्सव  के समय स्टेज शो के आयोजन के दौरान राहुल को एक श्रोता के रूप में सामने की पंक्ति पर देखकर स्तब्ध रह गयी,. मैं अपना आत्मविष्वास खो बैठी, मेरी वाणी लड़खड़ा गयी, बीते लम्हे फिर से एक चलचित्र की भांति घूमने लगी और मेरा रोम.रोम कंाप उठा। मैं बेहद कमजोर पड़ गयी, अपना परफार्मेंस ना दे सकी और तबियत खराब होने का बहाना कर, पीछे के शामियाने को खींचते हुये अंदर चली आयी। मैं तुरंत घर को निकलने लगी कि इसी बीच राहुल मेरा रास्ता रोक सामने आकर खड़ा हो गया और बेझिझक कह बैठा.

अर्चना दो मिनट प्लीज! मैं आज भी आपसे बहुत प्यार करता हूं । 

मैं गुस्से से तमतमा गयी पर किसी तरह स्वयं को नियंत्रित करते हुये कहा-

देखो राहुल! एक विवाहित स्त्री से बोलने की अपनी मर्यादा होती है और तुम इसका अतिक्रमण कर रहे हो।मेरे मुंह से कहीं केाई अपषब्द ना निकल जायेए इससे अच्छा है, मेरा रास्ता छोड़ दो ।

वह सहम गया और कहने लगा. अर्चना! मैं तुम्हे खोकर बहुत दुखी हूं । मैने माता.पिता की इच्छा को स्वीकार कर जिस लड़की से विवाह किया था, वह ....

मैं उसके विवाह के उपरांत घट रहे दुखी जीवन के बारे में जानती थी, सो मैने कहा.बस! मैं कुछ नहीं सुनना चाहती। दूसरों को विरह की आग में झोंककर सुख के भ्रम में खुषियंा तलाशने वालों का हश्र यही होता है, अरे! जब मरी खाल की हाय से लोहा भस्म हो जाता है, तो क्या एक विरहन की जीवित खाल की हाय किसी का सुख चैन भी ना छीन सकेगी? जो लोग किसी औरत को एक विरहा का शाप देकर मृगतृष्णा में भटकते हुये अन्यत्र विवाह करते हैं, वे तुम्हारी तरह अधूरे रह जाते हैं, और यह तो सामान्य सी बात है कि दूसरों को अधूरी जिंदगी परोसने वाले कभी पूर्ण कैसे हो सकते हैं राहुल?. उस क्षण मैं क्रोध से उबल रही थी और साथ ही आंखों से आंसू भी बह रहे थे। राहुल सच कहूं तो अब मुझे तुम्हारे या किसी के प्यार की जरूरत ही नहीं है, अब  मुझे अपनी शोहरत से मुहब्बत हो गयी है और तुम जैसे हजारों श्रोता मेरे गीत के साथ थिरकते हैं ।

अर्चना! उसे मेरी भूल समझ लो, मैं उसका परिमार्जन करने को तैयार हूं । राहुल ने गिड़गिड़ाते हुये कहा।

वाह ! क्या नुस्खा है, एक स्त्री को जी भरकर भोगा, मन भर गया तो दूसरी स्त्री, फिर तीसरी, यही ना। मैंने उपहास करते हुये कहा ।

अर्चना तुम मुझे गलत समझ रही हो! राहुल वहीं सामने हाथ बांधे खड़ा था।

राहुल सच तो यह है कि तुमने मुझसे बेहतर पाने की चेष्टा में मृगतृष्णा में विवाह रचाया और वह ना मिल सका तो फिर दौड़े चले आये। क्या अब तुम्हारे माता.पिता के साथ विष्वासघात नहीं होगा? जाओ! वास्तविकता को स्वीकार करो।  यदि तुम मुझसे सचमुच प्यार करते हो तो अपनी जिम्मेदारी सम्हालो, उस स्त्री को प्यार दो, जिसने तुम्हारे विश्वास के दम पर सारी दुनिया छोड़ तुम्हारे घर में शरण ली। प्रिय का वियोग बहुत कष्टदायी होता है और मैं नहीं चाहती कि मैने जो भोगा वह तुम्हारी पत्नी को भोगना पड़े ।

सुना है! तुम्हारी एक बेटी भी है, जाओ उसे एक पिता का प्यार दो और हां याद रखना ऐसे अवसर कभी उपस्थित हो जायें तो उससे कभी उसका राहुल मत छीनना। हांए मुझ पर तुम्हारे कर्ज हैं, अवसर आने पर चुका दूंगी । ऐसा कहते हुये मैं शीघ्रता से टेक्सी पकड़कर घर आ गयी । 
                                                       -6-

अब तो मेरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ मेरे गायन और रियाज पर होता, मैं सारी दुनिया भूल चुकी थी। मेरी मेहनत रंग लाने लगी और अब मेरे कदम सफलता की ओर लगातार बढ़ने लगे धीरे-धीरे मै बालीवुड की ओर प्रवेश करने लगी, अच्छे बजट की कई फिल्मों में गायन के मुझे आॅफर मिलने लगे, गीतकार के रूप में तो मेरी एक अलग पहचान पहले ही बन चुकी थी, मेरी यह दोहरी प्रतिभा समूचे फिल्म इण्डस्ट्ी में अपने तरह की एकमात्र थी, अतः लगभग हर फिल्मों में मेरे दखल होने लगे।

ईष्वर ने मुझे शोहरत की बुलंदियों को छूने का अवसर प्रदान किया।सफलता की खुशिरयों को मैं अपने आंचल में समेट नहीं पा रही थी, लेकिन कहीं ना कहीं एक अधूरापन सा था, हर प्रसिद्धि की गहराईयों में जिस तरह एक टीस छिपी होती है उसी तरह सब कुछ था, लेकिन पारिवारिक जीवन का अधूरापन कहीं ना कहीं सालता था।

लेकिन मैं इससे दुखी नहीं थी, मेरे सामने आइंस्टीन और माइकल जेक्सन से लेकर लगभग सभी प्रसिद्ध व्यक्तियों की जीवनी थी और मैं जानती थी कि या तो पारिवारिक जीवन की असफलता प्रसिद्धि का मार्ग प्रशस्तकरती है या फिर बहुत बड़ी प्रसिद्धि ही पारिवारिक कलह को जन्म देती है।

मैं शिशिर को उसके सोंच के साथ बहुत पहले ही पीछे छोड़ चुकी थी । उसकी बेरूखी से तंग आकर पहले तो एक ही छत के नीचे कुछ दिनों तक अजनबी की तरह हम दोनो साथ रहे, पर यह भी बहुत दिनों तक चल ना सका । दुनिया की नजर में पति-पत्नी का अभिनय करते हुये हम थक चुके थे, वहीं शिशिर के अन्यत्र संबंध के बारे में भी मुझे पता था, पर इन सब फालतू चीजें सोंचने के लिये मेरे पास वक्त नहीं थे ।

मैं जानती थी कि व्यस्तता सभी कश्टों और दुखों का माकूल इलाज होता है, सुबह से षाम तक काम कर मैं स्वयं को थका देती और रात्रि में आराम से सो जाती। मैं स्वयं को व्यस्त रख एकाकी जीवन लगी, मेरा बेटा मेरे जीने का आधार था अतः खाली वक्त पर मैं उसी के साथ होती।

एक दिन फुर्सत के क्षणों में मां ने मुझसे कहा-

 बेटा अर्चना, मैं जानती हूं तुम्हारे जीवन में कई हादसे हुये हैं, तमाम तरह की विसंगत परिस्थितियों ने तुम्हे बहुत दुख पहुंचाये हैं, क्यों ना एक बार फिर से विवाह के लिये मन बनाओ । वैसे भी, मैं तुम्हारा कब तक साथ दे पाती हूं क्या पता?मेरे जाने के बाद कहीं तुम अकेले ना पड़ जाओ ।

मं कुछ ही दिनों में बेटा बड़ा हो जायेगा, तब मैं उसकी षादी करना चाहूंगी, अब मेरा विवाह में बिल्कुल मन नही लगता और फिर अपने बेटे को सौतेले पिता की कषमकष अथवा अस्वीकारोक्ति जैसे किसी टीस से नहीं गुजरने देना चाहती । लड़कों के कोमल मन में इस तरह के आघात से अपराध के बीज अंकुरित होते हैं -मैंने उबासी भरते हुये कहा।

उस दिन के बाद मंा ने फिर कभी मेरे समक्ष विवाह का प्रसंग नहीं छेड़ा ।

अब तो धीरे-धीरे मैं अपने बेटे के बड़े होने की प्रतीक्षा करने लगी, जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उससे मेरी खूब छनती हर कदम पर वह मेरे साथ होता और इस तरह राहुल और शिशिर की कमियां, मेरे शोहरत और बेटे के प्यार के बीच कहीं किसी कोने में  दबकर रह गयी । जिन पैसों के लिये मुझे कठिन मेहनत करना पड़ता वे जैसे स्टेज पर बरसते फूल की पंखुडि़यों के साथ झरा करतीं, मैं अपार धन-दौलत और शोहरत की मलिका बन गयी। 
आखिर में वह दिन भी आया जब बेटे के लिये विवाह के प्रस्ताव आने लगे, नामी गिरामी घरानों से लड़कियों की तस्वीरों के साथ मुझे अपनी पुत्रवधू के लिये कई प्रस्ताव मिले, सभी प्रस्ताव इतने शानदार थे कि मुझे अत्यंत श्रेश्ठ का चयन करना कठिन हो गया।

मैने अपने बेटे से कहा- तुम्हे जो पसंद हो, छांट लो और मुझे अपनी पसंद से जल्द अवगत कराओ ।

बेटे ने सारी तस्वीरों को लिफाफे में पेक करते हुये कहा- मम्मी जी, मैं चाहता हूं कि मेरे लिये लड़की का चयन आप करें, मैं जीवन में आपको मिले कष्ट की भरपायी तो नहीं कर सकता पर आपको अपनी पसंद से बहू चुनने का अधिकार देकर मैं आपको थोड़ी खुशी देना चाहता हूं, प्लीज मम्मी...। 

नहीं वरूण, मैं फिर से एक कोई कहानी नहीं बनने देना चाहती, तुम्हारी जहां मर्जी है, वहां करो, पर मुझे अपने फैसले से अवगत जरूर कराना ताकि उस खुशी में मैं भी शामिल हो सकूं। वह क्षण हमारे परिवार के लिये सबसे बड़े उत्साह का दिन होगा जिस दिन हमारे घर पर शहनाईयां बजेंगी ।

मम्मी मैं फिर से कह रहा हूं, मै सिर्फ और सिर्फ आपकी मर्जी से विवाह करना चाहता हूं, क्या तुम मुझे यह अवसर नहीं दोगी ? और ऐसा कहते हुये वरूण लाड़ से मेरे कंधे को पकड़ लिया ।

वरूण तो क्या तुम मेरे कहने से कहीं भी विवाह कर लोगे, विवाह के पष्चात बखेड़ा तो खड़ा नहीं करोगे ।

नहीं मम्मी, वादा रहा, अब तो मान जाओ । और ऐसा कहते हुये हम दोनो मां बेटे खिलखिला पड़े ।

                                                             -7-

एक दिन रात के लगभग सात बजे थे, मैने वरूण से कार में बैठने को कहा और गाड़ी की दिषा एक गलियारे की ओर मोड़ दी। बहुत ही तंग गलियारा, छोटे-छोटे मकान, बड़ी मुष्किल से आगे-पीछे करते हुये हम एक स्कूल तक पहुंचे, मैं जहां जाना चाहती थी वह मकान बताये हुये लोकेषन के अनुसार उसके ठीक पीछे था, किंतु दिषा भ्रम की स्थिति हुयी और पता पूछते हुये हम अंततः घर तक पहुंच ही गये । 

जैसे ही हमने घर में प्रवेश किया,एक सभ्य और शालीन सी दिखने वाली लड़की ने दरवाजा खोला, हमसे बिना परिचय पूछे ही दोनो हाथ जोड़कर अभिवादन किया। उसके अभिवादन की शालीनता को देखकर मैं आष्चर्यचकित रह गयी, पूरे के पूरे दसों उंगलियां एक ऋजु कोण की मुद्रा में थी, एक नजर देखने मात्र से ही लग रहा था कि जैसे ईष्वर ने नख से षिख तक सभता और संस्कृति कूट कूट कर भरी हो।

हमें वह अंदर एक कमरे में ले गयी और थोड़ी देर में पानी से भरा गिलास हाथ में थमाते हुये कहा- चूंकि हम आपको पहली बार देख रहे हैं, इसलिये पहचानने में असुविधा हो रही है, यदि आप अपना परिचय देने का कष्ट करें तो ...

मैं उसके हरेक षब्दों से झरती शालीनता और वाकपटुता से हतप्रभ थी, बस उसे एकटक देख रही थी, मेरी खामोषी देख वरूण ने अपना परिचय देते हुये कहा-

जी मुझे वरूण कहते हैं और ये मेरी मम्मी अर्चना वर्मा हैं,

क्या आप टी.वी. नहीं देखतीं ? वरूण ने पूछा ...

जी, समय कम मिल पाता है, सो कभी कभार ही देखना होता है । वैसे पापा ने भी कभी जिक्र नहीं किया वरना मुझे अवष्य याद होता, वैसे भी मेरी याददाश्त बहुत तेज हैं।

इसी बीच राहुल ने अंदर से ही आवाज दिया - बेटा कौन हैं ?

राहुल सोया हुआ था,शायदउसकी तबियत नासाज थी, हल्की हरारत थी. वह कुछ बोल पाती उसके पहले ही राहुल कमरे में आ गया और हमें देखकर गद्गद हो गया, उसकी आंखें जैसे फटी रह गयीं, क्षण भर को तो उसे अपनी आंखों पर ही यकीन नहीं हुआ।

आप !

हां राहुल, मैं तुमसे एक जरूरी कार्य के सिलसिले में मिलना चाहती थी, बस इसीलिये चली आयी ।

हमारा छोटा सा घर कहीं आपकी प्रतिष्ठा को कम तो नहीं कर रहा?

उसके बोलने में यद्यपि छल नहीं था फिर भी मैने अपने होंठों पर अर्द्ध मुस्कान बिखेरते हुये कहा- तुम्हारी कटाक्ष करने की आदत नहीं गयी ।

राहुल ने अपनी पत्नी ओर बेटी से बड़े गर्व से हमारा परिचय कराया। वे सब एक मषहूर गायिका के रूप में मुझे अपने घर में पाकर फूले नहीं समा रहे थे ।

राहुल ने कौतुहल से मेरी ओर देखते हुये कहा- अर्चना, अचानक 20 साल बाद तुम्हे अपने घर पर देख पता नहीं क्यों मुझे यकीन ही नहीं हो रहा । तुम्हे मेरा पता कहां से मिला?

राहुल जुनून चाहिये सब मिल जाता है, मैं तुम्हारे पास एक काम लेकर आयी हूं ।

हां कहो ना - उसने अधीरता से कहा।

उस समय हम दोनो ही कमरें में थे, राहुल को उसकी पत्नी और बेटी घर दिखाने अंदर ले गये थे ।

मैंने राहुल से कहा- राहुल तुम्हारा मुझ पर एक ऋण है। आज मैं जो कुछ भी हूं, तुम्हारी  बदौलत हूं, तुम्हारे प्यार ने मेरे अंदर छिपी प्रतिभाओं को एक समय सहारा दिया  और सच कहूं तो तुम्हारे विछोह ने उस प्रतिभा को जाने- अन्जाने मंजिल प्रदान कर दी। तुम जब मुझे एक बार मिले थे तब मेरे रास्ते अधूरे थे और तुम्हारे ऐसे किसी प्रस्ताव को ठुकराना मेरी विवशता थी । तुम्हारे प्यार का दर्द और विछोह की टीस मुझे आज भी बहुत तकलीफ देती है । मैने तुम्हारे प्यार को एक कोने में सहेजकर रखा है, लेकिन किसी भी कीमत पर मैं सामाजिक मर्यादाओं का भी उल्लंघन नहीं करना चाहती थी। पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों की प्रतिष्ठा किसी कांच के घरौंदों की तरह होती है जिस पर एक छोटा सा दाग उसे बद्सूरत बना देता है। राहुल शोहरत की बुलंदियों को पाना जितना कठिन होता है उससे ज्यादा कठिन उसे बरकरार रखना होता है वरना हर कदम पर पतन के रास्ते पूरी तरह खुले होते हैं।
 
मैं लगातार बोल रही थी वह चुप बैठा था, मैने कहा-राहुल आज मैं अपनी बेटे वरूण  के लिये तुम्हारी बेटी का हाथ मांगने आयी हूं, मैं इससे तुम्हारा कर्ज भी चुका दूंगी और उन दोनों की खुषियों में हम अपने प्यार को एक नयी पीढ़ी के रूप में साकार होते भी देख लेंगे। चलो, उनके प्यार और समर्पण में हम दोनेां फिर एक नयी दुनिया की तलाश करें, क्या हुआ हम ना मिल सके, वरूण और साधना का मिलन हमारे प्यार को अमरत्व प्रदान करेगा, हम उन दोनों में राहुल और अर्चना की तलाश करेंगे। यदि तुम्हे एतराज ना हो तो साधना मुझे बेटी के रूप में चाहिये ।
 
राहुल की आंखों से आंसू झरने लगे, वह इतना ही कह सका - अर्चना, आज सचमुच आराध्य से आराधक बड़ा हो गया।
 
कुछ ही दिनों में घर में शहनाई बज उठी, समूचा विवाह मण्डप खुशियों से सराबोर था, मैं बेटी साधना के समीप खड़ी थी और राहुल बेटे वरूण के समीप, उनकी पत्नी हम दोनों के सामने खड़ी वर-वघू को आशीष दे रही थी, गोधुलि बेला में पाणिग्रहण की रस्म अदायगी हो रही थी, और उस पवित्र जल में मेरे और राहुल के वियोग की टीस से निकले  अंासू लगातार झरते हुये एक नये प्यार के अंकुर को जन्म दे रहे थे ।  
 

कोई टिप्पणी नहीं: