सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

आओ लौट चलें...

आओ लौट चलें...

सेठ खजानसिंह अब गांव के धन्ना सेठ बन गये थे, पूरे गांव में तूती बोलती थी। चालीस सालों में अपने दम पर पैसे इकट्ठे किये तो नाम, पद, प्रतिष्ठा सब कुछ देखते-देखते बदल गयी, वरना एक समय तो बाप के जमाने में बहनों के ब्याह करते हुये पूरा घर कंगाल हो गया था। पैसे पास आये तो बीते सालों में पूछ-परख इतनी बढ़ी कि गांव के प्रधान से लेकर हाकिम बनते तक देर ना लगी। कहते हैं धन धरावै तीन नाम-परसु, परसराम, पुरूषोत्तम। जैसे-जैसे संपत्ति पास आती गयी, गांव का खजरू अब सेठ खजानसिंह हो गया। पढ़े-लिखे तो थे, लेकिन दरिद्रता ने कदर ताउम्र आने भर की ना की। पर जैसे-जैसे पैसे पास आते गयी, कद काठी भी बढ़ती गयी।गांव में कोई भी सरकारी मुलाजिम मजाल है बिना इनके पूछे पग धर दे। पत्नी लक्ष्मी भी इस रसूख पर गर्व करते अघाती ना थी। पास सब कुछ था, धन, संपत्ति, ऐश्वर्य सब, पर यदि कुछ नहीं था तो वह था वंश को प्रवाहमान रखने और इस बुढ़ापे में लोटे भर पानी परोसने के लिये एक पुत्रवधू और यही चिंता उन्हे हाय के रूप में पिछले कई वर्षों से लगातार खाये जा रही थी। बेटा चैत में ही चालीस पार कर चुका था, पर बेटे की हाड़ में हल्दी रचा देखने की लक्ष्मी और सेठ खजानसिंह की ख्वाईश अब तक पूरी ना हो सकी थी।

सेठ खजानसिंह पिछले दशक भर से अपने लाडले इकलौते संतान के लिये एक वधू की तलाश कर रहे थे किंतु ना तो बेटे के ग्रह नक्षत्रों में शुक्र की दशा-महादशा का ऐसा कोई योग आया और ना ही बदलते हुये सामाजिक परिवेश में कभी कोई ऐसा संयोग ही बैठा कि कोई भी लड़की का पिता उसके वैभव और ऐश्वर्य के समक्ष सहज समर्पण कर इस ढलती उम्र में बहू के हाथों भोजन पाने की उसकी मुराद पूरी कर दे। ऐसा नहीं था कि सेठ खजानसिंह के बेटे में कोई खोट रहा हो, पढ़ा लिखा अच्छा खासा छः फीट का मजबूत गोरा नारा इकलौता बेटा था। शरीर से स्वस्थ और आदत व्यवहार में भी शालीन। पेशे से इंजीनियर था सो अलग परंतु इन सबके बावजूद बीते दस सालों में बेटे की तकदीर को कोई पड़ाव रास ना आया। ऐसा भी होता कि सेठ खजानसिंह में इकलौते बेटे का गुमान हो या धन-दौलत की कोई हेकड़ी रही हो जिसके कारण स्वयं के लड़के पक्ष होने की अहम् की तुष्टि के लिये, घुटने तले किसी कन्या के पिता के दीन-हीन करूण रूदन की बाट जोह रहे हों तो वह भी नहीं था, जहां जब, जिस किसी विवाह योग्य कन्या का शोर पता चलता किसी मध्यस्थ को साथ ले ठौर-ठिकाना पूछते, देहरी खटखटाने में जरा भी संकेाच ना करते। ना कभी अमीर गरीब का भेद और ना ही ऊंच-नीच का भ्रम। बस किसी तरह वंश को प्रवाह का आधार मिल जाये, यही कामना लिये पिछले कई वर्षों से शहरों और गलियों की खाक छाना करते परंतु बीते वर्षों में कोई भी प्रयास किसी सार्थक परिणाम पर ना पहंुच सका। इस प्रौढ़ावस्था में पुत्रवधू पाने की आष लिये दौड़भाग करते हुये कभी-कभी तो वे बेहद हताश हो जाते। लेकिन आखिर किया भी तो कुछ ना जा सकता था... ? अब लड़कियां कोई बाजारों में बिकने वाली गुड्डे, गुडि़यों की तरह तो रह नहीं गयी थी, कि गये और जेब से पैसे चुकता कर मनपसंद खरीद ले आयेे और ना ही इतनी सहज ही थी कि जब जी चाहे और जितना चाहे, तुलसी के पौधे की तरह किसी के घर- आंगन से उखाड़ अपने आंगन में खोंस दिये।

सब कुछ होते हुये भी दिन, व्यथा में जैसे-तैसे बीत रहे थे। चिंता में बाप खजानसिंह की कमर झुकती जा रही थी। मां के चेहरे पर झांइयों ने कुछ अरब सागर की लहरों की तरह आकार-प्रकार बना लिये थे। उम्र ढलान पर थी, स्वास्थ्य प्रतिकूल रहने लगा था, किंतु उम्मीद की जवानी ने अभी हार ना मानी थी। तभी तो सेठ खजानसिंह जब कभी कहीं कोई लड़की देखने जाते, पत्नी लक्ष्मी कौतुहलभरी निंगाहों से देहरी पर बैठ राह तकते हुये किसी उम्मीद में सांझ ढलने तक घंटों प्रतीक्षा किया करती। इस बीच कभी बिल्ली पलक झपककर मलाई मार गयी या फिर पड़ोस का झबरू कुत्ता किचन में घुसकर रोटी चुरा खा ले, उसे भनक तक ना लगती। वह तो बस ऐसे सपने बुनती हुई कल्पना में खोयी होती जैसे अब-तब बेटे के ब्याह होने ही वाले हैं और खुशी के आंसू जब सपनों में फेरे पड़ते देख अचानक झरझराकर गिरते तो लगता मानो पोते ने गोद में बैठ सू ... सू कर अंाचल गीली कर दी हो।

आज खजानसिंह दसीं बार लड़की देखने गये थे, सुबह से सुखद समाचार की आश लिये प्रतीक्षा में लक्ष्मी ने चूल्हे पर हांडी भी ना चढ़ायी थी। रह-रहकर घड़ी के कांटे की तरफ ध्यान जाता और ऐसा लगता जैसे बस में हो तो हाथ से घुमाकर कांटे, छः पर लाकर रख दे। अंधियारा हो चुका था। आकाश पर छिटकी हुई चांदनी ऐसे प्रतीत हो रही थी, जैसे चंद्रमा के उदय होने की प्रतीक्षा में किसी नवयौवना ने थाल में फूलों को पंक्तिबद्ध सा सजा रखेे हों। लक्ष्मी, आंगन में लगे तुलसी के पौधे में दिये जला प्रतीक्षा में आंचल फैला देहरी पर बैठ गयी, थोड़ी उंघ आ गयी, लेकिन खजानसिंह के खखारने की आवाज ने जब तंद्रा भंग की तो उत्सुकता के मारे झटपटाकर उठ बैठी। कौतुहल से पास तक पहुंच गयी, लेकिन पति के चेहरे पर छलकते मायूशी को देख विचलित सी हो गयी, मन एक बार फिर उद्विग्न हो गया, पारा सिर के उपर तक चढ़ गया, खिसिया सी गयी। तन-मन में आग सी भुरभुरी होने लगी। मन ही मन भुनभुनाते हुये कहने लगी- अरे! दस साल में एक बहू ढूढ़ पाने की कूबत ना बची तो काहे का मूछों पर ताव देतेे झूठी मर्दानगी बघारते फिरते हैं, वृंदावन चले जाते भजन-पूजन करते। पर मंुह फुटकार डर के मारे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। क्या पता कब पीछे गोटानी से कोचक्की मार दे, हाथ पैर ढीले जरूर हो गये पर वो मर्दों वाली ऐंठ अभी गयी कहां।वह देर तक बुदबुदाते रही.... हूं...बड़े भट्ट विद्वान बनते हैं, बेटे की दाढ़ी मूछों पर सफेदी छिटक आयी पर इन्हे आज तक सुध नहीं। दिन भर अखबार और दुनियाभर को सलाह बांटने से फुर्सत मिले तब तो ना...।

लक्ष्मी को इस तरह भुनभुनाते देख सेठ खजानसिंह की त्यौरियां चढ गयी, लाठी को दालान पर पटक गुस्से से बिफर पड़े, कहने लगे-क्या बुड़बुड़ा रही हो? जब देखो तब तुम्हारा यही किस्सा, सुकुन से बैठ तो लेने दिया करो। आकर दम भी नहंी भरे कि हो गये शुरू...।

मैं क्यों बुड़बुड़ाने लगी ? मैं तो देखते ही समझ गयी थी कि ये भी राजी नहीं हुये होंगे। सब जानती हूं ... बस बेटे को साठ साल का कर दो, तुम्हारे भी कलेजे को ठण्डक मिल जायेगी।

हां मैं तो तुम्हारे बेटे का दुश्मन जो हूं ना...!

और नहीं तो क्या ? देखते नहीं जवानी बिदकने लगी है... गाल चिपटने लगे हैं।नाक पर झांइयां आ गयी, पर तुम्हे वह सब कहां दिखेगा। किसी और के छोरे की तरह होता तो अब तक मुंह पर कह दिया होता, पर मेरा बेटा है आज तक जुबान भी ना खोली।

तो क्या करूं ? कहां जाउं ? किसी की बेटी चील कौओं की तरह झपटकर ले आउं ?

हां हां ... एक तुम्हे ही ना मिल रही वरना सबकी हो गयी। पुष्पा के बेटे का ब्याह हुआ ? लक्षम्मा के दोनों बेटों की शादी हुई ? ओ बजरू अनपढ़ गंवार की काया पीली हुई कि नहीं?

अब मेरा मुंह मत खुलवाओ ! कैसे हुई ये तुम्हे भी पता है। खजानसिंह ने अंगोछे से मुंह पोंछते हुये कहा।

हां हां... दुनिया में आग नहीं लग गयी है। तुम्हारे ही मन में भरम है। खुद भी कुंठा पालकर रखते हो, मुझे भी जीने नहीं देते, बार-बार कोसते रहते हो। अरे बेटी ना लिये तो क्या बेटे के लिये बहू ना मिलेगी, इतने अकाल नहीं पड़ गये छोरियों के।

ठीक है ना अगली बार तुम भी साथ चलना, तुम्हे भी पता लग जायेगा।

हां. हां । मुझे ले चलना। देखना चट मंगनी पट ब्याह ना की तो ... मेरा नाम भी लक्ष्मी नहीं ।

अब तक खजानसिंह सोफे पर पैर पसार आराम की मुद्रा में बैठ चुके थे। लक्ष्मी भी जले हुये कंडे के गरम राख की तरह जल-भुनकर थोड़ी ठंडी हो चुकी थी। सेठ खजानसिंह पास रखे गरम चाय के प्याले को होंठ पर ले जाते हुये अतीत में खो गये। उसे बीते जमाने के वे दिन याद आने लगे जब लड़कियां गली-कूचों में मारी-मारी फिरती थीं। दुल्हे की तलाश में लड़की के पिता के चप्पल घिस जाया करते। ब्याह होने के बाद भी लुगाई की खूबसूरती से मन ना भरा या कानी-कुबड़ी, लंगड़ी हो गयी तो दूसरी को सौतन बनने मंे भी परहेज नहीं। और कभी किसी पुरूष को विधुर बनने का सौभाग्य मिला तो फिर तो क्या कहने होते। एक मर गयी तो दूसरी, दूसरी मरी तो तीसरी, चैथी और पांचवी तक। गबरू महराज ने सात ब्याह रचाये थे, और वो दर्जी ढक्कन मियां! बाप रे बाप ग्यारह! सबके अपने-अपने नखरे, अपने-अपने स्वाद। वाकई तब मर्दों के क्या जलवे होते थे! लेकिन देखते-देखते इन चालीस सालों में समय कितना बदल गया, लड़कियां तो समाज से उसी तरह विलुप्त होने लगीं जैसे घरों से गौरैया के घोसले। खजानसिंह यही सब सोंचते-बिचारते सोफे पर बैठे हुये थे।

लक्ष्मी भी चूल्हे पर तवा रख रोटी सेंकते-सेंकते कहीं विचारों में खो गयी, मन खिन्न सा हो गया। बेटे की ढलती उम्र की चिंता बार-बार हुदालें मारने लगी। मन में बुरे खयाल आने लगे, एक प्रकार से डर सा लगने लगा कि कहीं बेटा सचमुच कुंवारा बूढ़ा ना हो जाये। उसे अपने ब्याह के दिन याद आने लगेे, स्मरण आ रहा था जब उसके खुद के ब्याह हुये तो वह पंद्रह की भी नहीं थी, मुन्ना के बापू तो बमुश्किल सत्रह के रहे होंगे पर आज तो बेटे की पैंतीस पार होने के बाद भी ना कुछ ठौर ना ठिकाना। भगवान जाने कब होगा, होगा भी कि नहीं ? अतीत के कड़वे पृष्ठ चलचित्र की भांति आंखों के सामने घूमने लगे। अस्थिर और उद्विग्न मन जैसे उन क्षणों में बार-बार सोंचने लगा कि कहीं वाकई बेटी ना लेकर उसने कोई अनर्थ तो ना कर डाला। लेकिन अगले ही क्षण मन अनेकानेक तर्क उपस्थित कर भीतर पश्चाताप के उठते आवेग को रोकने का प्रयत्न करने लगी। मन ही मन कहने लगी- नहीं! उसने कुछ भी गलत नहीं किया है। आखिर कौन लेता, इस जमाने में बेटी की सुरक्षा की गारंटी! देख तो रहे ना जमाना कितना खराब आ गया। समाज के दरिंदे और गिद्ध जीना दूभर कर द रहे। उपर से विवाह लायक होते ही पाई-पाई जोड़ जिंदगी भर की बाप की कमाई पल भर में फुर्र। तब भी चलो उम्र भर सुरक्षा की गारंटी तो मिले। पर वो भी नहीं... क्या पता? ब्याही बेटी का दुख कब मां-बाप के बुढ़ापे में घुन की तरह घुसकर अंदर खोखला कर दे। वरना भला किस मां को इच्छा नहीं होती कि उसकी भी एक प्यारी सी बिटिया हो।

लक्ष्मी यही सब उधेड़बुन में लगी थी कि अचानक टेलीफोन की घण्टी घनघना उठी। खजानसिंह ने फोन उठाकर बात की तो जैसे माथे की शिकन कुछ देर के लिये कम हो गयी।

क्या हुआ ? किनका फोन था ? लक्ष्मी ने कौतुहल से पूछते हुये कहा।

दीनानाथ जी का। बता रहे थे... बनवारीलालजी के घर एक लड़की है... इलाहाबाद में..., एक ही बेटी है उनकी... कह रहे थे अच्छा घर-घराना है... पंद्रह दिन बाद अगहन के शुक्ल पक्ष की पंचमी की तिथि को चलने का आग्रह कर रहे थे।

अरे वाह! मुझे लगता है, इस बार जरूर तय हो जायेगा। वैसे मुन्ना की कुंडली में भी लिख रखा है पश्चिम दिशा में विवाह का योग... पता है ना ?

भगवान जाने! अच्छा है, जल्दी निपट जाये, मैं भी गंगा नहाउं...। खजानसिंह ने लंबी सांस लेते हुये कहा।

प्ंाद्रह दिन बाद सेठ खजानसिंह, दीनानाथ जी को साथ ले इलाहाबाद के लिये निकल पड़े। इस बार उन्होने लक्ष्मी को भी साथ ले लिया था। लड़की के पिता बनवारीलाल जी की इलाहाबाद में आजाद पार्क के पीछे संकरी गलियों में एक मिठाई की दुकान थी। उनके एक बेटा और इकलौती लाडली बेटी थी। बेटी बड़ी सौम्य, शालीन व रमणी थी। लड़की के रंग-रूप और हाव-भाव को देख लक्ष्मी तो तत्क्षण जैसे गद्गद हो गयी। विवाह का प्रस्ताव रखने में तनिक भी देर ना करते हुये कहने लगी- भाई साहब! बेटे के बारे में पंडितजी ने तो पहले ही बता दिया होगा, फिर भी यदि लड़के कोे देखने की इच्छा हो तो कानपुर चले जाईये, वहां देवल इण्डस्ट्ीज में बेटा असिस्टेंट मैनेजर है।

ना बहनजी ! हमने लड़का पहले ही देख लिया है, लड़का हमें बहुत पसंद है। बनवारीलाल ने तनिक औपचारिक होते हुये हल्की मुस्कान बिखेर कहा।

तो फिर देर किस बात की। चलिये जल्दी से सगाई की रस्म पूरी कीजीये। पंडितजी! विवाह का कोई अच्छा सा मुहुर्त देखिये तो, ये लीजीये पंचांग। लक्ष्मी ने सोफे पर गुण मिलान के लिये रखी पंचांग, पंडित दीनदयाल के हाथों में थमाते हुये कहा।

लेकिन बनवारीलाल प्रतिक्रियाहीन खामोश बैठे हुये थेे। उन्हे इस तरह देर तक खामोश बैठा देख लक्ष्मी से रहा ना गया। क्या हुआ भाई साहब! चलिये ना पूजन सामग्री की व्यवस्था कीजीये।

बहन जी वो तो ठीक है पर...! खजानसिंह ने सकुचाते हुये कहा। .


अरे भाई साहब...आप तो बहुत संकोची हैं। यदि दहेज-वहेज की चिंता कर रहे हों, तो हम पहले ही बता देते हैं, हमें कुछ नहीं चाहिये। भगवान का दिया सब कुछ है, हमारे पास।

पर बहनजी !

ओहो ...! चलिये छोडि़ये, जो बात होगी बाद में कर लेंगे। अभी जल्दी से सगाई की रस्म पूरी कीजीये, हमें शाम होने के पहले घर भी निकलना है।

पर बहनजी ...! आप तो जानती हैं, हमारा एक बेटा भी है। अभी छोटा जरूर है पर वक्त ही कितना लगता है... बड़ा होने में। देखते-देखते बच्चे शादी के लायक हो जाते हैं। अब देखिये ना गुडि़या को! कल की बित्ते भर की छोकरी, कितनी बड़ी हो गयी..., लगता है जैसे सब अभी-अभी की बात हो। बेटा जब बड़ा हो जायेगा, तो उसके लिये कहां ढूंढ़ेगें लड़की, आप ही बताईये ना! हमें एक बेटी दे दीजीय,े हम अपनी गुडि़या आपको कन्यादान कर देंगे।

बनवारीलाल की बात सुन लक्ष्मी आग बबूला हो गयी। सब किये घरे पर पानी फिरते देख मन अकुला गया। फिर भी अपने क्रोध और उद्विग्नता पर नियंत्रण रखते हुये व्यंग्यात्मक लहजे में मुस्कुराते हुये कहने लगी- भाई साहब अब बेटियां किराये पर तो मिलती नहीं हैं, फिर आप तो जानते हैं, हमारा एक ही बेटा है, हमे कोई बेटी नहीं है।

बहनजी तो आप ही बताईये ना ...! बनवारीलाल ने असमंजस भरे लहजे में कहा।

बहनजी रिश्ते नातों में किसी की तो बेटी होगी ? हम उससे ही अदला-बदली कर लेंगे। पास बैठी बनवारीलाल की पत्नी कहने लगी।

ना बहनजी! यदि यही सब पास होता, तो हम आपके घर रिश्ता मांगने भला क्यों कर आते ? अब ये सब तो टरकाने वाली बात हुई। लक्ष्मी ने तनिक क्रोध प्रदर्शित करते हुये कहा।

ना ... ना ... बहन जी हम टरका नहीं रहे ... अब बेटियों को घर में कोई आचार डालकर थोड़े ही रखता है। वो तो परायी ही होती है, इसका ब्याह कर देंगे तो... अब आप तो सब देख रहे हैं ना... कुछ कहने-सुनने को बचा ही कहां है। क्या करें बहनजी! जमाने के बदलते रिवाज के हिसाब से खुद को बदलना पड़ता है। देख तो रहे हैं ना! बेटिया कितनी अनमोल हो गयीं। बनवारीलाल ने शालीनता प्रदर्शित करते हुये कहा।

लक्ष्मी खामोश चिंतित मुद्रा में बैठी थी। इसी बीच बनवारीलाल की पत्नी भावावेश में पति की बातों पर मक्खन लगाते हुये कहने लगी-बहनजी आज तो औरत ’बेटी बिन बांझ’ की तरह हो गयी है, बांझ औरत तो जवानी में फिर भी केवल एक बार संताप से मरती होगी किंतु जिस औरत को बेटी ना हो वह पश्चाताप के आंसू लिये बेटी की चाहत में उम्र भर में सैकड़ों बार ग्लानि से मरती है। उसे बोलते समय यह ध्यान ही ना रहा कि लक्ष्मी को भी बेटी नहीं है।

बनवारीलाल की पत्नी के मुंह से इतना सुनना था कि लक्ष्मी बिफर पड़ी। वह गुस्से में नियंत्रण खो बैठी। दांत अपने आप, होंठ से गुत्थमगुत्था करते हुये कटराने लगे। वह आक्रोश से, जाकर गाड़ी में चुपचाप बैठ गयी और दूर से पंडित दीनानाथ और खजानसिंह को विदा लेते हुये देखने लगी।

औरत को सच के आईने से नफरत होती है। वह उसी दर्पण में अपना चेहरा देखना पसंद करती है जिसमें उसकी बदसूरती के सच प्रतिबिंबित ना होते हों, तभी तो बदसूरत औरत भी कभी आईने के सामने खड़ी स्वयं को सौंदर्यविहीन नहीं समझती।वह कहीं ना कहीं उस सत्य में भी झूठ के संतोष तलाश ही लेती है कि लोग उसे संुदरता के इस कोण से क्यूं नहीं देखा करते। वास्तव में औरत झूठ रूपी कीचड़ पर खिली कमल की तरह होती है, उसे सच से उतना ही बैर होता है, जितना कमल को स्वच्छ जल से। लक्ष्मी उस समय उस सच को बिल्कुल नहीं पचा पा रही थी, जो सच बनवारीलाल की पत्नी के मुंह से अनायास ही निकल पड़े थे। बेटी बिन बांझ शब्द ने उसके तन-बदन में भुरभुरी पैदा कर दी थी।

गाड़ी में बैठ लक्ष्मी, अपने पति को कोसते हुये कहने लगी- बड़े निल्र्लज हैं ये लोग! क्या बेटियों के इतने लाले पड़ गये ? देखा नहीं! कैसे कह रही थी ... डायन। बोलने तक की तमीज नहंी है...। बड़ी आयी, बांझ कहती है... डायन कहीं की ...,

अरे! कह दिया तो इसमें इतना चिढ़ने की क्या बात है। खजानसिंह ने तनिक सहलाते हुये कहा।

कैसे कह देगी ? तुम भी गजब करते हो, जब देखो तब बैर चुकाते रहते हो। लक्ष्मी ने भौं सिकोड़ते हुये कहा।

अरे तो क्या गलत कहा उसने, आखिर बांझ की तरह तो हैं हम दोनों। इस पीढ़ी के बाद कौन है खाने वाला? अरे! लक्ष्मी तुमने घर के बाहर कदम रखा नहीं , इसलिये पता नहीं है। अब शहर में उतनी भी बेटियां ना होगी जितने बरगद और पीपल के कुल जमा पेड़ होंगे। खजानसिंह जैसे लक्ष्मी का गुस्सा ठंडा करने का उपदेश देते हुये प्रयत्न करने लगे। देखो ना! पहले पेड़ कटे, खेत -खलिहान पक्षियों से रिक्त हुआ, पशु जा रहे, पुत्रियां कगार पर है, फिर कौन बच जायेगा, केवल पुरूष ? फिर क्या होगा ? कभी सोंचा है लक्ष्मी!

बस...बस....! मुझे ये सब ढकोसले भरे उपदेष मत दोे। मैं कुछ नहीं जानती... मुझे मेरे बेटे के लिये बहू दे दो, चाहे पूरी जायदाद दांव पर क्यूं ना लग जाये।

कहां मिलेगी बेटी? सारे अनाथालय लड़कांे से भरे पड़े हैं। तुम्हे याद है, हमारा एक नौकर जग्गू था, उसकी एक नन्ही सी बेटी थी रोमा। जात-पात का बंधन छोड़ उसे ही ब्याह कर लेते तो अब..वो भी ... खजानसिंह ने सिर खुजलाते हुये कहा।

क्या ब्याह हो गये उसके ? लक्ष्मी अतीत की धंुधली तस्वीरों के बीच उसके बचपन को याद करने लगी।

हां साल भर पहले हो गया ।

कितनी प्यारी सी थी ना वो! उसके मुंह से अचानक निकल पड़ा।

उसे वे क्षण याद आने लगे, जब वह चने और पुलाव एक पत्तल में देकर उसके खाने के तहजीब को बड़े गौर से देखा करती। एक-एक दाने को सलीके से चबा-चबाकर नन्हे अदाओं के साथ खाती। दिखने में भी बहुत सुंदर, एकदम गोरी-चिट्टी थी, पर जात की नीच थी यही कमीं कर दी थी भगवान ने। एक दिन वह खेलते हुये किचन में घुस क्या गयी, लक्ष्मी ने उसकी हजामत बना दी। इतनी धुनाई की कि हाथ की कलाई टूट गयी थी। फिर तो उसने उस नौकर जग्गू को भगाकर ही दम ली। खजानसिंह को साफ कह दिया कि ऐसे नीच लोग को ज्यादा मुंह देने का नतीजा सिवाय परेशानी के कुछ नहीं होता। जग्गू मुंह लटकाकर बड़ी बेईज्जती से घर से निकला था। इस घटना को जैसे पच्चीस साल बीत गये थे, पर रोमा की याद आते ही मन आज फिर ग्लानि से भर आया।

चलो... अब सब ईश्वर पर छोड़ दो। तकदीर में होगा, तो सब ठीक हो जायेगा। खजानसिंह ने प्यार से सहलाते हुये कहा।

लक्ष्मी अपमान की आग में जलने लगी। उसे उस क्षण यह कतई गंवारा नहीं था कि उसके उर्वर गर्भस्थल पर कोई इस तरह का कटाक्ष करे। बांझ शब्द किसी औरत के लिये गाली से कम नहीं हुआ करती। वह इस गाली और अपमान से मुक्त होने छटपटाने लगी। मन में कई तरह के विचार हिलोरें मारने लगी और अंत में उस क्षण जैसे वह ठान बैठी कि उसे इस दाग से मुक्त होने हर हाल में एक बेटी चाहिये। खजानसिंह का हाथ जोर से पकड़ कहने लगी- मैं ’बेटी बिन बांझ’ के इस दोख से मुक्त होना चाहती हूं। मुझे बेटी दोगे? बोलो!

इस उम्र में ? तुमहारा दिमाग तो नहीं सठिया गया है ? खजानसिंह ने तनिक गुस्से से कहा।

कौन सी बूढ़ी हो गयी हूं? पचास -बावन की तो हूं । मैं कुछ नहीं जानती , मुझे एक बेटी चाहिये।

अरे! कैसी बात करती हो ? क्या तुम्हे याद नहीं कि तुमने तीस साल पहले अपना बंध्या करा लिया था ? नाक फुलाते हुये आश्चर्यमिश्रित क्रोध से खजानसिंह ने कहा।

वो सब खुल जाता है.... अन्नू दीदी का खुला था कि नहीं ?

हूं... तुम जानो । खजानसिंह झुुंझलाते हुये कहने लगे ।

उस क्षण वह क्रोध के आवेग में उबल रही थी, उसे जैसे जुनून सवार था। उसके धुन को देख, उस क्षण यह कह पाना नितांत कठिन था कि वह अपने तीस साल पहले के बेटी के गर्भपात से बार-बार उभरते टीस को धोना चाहती है या फिर बनवारीलाल की लुगाई के मुंह पर उस अपमान के घुंट के एवज में उसे एक तमाचा मारना चाहती है। उसने अस्पताल जाकर टांके खुलवा लिये। उसके जुनून को देख अस्पताल की मेहतरानी से लेकर डाॅक्टरनी तक सभी हैरान थे। चिकित्सकों ने भी लाख मना किया कि इस उम्र में बच्चे पैदा करना किसी रिस्क से कम नहीं। लेकिन उसे तो उस क्षण उस अपमान से मुक्त होने, भूत सवार था। आज उसे वही बेटी चाहिये थी, जिसे जवानी में उसने पांच बार खोया था।

कहते हैं, जहां चाह वहां राह। ठीक चार महीने बाद लक्ष्मी पर सचमुच ईष्वर की कृपा हो आयी। उसे गर्भ ठहर आया। उसके खुशी का ठिकाना ना था, वह मारे प्रसन्नता के पागल हुये जा रही थी। ठीक कुछ महीने बाद उसे उस टीस से मुक्ति मिलने वाली थी, जो उसे इस ढलती उम्र में वेदना पहुंचा भीतर तक खोखला कर रही थी। बेटी पैदा होने के संभावना भरे सुख और पुत्रवधू पाने की आश ने उसने अंदर एक नयी उर्जा भर दी। वह तो ईश्वर पर भरोसा रख बस उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगी जब एक अर्से बाद उसकी गोद में बिटिया खेलेगी।लेकिन विधाता को कुछ और ही मंजूर था। लक्ष्मी को यह पता ना था कि ईश्वर बार-बार ठुकरायी हुई चीज उन क्षणों में तो उसे कदाचित ही दिया करता है, जब उसे उस चीज की सर्वाधिक आवश्यकता हुआ करती है। नौ महीने बाद एक बड़े एवं कष्टकारक आॅपरेशन के बाद लक्ष्मी को जो संतान नसीब हुआ, वह बेटा निकला।

लक्ष्मी तो उन क्षणों में बेसुध थी, लेकिन खजानसिंह शिशु को बेटे के रूप में पा चिंता से व्याकुल हो उठे। उसे अब तो यह भय सताने लगा कि होश आने पर वह लख्मी को क्या जवाब देगा।

ठीक 10 घण्टे बाद होश आया तो वह पूछ ही बैठी- कहां है, मेरी बेटी ?

खजानसिंह भला क्या उत्तर देते, हाल-चाल पूछने का अभिनय करते हुये टाल-मटोल करने लगे। लेकिन बार-बार लक्ष्मी के पूछने पर खजानसिंह ने झूठ बोलते हुये कहा- थोड़ा बुखार है, वेंटीलेटर में रखा गया है। खजानसिंह ने उस क्षण शिशु को हटाकर दूर कमरे में रख दिया था।

ओह! ज्यादा खराब तो नहीं है ?

नहीं। बिल्कुल नहीं। तुम चिंता ना करो, चलो सो जाओ । खजानसिंह ने चादर ढकते हुये कहा।

कैसी है?

बहुत सुंदर । बिल्कुल तुम्हारी तरह। लक्ष्मी का सिर थपथपाते हुये खजानंिसंह ने कहा।

लक्ष्मी पलकें बंद कर अर्द्धनिद्रा में सो गयी, लेकिन पूरी तरह नींद ही नहीं आयी। बेटी की छटपटाहट मे रात भर करवटें बदलती हुई, सबके सोने की जैसे प्रतीक्षा करने लगी। अर्द्धरात्रि का समय था, चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। पूरे दिन भर शिशु को अलग रखने से लक्ष्मी को संदेह होने लगा था। वह अपने संतान को देखने के लिये अधीर हो उठी। थोड़ी ही देर में उसके कदम अनायास उस कक्ष की ओर लड़खड़ाते हुये बढ़ने लगे, जिस कक्ष में शिशु को रखे जाने का उसे संदेह था। एक-एक अंगुल की दूरी मीलों की तरह तय करती हुई लक्ष्मी, पेट के सिले हुये हिस्से, ग्लूकोज का बाॅटल और निकास थैली को हाथों से पकड़ आगे बढ़ने लगी। एक-एक कदम बमुश्किल उठा पा रही थी। उस अवस्था में छोटे से दालान की महज 16 फीट की दूरी उसे सोलह मील की तरह लगने लगी। अभी वह कुछ ही दूर बढ़ पायी थी कि अचानक सिर चकराने गला, धरती घूमने लगी और लड़खड़ाते हुये पैर का संतुलन बिगड़ गया। वह अचानक गिर पड़ी और गिरते ही पेट का सिला हुआ कच्चा टांका, मांस को खींचता हुआ उखड़ गया और पेट के अंदर की आंते मांस के लोथड़े के साथ बाहर को निकल आयीं।

क्षण भर के लिये तो उसे कुछ समझ ही नहीं आया। बेटी को देखने की तीव्र उत्कंठा ने उसके मुंह से उस समय आह तक ना निकलने दी। उन विकट परिस्थितियों में बड़े धैर्य से स्वयं को सम्हालते हुये आंतों को पेट के अंदर वह ऐसे घुसाने लगी, जैसे कुछ हुआ ही ना हो और थैले में जरूरी सामान घुसा रही हो। बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य था, दोनों हाथ और फर्श खून से सन गये, फिर भी घिसटते हुये वहां तक पहुंचने का प्रयत्न करने लगी। किंतु इस बीच आहट से आस-पास सोये हुये मरीज जग गये। चारों ओर अफरा-तफरी मच गयी, आपातकालीन सायरन बजने लगी। तुरंत उसे आपरेशन कक्ष की ओर ले जाया गया।

पूरे अस्पताल में अफरा-तफरी का माहौल था, हर कोई उस क्षण यह जानने उत्सुक था कि लक्ष्मी की हालत अब कैसी है। बेटी के प्रति उसकी तड़प देख अस्पताल के सभी मरीज उस पल अचरज में थे।

बेटी के प्रति लक्ष्मी की लालसा एक औरत से देखा ना गया... उसने अपनी बेटी चिंतित खजानसिंह की गोद में देते हुये कहा- सेठजी! मेरी पहली बेटी है। इसे मां को दे दीजीयेगा, शायद सुकुन के दो पल मिल जायें।

पर तुम कौन ? उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुये कहा।

उतने में ही थोड़े आढ़ से बिखरी हुई सफेद बालों को घूंघट में छिपाती खड़ी एक औरत ने धीमे आवाज में अनुनय करते हुये कहा - मां जी की तबियत बहुत खराब है, रख लीजीये बाबूजी , वे शायद ठीक हो जायें! संकोच मत कीजीये, बेटियों की जात नहीं होती।

उसका इतना कहना था कि खजानसिंह ने झट से पलटकर उस औरत की ओर देखा और क्षण भर में चेहरा ग्लानि से सुर्ख लाल हो गया। पच्चीस साल पहले की वह घटना आंखों के सामने नग्न होकर नाचने लगी। वह औरत और कोई नहीं , वही गज्जू की लुगाई थी, जिसे बड़ी बेरहमी से लक्ष्मी ने उसी रोमा के रसोई में घुसने के कारण घर से निकाल दिया था, जिसने मां के कहने पर आज अपनी पहली बेटी सेठजी के चरणों में अर्पित कर दी थी।

टूटे हुये हाथ के साथ अपनी बिटिया को सौंपती हुई खड़ी उस नव ब्याहता को देख, खजानसिंह को यह समझते देर ना लगी कि वह वही रोमा है, जिसे रोती-बिलखती हुई लक्ष्मी ने किचन से घसीटकर बाहर फेंक दिया था और उसी दरम्यां उसके हाथ टूट गये थे।

खजानसिंह बेटी को गोद में ले किंकर्तव्यविमूढ़ हो उसे क्षण भर तो अपलक देखते रहे। अब तक बेटा राहुल भी घर आ चुका था। लक्ष्मी कक्ष में विश्राम कर रही थी। खजानसिंह ने चिकित्सक की अनुमति से जब लक्ष्मी को इस बेटी को सौंपने की इच्छा व्यक्त की तो डाॅक्टरों ने भी कोई आपत्ति दर्ज ना की। उन्हे भी कहीं ना कहीं भरोसा था कि इससे उसकी जीने की इच्छा शक्ति में वृद्धि होगी।

दोनों जैसे ही कक्ष में घुसे, बेटी को देख लक्ष्मी की आंखों से तर-तर आंसू बहने लगे। वह खुशी के आंसू थे, आज उसे वही प्रसननता मिल रही थी जो किसी चक्षुहीन स्त्री को आंखों कीं रोशनी पाने पर होती है, वह सीने से लगा उसे देर तक चूमते रही।

लक्ष्मी ने दर्द से कराहते हुये कहा- इसे बनवारीलालजी के बेटे ... के लिये कन्यादान कर ... बहू ले आईयेगा।

लड़का मां को इस हाल में देख फफक पड़ा- मां ! ये तुमने क्या किया? मुझे नहीं करना विवाह !

नहीं बेटा ! तू नहीं समझेगा इस सुख को ... बेटी की मां बनने का सुख .. बहुत सुकुन...

बेटी की मां बनने के उस अकथनीय सुख ने आज उसके जीवन के सारे दाग और अपमान को धो डाला था।

वह कराहते हुये कहने लगी- बेटा! कुछ भूलों का संसार मे ंप्रायश्चित नहीं होता। तुम ऐसा मत... अचानक दर्द कुछ ज्यादा बढ़ गया और अटकते हुये कहने लगी- आओ लौट चलें...

कहां मां ? लड़के ने अश्रुपूरित नेत्रों से आश्चर्य व्यक्त करते हुये पूछा।

लक्ष्मी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट तैरने लगी। और आखिर में , बेटियों की ओर ... ऐसा कहते हुये वह इस संसार से महाप्रयाण कर गयी।

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21 टिप्‍पणियां:

Rakesh Kumar ने कहा…

वाह ! लंबी रोचक धाराप्रवाह कहानी.

सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

आप और मैं तो एक ही नाम के हैं.

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.

मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.

Abhishek ने कहा…

महत्वपूर्ण सन्देश देती कहानी. स्वागत.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अच्छी कहानी ... जागरूक करने की क्षमता रखती हुई ...

दीपावली की शुभकामनायें

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

kahaani to bahut hee mohak hai....

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

अच्छी कहानी, सुखद सन्देश देती हुयी .

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

आपने बहुत ही अच्छा संदेश दिया है कहानी मे।

आपको सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!

सादर

Udan Tashtari ने कहा…

लंबी किन्तु रोचक....

दीप हम ऐसे जलायें
दिल में हम एक अलख जगायें..
आतंकवाद जड़ से मिटायें
भ्रष्टाचार को दूर भगायें
जन जन की खुशियाँ लौटायें
हम एक नव हिन्दुस्तान बनायें
आओ, अब की ऐसी दीवाली मनायें
पर्व पर यही हैं मेरी मंगलकामनायें....

-समीर लाल 'समीर'
http://udantashtari.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

बहुत ही रोचक, अन्त भी रोचक पैसा और बेटे की चाहत आम है, बेटी की चाहत में भागे भी पर ------------ । तभी कहते है बेटी भाग्य से ही मिलती है। मैं खुश नसीब हूँ बेटी है मेरे घर में।

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत ही अच्छी कहानी हैं.

Mahesh Barmate "Maahi" ने कहा…

kahaani lambi hai par rochak...

aap krupya kar apni lambi kahaaniyon ko 2 ya adhik part pe prakashit karen... taki samayabhaav ke karan hone wali jaldbaaji ke kuprabhaav se aapki rachnaayen bach sake...

der se aane ke liye kshama chahata hoon...

mere blogs pe aapka swagat hai...

http://mymaahi.blogspot.com/
http://meri-mahfil.blogspot.com/

shikha varshney ने कहा…

लंबी किन्तु अच्छी कहानी.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर , इतना अच्छा सन्देश इस कहानी से अपने दिया है कि मन अभिभूत हो गया. काश ! इतनी समझ सब में पैदा हो जाए. ये तो आज भी हमारे शिक्षित परिवारों में भी है कि बेटी चाहे न हो लेकिन बेटा जरूर हो. बेटी का जन्म सबके चेहरे पर मुर्दनी लगा देता है और बेटे का जन्म ख़ुशी फिर चाहे भविष्य में वही बेटा घर से निकाल कर सड़क नापने के लिए मजबूर भले कर दे.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

bejod kahani ... kitna kuch kah gai, sikha gai

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जीवन में प्राप्ति अप्राप्ति इतनी रोचकता से छिटके रहते हैं कि अगले पल क्या होने वाला है, समझ नहीं आता है।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

आज के सत्य को उजागर करती हुई बहुत मार्मिक ढंग से कथा बुनी है आपने...कहानी जब तक ख़तम नहीं होती पाठक को बांधे रखती है...उत्कृष्ट लेखन...बधाई स्वीकारें

नीरज

amrendra "amar" ने कहा…

waah bahut acchi kahani,
kahi bhi aisa nahi laga ki ab rochakta samapt ho rahi hai
dhara prawah sunder prastuti ke liye badhai

Arvind kumar ने कहा…

wah!!!khoobsurat hai...

मन के - मनके ने कहा…

मन को छूती कहानी,जिसमें कन्या की अहमियत को भावों में भर कर दर्शाया गया है.इस कहानी में महान कहानीकार मुंशी प्रेम चंद्र की शैली जलकती है.

मन के - मनके ने कहा…

’आओ लौट चलें’ एक ऐसी कहानी जिसमें आपने बुढापे की त्रासदी को उजागर किया है. कुछ प्रश्न छोड जाती है यह कहानी.

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

rochak.. aur sukhad sandesh deti rachna... achchhi kahani hai..

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

kabhi hamare blog pe aayen...