tag:blogger.com,1999:blog-59446162340873590612024-03-13T23:40:04.080-07:00एक-सपनाराकेश कुमारhttp://www.blogger.com/profile/08397280715413909061noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-5944616234087359061.post-29813387256691760712014-01-26T00:43:00.001-08:002014-01-26T00:43:45.722-08:00प्रतिदान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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बेटा ! तुम पहली बार घर से कहीं बाहर जा रही हो, सम्हल कर रहना, दूर घूमने नहीं जाना, शाम होने के बाद हॅास्टल से बाहर नहीं निकलना, किसी से ज्यादा अनावश्यक घुलने मिलने की जरूरत नहीं है । मां मेरे कपड़ों को सहेजते हुये दिल्ली जाने के पहले मुझे ढेर सारी हिदायतें देते हुये समझा रही थी । </div>
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मैने अमरूद को एक कोने से कुतरकर चबाते हुये मजाकिया लहजे में कहा - मां, फिक्र मत किया करो, अब मैं बड़ी हो गयी हू, डोन्ट वरी, मम्मा...ऐसा कहते हुये उनके गोद सें चिपक गयीं।</div>
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मां मेरी ओर एकटक देख रही थी, मैने उनके गले में हाथ डालते हुये कहा- देखना, मैं आपको रोज लंबी-लंबी चिट्ठियां लिखा करूंगी, सुबह क्या खाया, क्या पीया, सब कुछ पत्रों में कहूंगी, देखना भला डाकिया भी परेशान हो जायेगा। </div>
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तुम्हे हरदम मजाक ही सूझते रहता है, अब बड़ी हो गयी हो, बचपना छोड़ो अर्चना। तुम्हारी उम्र में मेरी शादी हो गयी थी, पूरे घर सम्हालती थी, सास, ससुर, देवर, ननंद और फिर तेरे पापा, सबको संतुष्ट करना कोई हंसी ठट्ठा का खेल नहीं था - मां ने मेरे बालों को सहलाते हुये बड़े प्यार से गंभीर होकर कहा। </div>
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मां मैं तो अभी भी छोटी सी बच्ची हूं, देखो तुम्हारे कंधे तक आती हूं, मैं मां के पास लाड़ से चिपक गयी और मां का बनावटी गुस्सा उनकी खिलखिलाहट में कहीं खो सा गया। </div>
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उस दिन शाम मैं पढ़ने के लिये घर से बड़े रूंआसे मन से दिल्ली आ गयी. नयी जगह, नये लोग सब कुछ अटपटा सा था। कुछ दिनों तक तो मां की याद में बैठकर रोती रही, कभी-कभी घर लौट जाने को मन करता, लेकिन धीरे-धीरे पढ़ायी के साथ सब कुछ ठीक होता गया । मैं मन लगाकर पढ़ा करती किंतु मां की याद आते ही मै पूरी तरह ठहर सी जाती, मेरे सारे उमंग कहीं खो जाते और मैं मायूश हो जाती। लेकिन ऐसी किसी भी परेशानी में मेरा सहारा कालेज का वह छोटा सा गार्डन हुआ करता , जहां की अनोखी सुंदरता मुझे भीतर तक तृप्त कर देती। <br />
<br />
एक दिन मैं महाविद्यालय के प्रांगण में अवकाश के क्षणों में बैठी फागुनी बयार का आनंद लेती कुछ बिखरे सपनों को सहेजने का प्रयत्न कर रही थी. उन पलों में बासंती मादक हवाओं का अहसास मेरे अतृप्त मन को एक सुकुन सा दे रहा था। फाल्गुनी हवा के मादक झोंकों से मेरा रोम-रोम पंखुरित हो रहा था और उन क्षणों में मेरे देह के अगणित पोरों से छलकता हुआ यौवन का सौंदर्य किसी पुष्प की पंखुड़ी पर पड़े शरद ऋतु के ओस के बूंद की तरह आकर्षक लग रहा था। मैं इंद्रधनुषी छटाओं के झरोखों से झाडि़यों की झुरमुटों में छिपकर आ रही एक किरण में अपने सतरंगी सपनों को निहार रही थी और मेरा चंचल चित्त किसी विहंग की तरह आकाष की उन्मुक्त उंचाईयों को नापने की चेष्टा करती, संपूर्ण जगत के सुख और ऐश्वर्य को अपने कदमों के समीप देखने का यत्न कर रही थी। </div>
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वास्तव में मंै उन दिनों जब भी किसी कार्य से रिक्त होती अथवा अध्ययन से अवकाश के क्षण होते, कल्पना के पंख लगाकर क्षितिज तक जाया करती और वहां से सुंदर-सुंदर सपनों के मोती चुनकर ला दर्पण के सम्मुख इत्मीनान से बैठ उन मोतियों से श्रृंगार कर अपने सौंदर्य को घण्टों निहारा करती। अपने व्यक्तित्व को सौंदर्य का पर्याय मानने वाली मेरी धारणा लगभग परिवर्तित हो चुकी थी और आईनों से मुझे मुहब्बत सी हो गयी थी। मैं स्वयं के इन्ही सब क्रियाकलापों से महसूस करने लगी थी कि मेरा किशोरपन मुझसे अब विदा हो गया है। </div>
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किशोरावस्था को विदा कर युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते हुये मैं अपने अंदर होने वाले कुछ भावनात्मक हलचल को पिछले कुछ समय से महसूस करने लगी थी। मेरे अंदर का एकाकीपन अब मुझे कुछ-कुछ सालने लगा था और मेरे हृदय वाटिका में अंकुरित प्यार की नवकोपलें किसी तृप्ति की आस लिये प्रकृति के सौंदर्य के इर्द गिर्द भटकने लगी थीं। मैं कुछ-कुछ अलग सा और बिल्कुल नयापन सा महसूस करने लगी थी। मुझमें किसी रिक्तता का आभास होने लगा था और इसी शून्यताको मैं प्राकृतिक छटाओं के उन खूबसूरत लम्हों से अवकाश के पलों में परिपूरित करने का प्रयत्न किया करती । </div>
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घर से कोसों दूर दिल्ली जैसे महानगर में अन्जानों के बीच एक अजीब सा भय मुझे हर रोज सालता था और यही भय कहीं ना कहीं किसी पुरूष के प्यार के अवलंबन को मेरे अंदर जन्म देने लगी थी । स्वयं में तेजी से हो रहे भावनात्मक परिवर्तन के बीच किसी के प्यार की अनायास मुझे आवष्यकता महसूस होने लगी थी और मै भावनाओं के प्रवाह में बहने लगी थी। यद्यपि उस समय विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण की अवस्थाजनक कमजोरियों को अपने संस्कारों से यथासंभव नियंत्रित करने का प्रयत्न करती परंतु हर बार मैं जैसे नाकाम हो जाया करती । मेरे अंदर उठ रही प्यार की लपटों की अतृप्त प्यास से मैं झुलस जाती और उन्ही अन्जानों के बीच किसी हमसफर की आस लिये ईष्वर से प्रार्थना किया करती । </div>
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मंा ने मुझे जब अध्ययन हेतु दिल्ली भेजा था तभी ढेर सारी नसीहतों, उपदेशों एवं हमारी गौरवशाली परंपरा का दुहाई देते हुये मुझसे वचन मांगा था कि मैं किसी भी कीमत पर घर कीप्रतिष्ठा को धुमिल नहीं होने दूंगी और मैने उन्हे यह वचन संहर्श हंसते-हंसते दिया था। </div>
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मैं जानती थी कि सामाजिक प्रतिमानों के विरूद्ध मेरी कोई भी प्रगतिवादी सोंच घर के सम्मान को आंच पहुचायेगी, मां को तोड़ देगी, इसलिये हर हालत में मैं अपने सोंच और संस्कारों में समायोजन बिठाना चाहती थी । इस तरह जब कभी मेरे कदम किसी पुरूष के प्यार की कल्पना में आगे बढ़ती मैं बड़ी निष्ठुरता से उसका दमन करने में कामयाब हो जाया करती, तभी तो अपने मित्रों के बीच मैं संवेदनहीन, निर्दयी, पत्थरहृदय और ना जाने किन-किन उपनामों से जानी जाती । मैं जानती थी कि मेरे अंदर भी जीती जागती भावनाएं हैं, कोमल कल्पनायें साकार स्वरूप प्राप्त करने की चेष्टा कर रही हैं, भावनाओं का तीव्र आवेग मेरे संस्कारों की बनायी परिधीय दीवारों को तोड़ने के लिये बेचैन है । मै यह भी जानती थी कि जितनी निष्ठुरता से मैं अपने अंदर उठ रही प्यार की लपटों को दमन करने का प्रयत्न कर रही हूं, वह उतनी ही तीव्रता से मेरे संस्कारों को झुलसाकर किसी संकीर्ण मार्ग की तलाश में कहीं एक सुर्खछेद बनाने का प्रयत्न कर रही है, किंतु मैं जब तक हो सकता था इन सबसे बचना चाहती थी । </div>
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सच तो यह था कि मेरी ईष्वर पर अगाध श्रद्धा थी और मैं मिलन-विरह, संयोग-वियोग अथवा प्यार के किसी सुनहरे पल को उनके द्वारा किसी निष्चित उद्देष्य के लिये दिये गये उपहार के रूप में देखा करती । अतः मैं आश्वस्त थी कि ईष्वर की कृपा जब मुझ पर होगी, किसी स्वस्थ, सुंदर और प्रतिभाषाली पुरूष के प्यार का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होगा। ऐसा नहीं था कि इस उम्र के आते तक किसी युवक का प्रणय प्रस्ताव मुझे ना मिला हो, सभी सामान्य लड़कियों की तरह लड़कों की फब्तियों, छिछोरी हरकतों, एवं फिकरें कसने जैसी परेषानियों का सामना मुझे भी करना पड़ा था, किंतु इन सब परिस्थितियों ने मुझे जहां चारित्रिक रूप से सुद्ढ़ किया था वहीं मैं साहसी भी हुई थी और किसी की आंखों में उसके अंदर पल रहे शैतान को जानने समझने की क्षमता भी मुझमें बड़ी तेजी से विकसित हुई थी ।</div>
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अभी मैं एक पुष्प पर भौंरे के आकर्षण को निहार ही रही थी कि मेरे सामने दालान पर एक लड़का गमले में पुश्पित गेंदे के एक फूल की पंखुडियों को निकाल-निकाल कर खेलने लगा। छरहरा बदन, गेहुंआ रंग और शर्मीले स्वभाव का वह लड़का वहां बैठकर किसी नोवेल का अध्ययन कर रहा था किंतु वास्तव में वह उसका अभिनय मात्र था। बीच-बीच में वह मेरे सौंदर्य को निहार लेता, किंतु जैसे ही मैं उसे देखने का प्रयत्न करती, वह नजरें नीची कर लेता या फिर अन्यत्र देखने का उपक्रम करने लगता। वैसे भी पिछले कुछ समय से मैं उसके हाव भाव का जो आंकलन कर रही थी उससे सब कुछ सतही नहीं था, मुझे गंभीरता से उसके बारे में विचार करने की आवश्कता थी। मै अभी उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानती थी, केवल उसके नाम से ही थोड़ी बहुत वाकिफ थी, लेकिन जब कभी मैं उससे मिलती, उसका अंतर्मुखी व्यक्तित्व मुझे बहुत भाता था, उसका संकोची स्वभाव मुझे अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेती। </div>
<br />
----3----<br />
<br />
वह मुझे उस दिन नजरें चुराकर घण्टे भर तक देखता रहा किंतु मैं उस घटना को किसी पुरूश की सामान्य चारित्रिक विषेशता, स्त्रियों के सौंदर्य से उर्जा प्राप्त करने की पुरूशों की प्राकृतिक लालसा से ज्यादा तवज्जो देकर अनावष्यक तनाव मोल नहीं लेना चाहती थी। मैं तो स्वयं में खोयी हुई बस कल्पनाओं के सागर में डुबकियां लगा रही थी, वैसे भी इस उम्र में कल्पनाओं में गोते लगाने का अपना एक अलग महत्व होता है। युवावस्था की दहलीज पर कदम रखना, किसी युवती के लिये वह सुखद अनुभूति होती है जिसका वर्णन सामान्य रूप से कर पाना मुमकिन नही ंतो कठिन अवष्य होता है, विवाह के सुखद अहसास की इंद्रधनुशी कल्पना,भविष्य के केनवास पर कल्पना के रंगों से प्रिय में वंाछित गुणों को उतारने का एक अंतिम अवसर, माता-पिता के घर से विदा होने की नजदीक होती घडि़यां और उनके प्यार की प्रतिपूर्ति में किसी दशरथ और कौशल्या के सपनों को बस एकटक निहारते रहने की अतृप्त इच्छा से कभी उबासी ही नहीं आती । कल्पनाओं में ऐसा महसूस होता है जैसे विवाह के पष्चात सारा घर और पूरे परिवार की इच्छायें केंद्रीकृत होकर उसके इर्द-गिर्द घूमेंगी, सब लोग उसका ऐसे ध्यान रखेंगे जैसे घर में किसी राजकुमारी का आगमन हुआ हो। <br />
<br />
लेकिन मैं जानती थी कि हसीन ख्वाबोें की उम्र बहुत ज्यादा नहीं होती, पलकों के समीप जिन स्वप्नों को देखने की मैं चेश्टा कर रही हूं, वह सब मेरी नासमझी है, नितांत कोरी कल्पना मात्र है, मैं यह भी जानती थी कि कल्पना का यथार्थ से गहरा बैर होता है, मैं जो सोंच रही हूं, वह हो नहीं सकता और जिनसे मुझे सख्त नफरत है वही सब मेरी जिंदगी का अहम् हिस्सा बनने वाला है, लेकिन ऐसे क्षणों में मैं किसी दर्शन शास्त्र के इन वाद विवादों से दूर बस उन चंद लम्हों को किसी तरह संपूर्णता से जी लेना चाहती थी। <br />
<br />
थोड़ी ही देर में वह लड़का जिसे मै राहुल के रूप में जानती थी, अपने जिंस का पीछे का हिस्सा साफ करते हुये मुझसे कहा-अर्चना, मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूं...<br />
<br />
उसकी ये बातें मेरे स्वप्न में दखल सी दे गयी, मेरे सपनों की श्रृंखलाबद्ध कडि़यां जैसे टूटकर बिखरने लगीं, फिर भी मैनें संयत हो दुपट्टे को जरा ठीक करते हुये कहा-<br />
<br />
जी, कहिये । <br />
<br />
वह संकोच से कुछ कह नहीं पा रहा था, पर उसके चेहरे के हावभाव उसके अंतर्मन की बातों को स्पष्ट रूप से बयां कर रहे थे। <br />
<br />
मैने फिर से कहा- जी कहिये ना, संकोच कैसा? <br />
<br />
उसने संकोच भरे लहजे में कहा- कहीं, आप बुरा तो नहीं मान जायेंगी?<br />
<br />
मेरे माथे पर बल पड़ गये- <br />
<br />
मैने कहा, राहुल जी, बुरा मानने वाली अगर कोई बात होगी, तो अपना एतराज जरूर दर्ज करूंगी, किंतु उसमें भी मेरा क्रोध नहीं, मेरी शालीनता प्रदर्षित होगी, मैं आपको बुरा मानने के कारणों के बारे में विस्तार से बताउंगी। <br />
<br />
राहुल झेंप सा गया, <br />
<br />
उसने कहा- तो, फिर रहने दीजीये, ऐसी कोई खास बात नहीं थी। <br />
<br />
मुझे गुस्सा आने लगा, वैसे भी आधी-अधूरी बात कर जब भी कोई मुझे उत्सुकता की देहरी पर छोड़कर अपनी बातों का इतिश्री करने का प्रयत्न करता, मुझे क्रोध सा आ जाता।<br />
<br />
मैंने फिर से अपनी बातों में तल्खी लाते हुये कहा- देखेा राहुल, जब बात छेड़ी है, तो उसे पूरा भी करो, अनावष्यक बीच में किसी बात को छोड़कर मन में किसी उत्सुकता या दुविधा को जन्म देना मेरे विचार से बिल्कुल भी ठीक नहीं होता। वैसे भी हम इंसान ही तो हैं, कमियां हम सबमें होती हैं । हो सकता है, तुम जो कहना चाह रहे हो, वह मेरे विचारों या भावनाओं के अनुकूल हो और मुझे खुषी हो । <br />
<br />
राहुल को मेरी बातों से जरा ताकत का अहसास हुआ, वह मेरे समीप आकर सिर्फ इतना ही कह पाया था कि अर्चना मैं तुमसे... कि इसी बीच मेरी सहेलियां खिलखिलाकर हंसते हुये मेरे समीप आ गयीं और उसकी बात अधूरी रह गयी । <br />
---4---<br />
<br />
उसके समस्त क्रियाकलापों, उसके हावभाव एवं आधे-अधूरे शब्दों से मैंने यह अवष्य अनुमान लगा लिया कि वह मुझसे शायद प्रणय निवेदन करना चाहता है। मैं उसके मंुह से यह शब्द सुनने के लिये बेहद उत्सुक थी, किंतु भाग्य ने जैसे उस दिन मेरा साथ नहीं दिया। पूरी रात बड़ी बेचैनी से कटी, एक-एक पल जैसे युगों की तरह बीता, पहले प्यार के पहले अहसास की कल्पना, मेरे सुंदर तन और अतृप्त मन को उस रात्रि में जो सुकुन दे रही थी उसे मैं सिर्फ महसूस कर सकती थी, शब्दों में बता पाना तो उस क्षण नितांत कठिन था। जीवन के कोरे पृश्ठों पर होता प्रथम गुलाबी अहसास, स्वप्नों की पंखुडि़यों से सजे मलमली सेज का अनोखा आनंद, वीणा की मधुर ध्वनि सा धड़कती हुई हृदय की मीठी आवाज और उन सबके बीच दिल में प्यार के ज्वार की उठती तरंगे। मैं अभिभूत थी उन क्षणों को स्वप्नलोक में पाकर, जहां दूर-दूर तक ना कोई शोक था ना जीवन की कठिनाईयां थी, यदि कुछ था तो सिर्फ और सिर्फ जीवन था, खुषियां थी । <br />
<br />
सुबह कालेज जाने की बेसब्री थी, किंतु लम्हों और पलों की मंथर गति से प्रवाह ने प्रतीक्षा और मेरे धैर्य का जैसे इम्तिहां ले ली । कालेज जाकर मैं स्वयं को एकांत देना चाहती थी ताकि राहुल को मुझसे बातें करने का अवसर मिल सके। राहुल ने भी एकांत पाकर मेरे समक्ष उस दिन प्रणय प्रस्ताव आखिर रख ही दिया । <br />
<br />
मैने राहुल से कहा- तुम जानते हो प्यार की क्या परिभाशा है ?<br />
<br />
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राहुल ने मुस्कुराते हुये कहा- हां, मैं जानता हूं, प्यार षारीरिक आकर्शण मात्र का ही नाम नहीं है और ना ही प्यार साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाने की अपरिपक्व मानसिकता का प्रतीक है, बल्कि प्यार तो एक दूसरे की महत्वाकांक्षाओं को मूर्त रूप प्रदान करने के लिये किसी अवलंबन प्रदान किये जाने का पर्याय है। प्यार सत्यम् ,षिवम् , सुन्दरम् के गूढ़ अर्थ को स्वयं में समेटे ईष्वर का दिया अनुपम उपहार है। जहां प्यार है, वहां जीवन है और जहां सत्य है, संयम है, विष्वास और पारदर्षिता है, वहां प्यार के बीज सीप से निकले मोती की तरह चमकते हैं। यकीन मानो अर्चना, तुम्हारा प्यार मुझे समाज के सम्मुख अपनी एक अलग पहचान बनाने में बेहद मददगार साबित होगा और सच कहूं तो यह तुम्हारा मुझ पर एक ऋण है। </div>
<br />
मैं खामोश थी, राहुल के विचारों के सम्मुख नतमस्तक थी, वह जितना कुछ कहता, मैं उतना ही उससे प्रभावित होते जाती । <br />
<br />
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मैं राहुल के विचारों से उस दिन बेहद प्रभावित थी, मै उसके साथ पार्क पर टहल रही थी तभी राहुल ने मुझसे कहा- अर्चना, क्या तुम खामोश ही रहोगी या कुछ कहोगी भी, तुम्हारे भी तो प्यार के बारे में अपने निजी विचार होंगे?<br />
</div>
मैं थोड़ा संकोच में पड़ गयी, मैने कहा- मैं भी यही सोंचती हूं । राहुल सचमुच प्यार एक अहसास है, वैसे तो इसकी व्याख्या कठिन है, यह तो अनुभूति मात्र का विषय है, फिर भी मैं तो यही कहूंगी, यह जीवन को और अधिक बेहतर ढंग से जीने की कला प्रदान करने का प्रकृति प्रदत्त एक अनोखा उपहार है। <br />
<br />
मेरे विचारों से राहुल भी गद्गद हो गया, हम गार्डन में एक खाली जगह पर अब बैठ चुके थे, फाल्गुन की हल्की बूंदा-बांदी भी हो रही थी, लेकिन हम दोनों इससे बेखबर थे। <br />
<br />
मैने राहुल से कहा- एक बात कहूं ?<br />
<br />
हां-हां कहो ना ! <br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
मैने राहुल से कहा- राहुल, मैं प्यार की सात्विकता में विश्वास करती हूं। यदि यह तुम्हे स्वीकार हो तो ही... अन्यथा हमारे रास्ते अभी भी अलग हैं । </div>
<br />
राहुल ने मेरी ओर कौतुहल से देखते हुये कहा- अर्चना मुझ पर भरोसा रखो, , दैहिक आकर्षण के दम पर टिका प्यार दीर्घजीवी नहीं होता, उसकी उम्र कुकरमुत्ते की उम्र से ज्यादा नहीं होती।<br />
<br />
<br />
फिर उस दिन पीरियड की बेल के बाद हम अपने क्लासरूपम की ओर चले गये। <br />
<br />
<br />
अब तो जब कभी मै अध्ययन से रिक्त होती, राहुल के साथ अपने विचारों को बांटती, उसके साथ धूमने का अपना अलग ही आनंद होता और इस तरह मैं राहुल के प्यार में घीरे-धीरे रंगते गयी । मेरे अंदर की कई अनगढ़ प्रतिभायें उसके प्यार के झोंकों के स्पर्श से एक स्वरूप लेने लगीं,उसके प्रोत्साहन के चंद लब्ज मुझमे अपूर्व ताकत और उर्जा का संचार किया करतीं । <br />
<br />
मेरे अंदर की बाल्यावस्था की कई प्रतिभायें जैसे अवसर की तलाश में भटकने लगीं । मैं बचपन से ही सुंदर अल्पोना और रंगोली बनाया करती, इसमें मैने अपनी सुंदर कल्पना से विकसित कर चित्रकारी का अद्भुत रूप देने लगी । मां के साथ जिन हिंदी फिल्मों के गाने गाना मेरे शौक हुआ करतीं, उसे मैं महाविद्यालय के मंचों पर प्रदर्षित कर अपनी कला का लोहा मनवाने लगी ।<br />
<br />
प्यार से व्यक्ति का व्यक्तित्व निखरता है,उसका स्वरूप किसी पुष्प की भांति खिल जाता है, यह मैने जीवन में पहली बार महसूस किया । उस पहले प्यार के पहले अहसास ने मेरे अंदर कई परिवर्तन किये, मुझमें धैर्य के गुणों का विकास किया, मेरे विचारों में मैने परिपक्वता का आभास किया ।<br />
<br />
मैं राहुल के निष्छल और निःस्वार्थ प्यार को पाकर अपने जीवन से बहुत खुश थी, उसके परिपक्व विचार और जीवन के प्रति उसके आशावादी दृष्टिकोण ने मुझे कुछ कदम आगे बढ़कर सोंचने को जैसे विवश कर दिया । मैं राहुल में वे सभी गुण लगभग देख पा रही थी जो मैने अपने सपनों के राजकुमार के लिये मापदण्ड तय करके रखे थे। उसका व्यक्तित्व मेरे तय मानकों से 80 फीसदी निकट था और सौ फीसदी होने का तो प्रष्न ही नहीं उठता था, क्योंकि ईष्वर हर व्यक्ति में कुछ ना कुछ ऐसी कमियां अवष्य छोड़ जाता है जो उसे अधूरा कर इंसान की श्रेणी में रख देता है और इसी कमीं को हम समायोजन के गुणों द्वारा पूरा कर वैवाहिक जीवन केा सफल बनाने में कामयाब हो जाते हैं ।<br />
<br />
हम दोनेा एक दूसरे से बेइंतहा प्यार करने लगे थे और प्यार का मीठा जहर मेरी नसों में घुल कहीं ना कहीं मुझे कमजोर करने लगा था। मुझे अब लगने लगा कि राहुल के बिना जीवन निर्वाह मेरे लिये कठिन हो जायेगा, सो मैने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हुये कहा- <br />
<br />
क्या तुम नहीं सोंचते कि हमें अपने प्यार को विवाह का स्वरूप देकर पूर्णता प्रदान करनी चाहिये? एक अटूट बंधन में बंधकर एक दूसरे के स्वप्नों को साकार करने में जिम्मेदारी से मदद करनी चाहिये ?<br />
<br />
अर्चना, तुम यदि मुझसे विवाह की इच्छुक हो तो यह मेरा सौभाग्य है। मैं कल ही घर में माता-पिता से बातें करूंगा। लेकिन क्या तुम्हारी मां मेरे साथ विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगी? राहुल खुशी से गद्गद हो चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखेरते हुये कहा।<br />
<br />
मैने कहा- राहुल, मेरी मां बहुत संवेदशील है, आधुनिक विचारों की प्रगतिषील महिला है, वे मेरी इच्छा के विरूद्ध कभी नहीं सोंचेंगी। <br />
<br />
-5-<br />
<br />
राहुल ने घर में बातें करने की चेष्टा की, किंतु उनके परिवार के लोग किसी भी कीमत पर राजी ना हो सके । <br />
<br />
मैेने राहुल के समक्ष मंदिर में विवाह का प्रस्ताव रखते हुये कहा- राहुल हम परिपक्व हैं चलकर किसी मंदिर में विवाह कर लेते हैं, विवाह के पश्चात हमारे रिश्ते को स्वीकारना उनकी विवशता होगी। <br />
<br />
राहुल खामोश हो सिर पकड़कर बैठ गयाए वह आकाश में किसी शून्य को निहारने लगा। <br />
<br />
मैने कहा- क्या हुआ ? <br />
<br />
राहुल ने कहा. नहीं अर्चना! मैं ऐसा नहीं कर पाउंगा, माता.पिता की मर्जी के विरूद्ध मैं विवाह नहीं कर सकताए जिन्होने मुझे 23 साल तक पाल पोंसकर बड़ा किया, हर कदम पर मेरे लिये तकलीफ सहे, मैं उनके साथ धोखा नहीं कर सकताए विश्वासघात मेरी फितरत में नहीं है । मेरा ऐसा मानना है कि जो व्यक्ति अपने माता.पिता के विश्वास की रक्षा नहीं कर सकता वह भावनाओं के प्रवाह में बहकर यदि किसी स्त्री के विश्वास की रक्षा करने का दंभ भरता हो तो वह महज एक छलावा है' यह दीर्घकाल तक टिकाउ नहीं होता । <br />
<br />
मैं हताश सी राहुल के समक्ष बैठी अनुरोध भरे स्वर में गिड़गिड़ाते हुये कहने लगी. तुम एक बार फिर से बात करोएउन्हे यह समझाने का प्रयत्न करो कि मैं उनके घर की प्रतिष्ठा और सम्मान को सदैव उंचा करूंगीएएक श्रेष्ठ बहू के रूप में अपना परिचय दूंगी । <br />
<br />
मेरे कहने पर राहुल ने घर में पुनः चर्चा की, लेकिन वह उन्हे ना मना सका। <br />
<br />
अब तो मेरे क्रोध का पारा सातवें आसमान पर था। राहुल से विछोह की कल्पना से मैं विरह अग्नि में जलने लगी । मैने कहा- राहुल तुम इतने कायर और डरपोक होगे, मैने उसकी कल्पना भी नहीं की थी । <br />
<br />
क्या तुमने मेरे समक्ष प्रणय प्रस्ताव रखते हुये अपने माता.पिता की अनुमति ली थी ? क्या तुमने मेरी भावनाओं से खेलते हुये उनका विश्वास अर्जित किया था ? तुम्हारा यह कैसा दोहरा मापदण्ड है? क्या तुम भी उन्ही सामान्य पुरूषों की तरह हो, जो प्यार किसी और से करते हैं और शादी किसी और से ? क्या तुम मुझे इस बात पर विवश कर रहे हो कि मैं अपना जूठन हदय लेकर, तुम्हारे रंगो से रंगे अपने बदरंग विश्वास और चारित्रिक पृष्ठों के साथ पराये पुरूष का प्यार स्वीकार कर लूं ? क्या मैं वहां एक अपरोधबोध महसूस नहीं करूंगी ? राहुल क्या किसी दूसरी स्त्री के समक्ष मीठी बातें करते हुये तुम्हारी आत्मा तुम्हे नहीं धिक्कारेगी ? <br />
<br />
<br />
राहुल चुप था, आखिर उसके पास जवाब भी क्या हो सकता था? <br />
<br />
मैं रोने लगी, उसने मुझे ढाढस बंधाते हुये कहा-अर्चना, विरह प्रेम का सौंदर्य है। तुमने प्रेम को समझा ही नहीं, वास्तव में प्रेम रूपी नन्हा सा पौधा तो विरह के अश्रु से सिंचित हो सर्वाधिक पुष्ट होता है। प्रेम वह स्वर्ण कणिका है जो विरह की धधकती ज्वाला में जितनी तपती है उतनी ही अधिक दृढ़ता से आलोकित होती है। सच तो यह है कि उस व्यक्ति ने प्रेम के वास्तविक स्वरूप के कभी दर्षन ही नहीं किये, जिसने विरह वेदना में हदय के तपते दावानल को अपने नयनों से सींचकर कभी षांत करने का प्रयास ना किया हो। <br />
<br />
मैं लगातार रो रही थी, उसने अपनी बातों को अविराम पूरा करते हुये कहा- मिलन तो प्रेम का समही स्वरूप होता है। अर्चना, जो मिलन को प्रेम की संपूर्णता मानते हैं, वे प्रेम के वास्तविक स्वरूप को जानते ही नहीं। हमारा विछोह हमारे प्यार को नई उंचाईयां देगा, यकीन करो। <br />
<br />
उसकी बातें उस दिन मुझे पूरी तरह बकवास लग रही थीं, मेरे आंसुओं पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ रहा था । मैं रोती हुई टेक्सी पकड़कर हाॅस्टल चली आयी । मैं विरह के उस भय से कांप उस दिन विचलित हो गयी। किसी व्यक्ति का मिलन जितना सुखदायी होता है, विरह उतना ही कष्टकारक भी । मैं नैराश्य के काले बादलों से घिर गयी, मेरे आंखों से छलकती हुई अश्रु की बूंदे मेरे अंतर्मन की व्यथा को प्रतिबिंबित कर रही थी। किसी पुरूष, जिसे मैं दो वर्ष पहले तक जानती भी नहीं थी, के लिये बहते हुये खारे जल की धारा उस रिश्ते को अभिव्यक्त कर रही थी, जिसे सिर्फ हदय से महसूस किया जा सकता है। मैं पूरी तरह टूट चुकी थी, विरह की अग्नि से मेरा संपूर्ण काया झुलस सा गया, मेरे सौंदर्य का आकर्शण किसी टहनी से टूटे पत्ते की तरह कुम्हला गया । मेरी भावनाओं का श्वेत हिमशिखर पिघल.पिघलकर एक सरिता की तरह आंसुओं के रूप में बहता हुआ, मेरे हदय की धधकती ज्वाला को षांत करने का नित प्रयत्न करती, किंतु जैसे वह अधूरी प्यास उस अग्नि को और अधिक तीव्रता से भभका मुझे झुलसा देती। <br />
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मैं पागलों सी हो गयी, इस बीच राहुल का विवाह भी हो गया. उसके विवाह के पश्चात तो जैसे मैं अपना आत्मविश्वास खो बैठी, मेरे कदम लड़खड़ाने लगे। मेरी महत्वाकांक्षायें गर्त में समाने लगीं । मैं हर रोज विरह वेदना में जलती, विछोह की पीड़ा से मर्माहत हो चुकी मेरी भावनायें मृतप्राय सी हो गयीए आंखेां की कोशिकायें सूखकर अश्रुविहीन हो गयीं। जिस प्यार ने मेरे अंदर की अगणित प्रतिभाओं को संबल प्रदान कर एक उंचाई दी, उसी ने मेरे अंदर नफरत की जहर भर दी, खुशियां मुझसे रूठ गयीं और गमांे से मुझे प्यार हो गया। एक कमरे में सिसकियां भरकर रोने के सिवाय मेरे पास कोई विकल्प नहीं थाए मैं अकेली रहने लगी और मुझे अब एकांत से प्यार हो गया। दर्द भरे गीत और गजल मेरे जीने का आधार बन गयीं। <br />
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मैं व्यस्त रहने का उपाय ढूढ़ने लगी और यही सोंच मैने एक संस्थान में नौकरी ज्वाईन कर ली । इस बीच मुझे विवाह के कई प्रस्ताव मिलेे, किंतु मैं मानसिक रूप से तैयार नहीं थी और कोई ना कोई बहाना बना एक दो वर्षों तक तो इसे टालती रही, किंतु ऐसा बहुत दिनों तक संभव ना हो सका । मैं मां की पीड़ा को महसूस कर रही थी, उसके माथे पर दिखती चिंता की साफ लकीरें मुझे अपने निर्णय पर पुर्नविचार के लिये बाध्य करने लगीं । उसके मौन यद्यपि कुछ ना कह पाती रही हों, लेकिन मै यह आभास करने लगी थी कि वे जल्द से जल्द मेरे हाथ पीले कर पिता के दिये ऋण और अपने उत्तरदायित्व दोनो से मुक्त होना चाहती है। अनिच्छा के बावजूद मां के इरादों का सम्मान करते हुये मैने विवाह का निश्चय कर लिया। मैं अतीत को भुलाकर फिर से एक नया जीवन जीना चाहती थी और मुझे लगा कि नये व्यक्ति का पति के रूप में प्यार मेरे जीवन में आये हुये निर्वात की भरपायी कर देगा, किंतु यह मेरा भ्रम साबित हुआ । <br />
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विवाह के पश्चात जिस सत्य से मेरा साक्षात्कार हुआ वह मुझे नये सिरे से पुनः विचलित करने के लिये पर्याप्त थीं। पति के रूप में शिशिर की पुरूषवादी अहम् दृष्टिकोणए उसके परिवार की रूढि़वादी सोंच मुझे हर कदम पर खटकने लगी। मेरे पति की नजर में स्त्री की हदें घर की देहरी तक सीमित थी] जो मेरे अंदर की ख्वाईषों एवं औरों से अलग हटकर दिखने, सोंचने और समझने जैसी मेरी कई महत्वाकांक्षाओं से टकराने लगी।<br />
<br />
विवाह के बाद मैं पहली बार घर आयी, मां के सम्मुख मित्रवत् कुछ परेषानियों को रखने का चेश्टा की तो मां की चिंता को देखकर दुबारा फिर कभी साहस ही नहीं हुआ। <br />
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मां ने उस दिन मुझे सिर्फ इतना कहा. बेटा! नयी जगह में समायोजन में थोड़ी कठिनाई अवश्य आती है, यह जीवन का अस्थायी क्षण होता है, जो सभी के जीवन में एक बार आता है और यह समय के साथ समाप्त भी हो जाता है, जब एक दूसरे को तुम सब जानने समझने लगोगे तो सारी परेषानियां खुद ही समाप्त हो जायेंगी। परिवार की गाड़ी ऐसे ही चलती है। <br />
<br />
लेकिन मां के तर्क मुझे बहुत दिनों तक संतुष्ट ना कर सकी। वास्तव में शिशिर मुझे भी एक सामान्य औरत की तरह उसी भीड़ का हिस्सा बनाना चाहता था, जहां सैकड़ों औरतें जन्म लेती हैं और ना जाने कब काल के गाल में समा जाती हैं कि गलियों को भी भनक नहीं लगती। मुझे ऐसी जिंदगी से सख्त चिढ़ थी, मैं स्वयं को ईष्वर की बनायी विशिष्ट कृति के रूप में मानती थी, जिसे कुछ विशेष करने उस परवरदीगार ने इस धरती पर जन्म दिया है। मुझमें गायन, लेखन, चित्रकारी जैसी प्रतिभाएं कूट.कूट कर भरी थी. मैं इसे उभारकर इस संसार में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ना चाहती थी । किंतु शिशिर के हर कदम पर असहयोग, उत्पीड़न और गहरे कटाक्ष से मैं टूटने लगी । <br />
<br />
बेमेल और विसंगत विवाह के बीच मर्यादाओं की कालकेाठरी में दम तोड़ती मेरी अतृप्त इच्छायें एवं सारी महत्वाकांक्षायें मातमी गान गाने लगी। हर कदम पर मैं असहज महसूस करने लगी । मायके में एक संयुक्त परिवार में साथ रहते हुये जिन समायोजन के गुणो का मैने स्वयं में विकास किया था, मेरी वह युक्ति भी परिवार की गाड़ी को पटरी पर लाने में कोई काम ना आ सकी ।<br />
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रोज.रोज की वही खिचपिच और उलाहना से मैं तंग आ चुकी थी., मैने एक बार अंतिम प्रयास करते हुये शिशिर से कहा. शिशिर क्यों ना हम कहीं बाहर घूमने चलें. हमें एक दूसरे के विचारों का सम्मान करना होगा, जीवन की गाड़ी आगे बढ़ाने के लिये आखिर हमें एक दूसरे को समझना ही होगा, किसी भी पक्ष के प्रति उपेक्षा से दूसरे के मन में हीनता और कुंठा जन्म लेती है। <br />
<br />
शिशिर ने खीझ भरते हुये कहा. देखेा अर्चना! स्त्री की अपनी एक मर्यादा होती हैए उसका अतिक्रमण मेरी दृश्टि से बिल्कुल भी उचित नहीं होता । पति की कामयाबी में खुशी तलाशने का गुण हर स्त्री को विकसित करना ही चाहिये अन्यथा मेरी नजर में जिन स्त्रियों में यह स्वभाव नहीं होता वे अपने परिवार और स्वयं के प्रति गैर जिम्मेदार होती हैं। <br />
<br />
मैं शिशिर को हर कदम पर समझाने का प्रयत्न करती किंतु वही ढाक के तीन पात, स्त्रियों के प्रति उसकी सोंच में मैं परिवर्तन ना कर सकी और अंत तक फलदायी परिणाम के किसी बिंदू तक नहीं पहुंच सकी । मुझे बीते हुये लम्हे फिर से याद आने लगे और मैं शिशिर की राहुल से तुलना करने लगी। कहां राहुल का उज्जवल सहयोगात्मक चरित्र जहां वह हर कदम पर मेरी महत्वाकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिये लालायित रहता, जी.जन लगाकर चेष्टा किया करता और कहां शिशिर की पुरातनपंथी सोंच जहां वह हर मोड़ पर मेरी हदें बताकर मुझे निरंतर कुंठित करने का प्रयत्न किया करता । <br />
<br />
इस तरह दो पुरूषों की तुलना मुझे महंगी पड़ने लगी और मैं अंदर ही अंदर घुटने लगी, राहुल की कमीं एक बार फिर से मुझे सालने लगी। मैं उसे लगभग भूल चुकी थी, किंतु उसकी यादें एक बार फिर मेरे जीवन में परछायी की तरह साथ.साथ चलने लगा । <br />
<br />
कई बार मेरे कदम आत्महत्या की ओर उठने को होते, पर किसी एक दार्र्शनिक के वे शब्द मुझे अनायास याद हो आते जिसमें उन्होने एक बार कहा था. आत्महत्या, दुखों अथवा कष्टों से निजात पाने का कोई स्थायी उपाय नहीं है, हम जिन दुखों से तंग आकर इस जीवन को समाप्त करते हैं, हमारा अगला जन्म उन्ही दुखों और कष्टों से प्रारंभ होता है. तब क्यों ना हम इसी जन्म में इन कश्टों से लड़कर विजयश्री का वरण करें और अगला जन्म बेहतर प्राप्त करें। <br />
<br />
इस बीच मेरा एक बेटा भी हुआ, उसके जन्म के साथ मुझे एक नया सहारा मिल गया, जीने की नयी आश फिर से पैदा हो गयी. अब तो मुझे अपने बेटे के लिये हर हाल में जीना था। <br />
<br />
दिन गुजरते गये लेकिन कठिनाईयां कम नहीं हुई, अब तो धीरे.धीरे दुखों और कश्टांे से मुझे प्यार सा हो गया था. विपत्तियों के साथ मेरा जैसे चोली दामन का साथ हो गया, लेकिन अब भी मेरी दम तोड़ती महत्वाकांक्षायें कई बार मुझे अंदर तक झकझोर कर रख देती, मैं भीतर ही भीतर छटपटाने लगती। <br />
<br />
अब मेरे सामने केवल एक ही विकल्प बचा था. मैं नैसर्गिक रूप से प्राप्त अपनी प्रतिभाओं को मूर्त रूप देने व्यस्त रहने का उपाय ढूढ़ वैवाहिक जीवन में आयी कठिनाइयों से निजात पाने का प्रयत्न करूं. मुझे मां के कहे वे शब्द आज भी याद थे कि यदि ईष्वर जीवन में कोई समस्या देता है तो उसके उपाय भी वहीं कहीं किनारे पर रख छोड़ता है। <br />
<br />
मैं महाविद्याालय के समय अपनी मुखर हुई प्रतिभाओं को फिर से नये आयाम देने का प्रयत्न करने लगी और समय निकाल कर स्टेज शो करने लगी । अपने ही लिखे खूबसूरत गानों से मैने श्रोताओं के हदय में जल्द ही एक अलग जगह बनानी शुरू कर दी और मेरी शहर में एक पहचान बन गयी । मै जी-जान से मेहनत करती, कुछ ही दिनों में मेरी इस प्रतिभा के सभी कायल हो गये और अब तो कोई भी स्टेज शे मेरा बिना जैसे संभव ही नहीं हो पाता था. श्रेाताओं की ओर से मेरी कोयल सी मधुर आवाज को सुनने डिमांड आती और मेरे पास वक्त ना होने पर आयोजकों को मजबूरन अपने आयोजन की तारीखें आगे बढ़ानी पड़ती, मां सरस्वती मेरे कंठ पर जैसे विराजमान हो गयी और मैं थोड़े ही दिनों में किसी स्टेज शो की सफलता की गारंटी बन गयी । <br />
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अब तो माह में मेरे कम से कम पांच से दस शो होते.<br />
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एक बार गाण्ेाश उत्सव के समय स्टेज शो के आयोजन के दौरान राहुल को एक श्रोता के रूप में सामने की पंक्ति पर देखकर स्तब्ध रह गयी,. मैं अपना आत्मविष्वास खो बैठी, मेरी वाणी लड़खड़ा गयी, बीते लम्हे फिर से एक चलचित्र की भांति घूमने लगी और मेरा रोम.रोम कंाप उठा। मैं बेहद कमजोर पड़ गयी, अपना परफार्मेंस ना दे सकी और तबियत खराब होने का बहाना कर, पीछे के शामियाने को खींचते हुये अंदर चली आयी। मैं तुरंत घर को निकलने लगी कि इसी बीच राहुल मेरा रास्ता रोक सामने आकर खड़ा हो गया और बेझिझक कह बैठा. <br />
<br />
अर्चना दो मिनट प्लीज! मैं आज भी आपसे बहुत प्यार करता हूं । <br />
<br />
मैं गुस्से से तमतमा गयी पर किसी तरह स्वयं को नियंत्रित करते हुये कहा-<br />
<br />
देखो राहुल! एक विवाहित स्त्री से बोलने की अपनी मर्यादा होती है और तुम इसका अतिक्रमण कर रहे हो।मेरे मुंह से कहीं केाई अपषब्द ना निकल जायेए इससे अच्छा है, मेरा रास्ता छोड़ दो ।<br />
<br />
वह सहम गया और कहने लगा. अर्चना! मैं तुम्हे खोकर बहुत दुखी हूं । मैने माता.पिता की इच्छा को स्वीकार कर जिस लड़की से विवाह किया था, वह .... <br />
<br />
मैं उसके विवाह के उपरांत घट रहे दुखी जीवन के बारे में जानती थी, सो मैने कहा.बस! मैं कुछ नहीं सुनना चाहती। दूसरों को विरह की आग में झोंककर सुख के भ्रम में खुषियंा तलाशने वालों का हश्र यही होता है, अरे! जब मरी खाल की हाय से लोहा भस्म हो जाता है, तो क्या एक विरहन की जीवित खाल की हाय किसी का सुख चैन भी ना छीन सकेगी? जो लोग किसी औरत को एक विरहा का शाप देकर मृगतृष्णा में भटकते हुये अन्यत्र विवाह करते हैं, वे तुम्हारी तरह अधूरे रह जाते हैं, और यह तो सामान्य सी बात है कि दूसरों को अधूरी जिंदगी परोसने वाले कभी पूर्ण कैसे हो सकते हैं राहुल?. उस क्षण मैं क्रोध से उबल रही थी और साथ ही आंखों से आंसू भी बह रहे थे। राहुल सच कहूं तो अब मुझे तुम्हारे या किसी के प्यार की जरूरत ही नहीं है, अब मुझे अपनी शोहरत से मुहब्बत हो गयी है और तुम जैसे हजारों श्रोता मेरे गीत के साथ थिरकते हैं ।<br />
<br />
अर्चना! उसे मेरी भूल समझ लो, मैं उसका परिमार्जन करने को तैयार हूं । राहुल ने गिड़गिड़ाते हुये कहा। <br />
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वाह ! क्या नुस्खा है, एक स्त्री को जी भरकर भोगा, मन भर गया तो दूसरी स्त्री, फिर तीसरी, यही ना। मैंने उपहास करते हुये कहा । <br />
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अर्चना तुम मुझे गलत समझ रही हो! राहुल वहीं सामने हाथ बांधे खड़ा था। <br />
<br />
राहुल सच तो यह है कि तुमने मुझसे बेहतर पाने की चेष्टा में मृगतृष्णा में विवाह रचाया और वह ना मिल सका तो फिर दौड़े चले आये। क्या अब तुम्हारे माता.पिता के साथ विष्वासघात नहीं होगा? जाओ! वास्तविकता को स्वीकार करो। यदि तुम मुझसे सचमुच प्यार करते हो तो अपनी जिम्मेदारी सम्हालो, उस स्त्री को प्यार दो, जिसने तुम्हारे विश्वास के दम पर सारी दुनिया छोड़ तुम्हारे घर में शरण ली। प्रिय का वियोग बहुत कष्टदायी होता है और मैं नहीं चाहती कि मैने जो भोगा वह तुम्हारी पत्नी को भोगना पड़े ।<br />
<br />
सुना है! तुम्हारी एक बेटी भी है, जाओ उसे एक पिता का प्यार दो और हां याद रखना ऐसे अवसर कभी उपस्थित हो जायें तो उससे कभी उसका राहुल मत छीनना। हांए मुझ पर तुम्हारे कर्ज हैं, अवसर आने पर चुका दूंगी । ऐसा कहते हुये मैं शीघ्रता से टेक्सी पकड़कर घर आ गयी । <br />
-6-<br />
<br />
अब तो मेरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ मेरे गायन और रियाज पर होता, मैं सारी दुनिया भूल चुकी थी। मेरी मेहनत रंग लाने लगी और अब मेरे कदम सफलता की ओर लगातार बढ़ने लगे धीरे-धीरे मै बालीवुड की ओर प्रवेश करने लगी, अच्छे बजट की कई फिल्मों में गायन के मुझे आॅफर मिलने लगे, गीतकार के रूप में तो मेरी एक अलग पहचान पहले ही बन चुकी थी, मेरी यह दोहरी प्रतिभा समूचे फिल्म इण्डस्ट्ी में अपने तरह की एकमात्र थी, अतः लगभग हर फिल्मों में मेरे दखल होने लगे। <br />
<br />
ईष्वर ने मुझे शोहरत की बुलंदियों को छूने का अवसर प्रदान किया।सफलता की खुशिरयों को मैं अपने आंचल में समेट नहीं पा रही थी, लेकिन कहीं ना कहीं एक अधूरापन सा था, हर प्रसिद्धि की गहराईयों में जिस तरह एक टीस छिपी होती है उसी तरह सब कुछ था, लेकिन पारिवारिक जीवन का अधूरापन कहीं ना कहीं सालता था। <br />
<br />
लेकिन मैं इससे दुखी नहीं थी, मेरे सामने आइंस्टीन और माइकल जेक्सन से लेकर लगभग सभी प्रसिद्ध व्यक्तियों की जीवनी थी और मैं जानती थी कि या तो पारिवारिक जीवन की असफलता प्रसिद्धि का मार्ग प्रशस्तकरती है या फिर बहुत बड़ी प्रसिद्धि ही पारिवारिक कलह को जन्म देती है। <br />
<br />
मैं शिशिर को उसके सोंच के साथ बहुत पहले ही पीछे छोड़ चुकी थी । उसकी बेरूखी से तंग आकर पहले तो एक ही छत के नीचे कुछ दिनों तक अजनबी की तरह हम दोनो साथ रहे, पर यह भी बहुत दिनों तक चल ना सका । दुनिया की नजर में पति-पत्नी का अभिनय करते हुये हम थक चुके थे, वहीं शिशिर के अन्यत्र संबंध के बारे में भी मुझे पता था, पर इन सब फालतू चीजें सोंचने के लिये मेरे पास वक्त नहीं थे । <br />
<br />
मैं जानती थी कि व्यस्तता सभी कश्टों और दुखों का माकूल इलाज होता है, सुबह से षाम तक काम कर मैं स्वयं को थका देती और रात्रि में आराम से सो जाती। मैं स्वयं को व्यस्त रख एकाकी जीवन लगी, मेरा बेटा मेरे जीने का आधार था अतः खाली वक्त पर मैं उसी के साथ होती। <br />
<br />
एक दिन फुर्सत के क्षणों में मां ने मुझसे कहा-<br />
<br />
बेटा अर्चना, मैं जानती हूं तुम्हारे जीवन में कई हादसे हुये हैं, तमाम तरह की विसंगत परिस्थितियों ने तुम्हे बहुत दुख पहुंचाये हैं, क्यों ना एक बार फिर से विवाह के लिये मन बनाओ । वैसे भी, मैं तुम्हारा कब तक साथ दे पाती हूं क्या पता?मेरे जाने के बाद कहीं तुम अकेले ना पड़ जाओ । <br />
<br />
मं कुछ ही दिनों में बेटा बड़ा हो जायेगा, तब मैं उसकी षादी करना चाहूंगी, अब मेरा विवाह में बिल्कुल मन नही लगता और फिर अपने बेटे को सौतेले पिता की कषमकष अथवा अस्वीकारोक्ति जैसे किसी टीस से नहीं गुजरने देना चाहती । लड़कों के कोमल मन में इस तरह के आघात से अपराध के बीज अंकुरित होते हैं -मैंने उबासी भरते हुये कहा। <br />
<br />
उस दिन के बाद मंा ने फिर कभी मेरे समक्ष विवाह का प्रसंग नहीं छेड़ा । <br />
<br />
अब तो धीरे-धीरे मैं अपने बेटे के बड़े होने की प्रतीक्षा करने लगी, जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उससे मेरी खूब छनती हर कदम पर वह मेरे साथ होता और इस तरह राहुल और शिशिर की कमियां, मेरे शोहरत और बेटे के प्यार के बीच कहीं किसी कोने में दबकर रह गयी । जिन पैसों के लिये मुझे कठिन मेहनत करना पड़ता वे जैसे स्टेज पर बरसते फूल की पंखुडि़यों के साथ झरा करतीं, मैं अपार धन-दौलत और शोहरत की मलिका बन गयी। <br />
आखिर में वह दिन भी आया जब बेटे के लिये विवाह के प्रस्ताव आने लगे, नामी गिरामी घरानों से लड़कियों की तस्वीरों के साथ मुझे अपनी पुत्रवधू के लिये कई प्रस्ताव मिले, सभी प्रस्ताव इतने शानदार थे कि मुझे अत्यंत श्रेश्ठ का चयन करना कठिन हो गया। <br />
<br />
मैने अपने बेटे से कहा- तुम्हे जो पसंद हो, छांट लो और मुझे अपनी पसंद से जल्द अवगत कराओ । <br />
<br />
बेटे ने सारी तस्वीरों को लिफाफे में पेक करते हुये कहा- मम्मी जी, मैं चाहता हूं कि मेरे लिये लड़की का चयन आप करें, मैं जीवन में आपको मिले कष्ट की भरपायी तो नहीं कर सकता पर आपको अपनी पसंद से बहू चुनने का अधिकार देकर मैं आपको थोड़ी खुशी देना चाहता हूं, प्लीज मम्मी...। <br />
<br />
नहीं वरूण, मैं फिर से एक कोई कहानी नहीं बनने देना चाहती, तुम्हारी जहां मर्जी है, वहां करो, पर मुझे अपने फैसले से अवगत जरूर कराना ताकि उस खुशी में मैं भी शामिल हो सकूं। वह क्षण हमारे परिवार के लिये सबसे बड़े उत्साह का दिन होगा जिस दिन हमारे घर पर शहनाईयां बजेंगी । <br />
<br />
मम्मी मैं फिर से कह रहा हूं, मै सिर्फ और सिर्फ आपकी मर्जी से विवाह करना चाहता हूं, क्या तुम मुझे यह अवसर नहीं दोगी ? और ऐसा कहते हुये वरूण लाड़ से मेरे कंधे को पकड़ लिया । <br />
<br />
वरूण तो क्या तुम मेरे कहने से कहीं भी विवाह कर लोगे, विवाह के पष्चात बखेड़ा तो खड़ा नहीं करोगे । <br />
<br />
नहीं मम्मी, वादा रहा, अब तो मान जाओ । और ऐसा कहते हुये हम दोनो मां बेटे खिलखिला पड़े । <br />
<br />
-7-<br />
<br />
एक दिन रात के लगभग सात बजे थे, मैने वरूण से कार में बैठने को कहा और गाड़ी की दिषा एक गलियारे की ओर मोड़ दी। बहुत ही तंग गलियारा, छोटे-छोटे मकान, बड़ी मुष्किल से आगे-पीछे करते हुये हम एक स्कूल तक पहुंचे, मैं जहां जाना चाहती थी वह मकान बताये हुये लोकेषन के अनुसार उसके ठीक पीछे था, किंतु दिषा भ्रम की स्थिति हुयी और पता पूछते हुये हम अंततः घर तक पहुंच ही गये । <br />
<br />
जैसे ही हमने घर में प्रवेश किया,एक सभ्य और शालीन सी दिखने वाली लड़की ने दरवाजा खोला, हमसे बिना परिचय पूछे ही दोनो हाथ जोड़कर अभिवादन किया। उसके अभिवादन की शालीनता को देखकर मैं आष्चर्यचकित रह गयी, पूरे के पूरे दसों उंगलियां एक ऋजु कोण की मुद्रा में थी, एक नजर देखने मात्र से ही लग रहा था कि जैसे ईष्वर ने नख से षिख तक सभता और संस्कृति कूट कूट कर भरी हो। <br />
<br />
हमें वह अंदर एक कमरे में ले गयी और थोड़ी देर में पानी से भरा गिलास हाथ में थमाते हुये कहा- चूंकि हम आपको पहली बार देख रहे हैं, इसलिये पहचानने में असुविधा हो रही है, यदि आप अपना परिचय देने का कष्ट करें तो ...<br />
<br />
मैं उसके हरेक षब्दों से झरती शालीनता और वाकपटुता से हतप्रभ थी, बस उसे एकटक देख रही थी, मेरी खामोषी देख वरूण ने अपना परिचय देते हुये कहा- <br />
<br />
जी मुझे वरूण कहते हैं और ये मेरी मम्मी अर्चना वर्मा हैं, <br />
<br />
क्या आप टी.वी. नहीं देखतीं ? वरूण ने पूछा ...<br />
<br />
जी, समय कम मिल पाता है, सो कभी कभार ही देखना होता है । वैसे पापा ने भी कभी जिक्र नहीं किया वरना मुझे अवष्य याद होता, वैसे भी मेरी याददाश्त बहुत तेज हैं। <br />
<br />
इसी बीच राहुल ने अंदर से ही आवाज दिया - बेटा कौन हैं ?<br />
<br />
राहुल सोया हुआ था,शायदउसकी तबियत नासाज थी, हल्की हरारत थी. वह कुछ बोल पाती उसके पहले ही राहुल कमरे में आ गया और हमें देखकर गद्गद हो गया, उसकी आंखें जैसे फटी रह गयीं, क्षण भर को तो उसे अपनी आंखों पर ही यकीन नहीं हुआ। <br />
<br />
आप ! <br />
<br />
हां राहुल, मैं तुमसे एक जरूरी कार्य के सिलसिले में मिलना चाहती थी, बस इसीलिये चली आयी । <br />
<br />
हमारा छोटा सा घर कहीं आपकी प्रतिष्ठा को कम तो नहीं कर रहा? <br />
<br />
उसके बोलने में यद्यपि छल नहीं था फिर भी मैने अपने होंठों पर अर्द्ध मुस्कान बिखेरते हुये कहा- तुम्हारी कटाक्ष करने की आदत नहीं गयी । <br />
<br />
राहुल ने अपनी पत्नी ओर बेटी से बड़े गर्व से हमारा परिचय कराया। वे सब एक मषहूर गायिका के रूप में मुझे अपने घर में पाकर फूले नहीं समा रहे थे । <br />
<br />
राहुल ने कौतुहल से मेरी ओर देखते हुये कहा- अर्चना, अचानक 20 साल बाद तुम्हे अपने घर पर देख पता नहीं क्यों मुझे यकीन ही नहीं हो रहा । तुम्हे मेरा पता कहां से मिला? <br />
<br />
राहुल जुनून चाहिये सब मिल जाता है, मैं तुम्हारे पास एक काम लेकर आयी हूं ।<br />
<br />
हां कहो ना - उसने अधीरता से कहा। <br />
<br />
उस समय हम दोनो ही कमरें में थे, राहुल को उसकी पत्नी और बेटी घर दिखाने अंदर ले गये थे । <br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
मैंने राहुल से कहा- राहुल तुम्हारा मुझ पर एक ऋण है। आज मैं जो कुछ भी हूं, तुम्हारी बदौलत हूं, तुम्हारे प्यार ने मेरे अंदर छिपी प्रतिभाओं को एक समय सहारा दिया और सच कहूं तो तुम्हारे विछोह ने उस प्रतिभा को जाने- अन्जाने मंजिल प्रदान कर दी। तुम जब मुझे एक बार मिले थे तब मेरे रास्ते अधूरे थे और तुम्हारे ऐसे किसी प्रस्ताव को ठुकराना मेरी विवशता थी । तुम्हारे प्यार का दर्द और विछोह की टीस मुझे आज भी बहुत तकलीफ देती है । मैने तुम्हारे प्यार को एक कोने में सहेजकर रखा है, लेकिन किसी भी कीमत पर मैं सामाजिक मर्यादाओं का भी उल्लंघन नहीं करना चाहती थी। पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों की प्रतिष्ठा किसी कांच के घरौंदों की तरह होती है जिस पर एक छोटा सा दाग उसे बद्सूरत बना देता है। राहुल शोहरत की बुलंदियों को पाना जितना कठिन होता है उससे ज्यादा कठिन उसे बरकरार रखना होता है वरना हर कदम पर पतन के रास्ते पूरी तरह खुले होते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
मैं लगातार बोल रही थी वह चुप बैठा था, मैने कहा-राहुल आज मैं अपनी बेटे वरूण के लिये तुम्हारी बेटी का हाथ मांगने आयी हूं, मैं इससे तुम्हारा कर्ज भी चुका दूंगी और उन दोनों की खुषियों में हम अपने प्यार को एक नयी पीढ़ी के रूप में साकार होते भी देख लेंगे। चलो, उनके प्यार और समर्पण में हम दोनेां फिर एक नयी दुनिया की तलाश करें, क्या हुआ हम ना मिल सके, वरूण और साधना का मिलन हमारे प्यार को अमरत्व प्रदान करेगा, हम उन दोनों में राहुल और अर्चना की तलाश करेंगे। यदि तुम्हे एतराज ना हो तो साधना मुझे बेटी के रूप में चाहिये ।</div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
राहुल की आंखों से आंसू झरने लगे, वह इतना ही कह सका - अर्चना, आज सचमुच आराध्य से आराधक बड़ा हो गया।</div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ ही दिनों में घर में शहनाई बज उठी, समूचा विवाह मण्डप खुशियों से सराबोर था, मैं बेटी साधना के समीप खड़ी थी और राहुल बेटे वरूण के समीप, उनकी पत्नी हम दोनों के सामने खड़ी वर-वघू को आशीष दे रही थी, गोधुलि बेला में पाणिग्रहण की रस्म अदायगी हो रही थी, और उस पवित्र जल में मेरे और राहुल के वियोग की टीस से निकले अंासू लगातार झरते हुये एक नये प्यार के अंकुर को जन्म दे रहे थे । </div>
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राकेश कुमारhttp://www.blogger.com/profile/08397280715413909061noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5944616234087359061.post-87647872635272177332012-05-15T23:32:00.001-07:002012-05-15T23:57:54.007-07:00कफन तिरंगे का<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शेखो आज पूरे एक साल बाद गांव वापस आ रहा था। रास्ते भर मन में एक अजीब सी गुदगुदी हो रही थी। दिल में तरह-तरह के खयाल आ रहे थे। अब्बू कितने खुश होंगे, खाला ने मनपसंद सेवईयां बनायी होंगी और सलमा ... वो तो बेचारी राह तकते हुये थक गयी होगी। उसकी आंखों के आंसू सूख कर स्याह काले हो गये होंगे। पिछली बार फोन से बातें करते-करते रो पड़ी थीं। कितनी मुष्किल से ढाढस बंधाया था। कहा था-बस एक हते के भीतर घर लौटकर आ रहा हूं, पर छुट्टी ही नहीं मिली। ये कमबख्त नौकरी चीज ही ऐसी है, सांप छुछुंदर सा हाल, खाये तो पछताये और ना खाये तो उम्र भर सिर पकड़कर रोये। उसमे फिर ये सेना की नौकरी अब्बा रे अब्बा! ना आने का पता और ना जाने का ठिकाना, कब बुलावा आ जाये और घर-बार छोड़ भागना पड़े क्या ठिकाना। अल्ला करे, आदमी फुटपाथ में फकीरी की जिंदगी गुजार ले, पर कभी सेना की नौकरी ना करे।<br />
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<br />जब दो साल पहले नौकरी के लिये कानपुर में सेना का केंप लगा तो अब्बू ने ना जाने कितनी बार मना करते हुये कहा होगा- बेटा छोटी-मोटी किराने की दुकान खोल दस-बीस कमा जैसे-तैसे गुजर कर लो पर ये सेना-वेना की नौकरी ठीक नहीं, ना घर के ना घाट के। अरे वो तो उनके लिये ठीक है, जिनके 10-15 औलाद हैं, सब बैठे-ठाले चैपाल पर पत्ते खेल रहे हैं। जीते-जी छककर खाओ-पीओेे और मर गये तो पूरे गज भर तिरंगे और शहनाई के साथ पूरे गांव में अलख जगा दो। <br />
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अब्बू ने दुनिया देखी थी, वे शहीदों के खून को पिचकारी में भर होली का मजा लेने वाली इस व्यवस्था और इस व्यवस्था को चलाने वाले निष्ठुर संवेदनहीन नेताओं के बारे में बखूबी जानते थे। तभी तो घर में अंगीठी सुलगा बीड़ी का कश खींचते दिनभर बैठे रह जाते पर मजाल है, कभी वोटिंग के दिन वोट डालने बूथ पर चले जायें। सलमा खूब समझाती कि अब्बू हमारी सरकार हम नहीं चुनेंगे, तो सरहद के उस पार से कोई थोड़े ही आयेगा। पर अब्बू डांट लगाकर बहू को चुप करा देते, कहते-<br />
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<br />बेटा, तेरी जितनी उमर होगी उतनी मरतबा तो मैने इस वतन को करवट बदलते देखा है। कितनी सरकारें बदल गयीं, पर सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे। लूट-खसोट कर खा गये वतन को, देखना सब नरक जायेंगे साले, इनको दोजग भी नसीब ना होगी। अरे! वतन के असली दुष्मन सरहद के पार बैठे हैवान नहीं बल्कि भीतर बैठे शैतान हैं, जो खटमल की तरह सफाचट कर खा रहे इस जम्हुरियत को।और आाखिर में अब्बू हमेषा एक पंक्ति गुनगुनाया करते - वतन पर मिटने वालों का नहीं बांकी निषा कोई। <br />
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शेखो मन ही मन विचार करता सोंच रहा था कि उन तंग हालातों में कुछ किया भी तो नहीं जा सकता था। घर की माली हालत ऐसी तो थी नहीं कि कुछ इधर-उधर हाथ-पैर मारा जा सके। रह-रहकर घर की बदहाली की चोंट उन दिनों भीतर तक लहू में उबाल भर देती थी। कितने साल से अब्ब्ूा पंसारी की दुकान चलाते हुये बूढे़ हो गये, पर घर की गरीबी नहीं गयी। बस किसी तरह हांफते हुये चुर्र-चुर्र करती सायकल को आंटते उमर कट गयी। अरे! अब कार-मोटर की औकात नहीं तो कम से कम एक छोटा सा मोपेड तो नसीब हो जाता। एक्सीलेटर दबाकर फुर्र से नमाज पढ़ने मस्जिद को जाते तो खाला भी देखकर खुश हो जाती।सब लोगों से कहती-देखो, शेखो कमाने लगा, उसने लिया है, बेटा हो तो शेखो जैसा। बस यही सोंच कतार में खड़े हो गये और नौकरी लग गयी। अरे वो तो गनीमत है कि नौकरी मिल गयी वरना पहले की तरह लोगों में अब भी वतन के लिये वही जूनून होता तो गरीबों को यहां भी पनाह ना मिलती। अरे! चलो मरने मिटने की कीमत पर ही सही कुछ दिन दो वक्त की रोटी तो नसीब हो जा रही। <br />
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अब्बू शायद ठीक कहते थे, गरीबों की तकदीर में तो सिवाय मरने के कुछ लिखा ही नहीं होता है ... वो चाहे भूख से तड़प-तड़पकर फुटपाथ पर हो या फिर सरहद पर दुष्मनों की गोली का निवाला गटककर। इसीलिये तो पहली बार जब नौकरी के लिये मजमून आया तो अब्बू खूब नाराज हुये थे। उनका गुस्सा तो उस समय जैसे सातवें आसमान पर था। पड़ोस में सबसे कहते फिरते-हम गरीबों के सीने बस थेाड़े ही हैं दुष्मनों के बंदूक की गोली खाने के लिये। ये उड़नखटोलों में घुमने वाले के औलादों को क्या कीड़े पड़े गये हैं? सड़क पर पचासों को रौंदते हुये इनकी छाती को ठण्डक नहीं मिलती, अरे! बहुत मर्दानगी है तो सरहद पर जाकर क्यों नहीं मरते -मारते? जाये दुष्मनों की छाती में बैठकर मूंग दले, तब पता चले..., वहां तो जैसे उनके पोटे कांपते हैं।<br />
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नौकरी में जाने के वक्त भी सलमा ने अब्बू को बड़ी मुष्किल से समझा बुझाकर राजी किया था, वरना वो तो जिद्द पकड़ बैठे थे कि पंसारी की दुकान को ही पुष्तैनी चलाओ, दो वक्त की रोटी अल्ला सबके लिये जुगाड़ देता है। साफ कह दिया था कि जरूरत नहीं है उनके लिये अपनी जान कुर्बान करने की जो गरीबों के जान की कीमत, अपने पैर की जूती के बराबर भी नहीं समझते। ठीक है अल्ला ने गरीबी दी है, तो वो ही कौन सा हीरे-मोती लेकर खुदा के पास जायेंगे। <br />
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वो तो सलमा ही हो तो मनाये, अब्बा रे अब्बा... कितनी मुष्किल से हंसते हुये तब उसने अब्बा को राजी कर लिया था। खिलखिलाते हुये खाला के सर पर गोद रख कहने लगी थी - अब्बू हम गरीबों की छाती की चमड़ी मोटी होती है। गोली जरा देर से घुसती है और फिर वतन पर मिटने वालों को जन्नत मिलता है अब्बू। अल्ला सब देख रहे हैं, करनी का फल सबको मिलता है, यहां नहीं तो उपर। <br />
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तब कहीं बड़ी मुष्किल से अब्बू और खाला को तसल्ली हुई थी। फिर भी देर तक बड़बड़ाते हुये मुझसे कह रहे थे-बेटा! यहां कुत्तों की पूछ परख है पर वतन पर मरने वालों की कोई कद्र नहीं। फिर भी कुछ करने का नसों में खून चुर्रा रहा है तो आर्षद-पार्षद, पंच-सरपंच बन जाओ। पचास सलाम ठोकेंगे, घर बैठे बिठाये सारे काम बन जायेंगे। <br />
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शेखो तांगे में बैठे-बैठे यही सब याद कर रहा था, सोंच रहा था अब्बू को वाकई कितनी समझ थीे। तांगा उबड़-खाबड़ रास्ते पर धीमी गति से चल रही थी और शेखो मन ही मन इन्ही सबको बैठे हुये गुन रहा था। कानपुर से गांव तक लाने ले जाने के लिये शहर में यही केवल एक मामू का तांगा ही तो था, जो किसी तरह जिंदा था वरना इस महंगाई में तो सभी तांगे वाले, घोड़े को दाने खिलाते-खिलाते टें बोल गये। वरना! एक समय गांव में भी तांगों की क्या रौनक होती थी... <br />
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बहुत देर से शेखो खामोष बैठा था, मामू तांगे वाला भी अब शहर के खचखचाते भीड़ से निजात पा चुका था, सो पूछते हुये कहने लगा- अरे बेटा! कैसी चल रही तेरी नौकरी ? रास्ते भर सवारियों के चक्कर में बात ही नहीं हो पायी। इजराईल बता रहा था कि वहां तो रोज काजू और बादाम खाने को मिलती है, मजे ही मजे होंगे। बेटा! पगार तो बहुत अच्छी होगी ना ?<br />
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क्या पगार-वगार मामू ? समझो, बस किसी तरह घर की गरीबी को ओढ़ने के लियेे कथरी मिल गयी। शेखो ने जब कहा तो अंदर की पीड़ा होंठो पर उभर आयी। <br />
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शेखो के मन के भावों को मामू तांगे वाला ताड़ गया, कहने लगा- बेटा, जो मिलता है उससे इंसान को सब्र कहां। चिंता मत करो, अरे! तभी तो तरक्की मिलती है, वैसे किसी ने कहा है, अपनी तनख्वाह और बेगम से मर्द को तसल्ली नहीं होनी चाहिये, वरना लोग उसे पठान नहीं समझते। <br />
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शेखो खिलखिला पड़ा, ऐसा कहते हुये मामू तांगे वाला भी जोर से हंस पड़ा। <br />
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क्या आज के जमाने में तांगे से रोजी मंजूरी निकल जाती है ? शेखो ने मामू से पूछते हुये कहा। <br />
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शेखो की बात सुन मामू थोड़ा मायूस हो गया, कहने लगा- बस बेटा, किसी तरह गुजर चल रहा है वरना अब आज के जमाने में किसी को कहां इतनी धीरज कि रिक्शे-टांगे में बैठकर अपना वक्त बर्बाद करे। लोग चाय की दुकान पर बैठ भले ही घण्टों गपिया लें पर मजाल है, सड़क पर कहीं जाना हो तो सेकेण्ड भर रूक जायें, अल्ला जाने! सब कहां जायेंगे भागते हुये ?<br />
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हां मामू, आजकल फास्ट लाईफ का जमाना है ना, सब एक ही वक्त में सारा काम निपटाना चाहते हैं। <br />
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अरे बेटा! खुदा ने जनम देते समय सबके हिस्से में कितने काम निपटाने हैं, ये भी तो लिखकर भेजा होगा। सब जल्दी निपट जायेंगे तो जल्दी जाना भी तो पड़ेगा-तांगे वाले ने घोड़े की लगाम को जरा कसते हुये कहा। <br />
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बस मामू यहीं रोकना, लग रहा दरवाजे पर अब्बू खडे हैं! अपना बेग और सूटकेश समीप सरकाते हुये शेखो ने कहा। <br />
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अब्बू ने देखा तो दौड़ते हुये तांगे के पास तक आ गये, आंखें भर आयीं, बेटे को गले से लगा देर तक लिपटकर रोते रहे। फफक-फफककर रूंधे गले से कहने लगे-कब से तेरी राह देख रहा शेखो। छोड़ दे बेटा ऐसी नौकरी, आंखें तरस जाती हैं। इन बूढ़ी आंखों को तेरा दीदार चाहिये, क्या करेंगे उन पैसों का जो...। तेरे बिना जिंदगी में कोई रौनक नहीं बेटा....।<br />
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खाला बस अपनी बारी का इंतजार करती पास ही खड़ी दोनों के गले में आंसुओं के बहते धार को देख रही थी और बेगम बड़ी देर से खिड़की से शेखू को निहार रही थी। वो तो गनीमत थी कि बिटिया दौड़ते हुये आकर शेखो से लिपट गयी वरना पता नहीं अब्बू उसे कब छोड़ पाते। <br />
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जैसे ही घर के भीतर आये सलमा मुस्कुरा कर कहने लगी - क्यों, मूंछें क्यों इतनी बढ़ा ली? क्या सेना में बिना मूंछ वाले नहीं होते? <br />
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अरे सलमा मूछें तो मर्दो के होते हैं, ऐसा कहते हुये शेखो जब अपनी मूछों पर ताव देने लगे तो सलमा शरमा सी गयी, कहने लगी- छी!चुभती है और ऐसा कह सकुचाते हुये खाला के कमरे की ओर निकल गयी। <br />
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शेखो सलमा को प्यार से निहारता रहा जब तक वह उसके कमरे से ओझल ना हो गयी।जब लौटकर आयी तो साथ में बिटिया भी थी और ढेर सारे गर्म-गर्म पकोड़े और सेवईयां। कहने लगी-पूरे एक साल बाद तुमको देख रही हूं, मेरा जी ही जानता होगा। कलेजे में पत्थर रखकर पल-पल तुम्हारा इंतजार करती थी। टी.वी.में हर रोज जब समाचारों में देखती कि सेना में इतने लोग शहीद हो गये तो कलेजा कांप जाता था। झट से फोन लगाती, पर तुम्हारा तो फोन ही नहीं लगता और तुम्हारा मेजर... वो तो निपट गंवार है, ऐसे चिढ़ता है जैसे मैं तुम्हे हवा में उड़ाकर ले जाउंगी। अरे! मै भी हिंदुस्तानी पठान की बेटी हूं, छत्तीस इंच का जिगर है, वरना भला काहे भेजती अपने शौहर को सरहद पर ?<br />
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अरे! वो मुआ बदमाश है, वो तो बस... <br />
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सलमा तुम तो बहादुर हो और फिर तुम्ही ने तो मुझे भेजा है, फिर रोती क्यों हो ?<br />
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मैं भला क्यों रोने लगी?<br />
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पिछली बार, जब फोन से बातें कर रही थी तो ... ?<br />
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वो.. वो तो... तुम्हारी याद आ गयी थी ना। वह बोलते हुये शरमा सी गयी। <br />
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झूठी कहीं की? और ये आंखों के नीचे काले धब्बे क्या हैं? कह दो, आंसुओं के नहीं हैं? फिर प्यार से पुचकारते हुये कहने लगा-ऐसे रोते नहीं पगली कहीं की...। <br />
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रोउं ना तो क्या करूं ? ये आंसू ही तो विरहन की दौलत होती है और फिर अब्बू और खाला की हालत मुझसे देखी नहीं जातीं। अब्बू तो तब तक खाना नहीं खाते जब तक तुम्हारे खैरियत की खबर ना लग जाये। सलमा अपनी चोंटी को हाथ की उंगलियों में लपेटने का उपक्रम करते हुये कहने लगी। <br />
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सलमा, मेरा भी मन नहीं लगता वहां, पता नहीं क्यों ? कहीं मुझे कुछ हो गया तो अब्बू, खाला और तुम्हारा ... क्या होगा? मन डर सा जाता है...<br />
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शेखो की पीड़ा इस बार सतह तक उभर आयी थी। <br />
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सलमा शेखो की बात सुन थोड़ी उदास सी हो गयी, झट शेखो के मुंह पर हाथ रख कहने लगी- नहीं, ऐसी बातें नहीं करते..., अल्ला हैं ना! तुम्हे कुछ नहीं होगा। और फिर... पूरा वतन हमारे साथ जो खड़ा है। बाकी लोगों के लिये तो चार पांच लोगों का एक परिवार होता होगा पर हमारे लिये तो पूरा वतन हमारी फेमिली है। उन्होने खिड़की के बाहर नीले आकाश तले दूर तक फैली हरियाली की ओर इशारा करते हुये कहा। <br />
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हां सो तो है... पर डर सा ...<br />
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अब की बार सलमा ने कसकर शेखो का हाथ पकड़ लिया, कहने लगी-ऐसा कह मन को छोटा नहीं करते शेखो। खुद की नजरों में अपना कद कमतर हो जाता है। ये समझ लो हम मिट्टी का कर्ज चुका रहे हैं। ना जाने, कितने सालों से दादे-परदादे के जमाने से इस वतन की मिट्टी का नमक खा रहे हैं, वो तो तुम्हे अल्ला की खैर मनानी चाहिये कि उसने तुम्हे इसके लिये चुना है वरना कई पीढ़ीयों तक लोगों को ये सब नसीब नहीं होता। <br />
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बस सलमा, तुम्हारे इन्ही बातों के सहारे ही तो मैं वहां रहता हूं वरना...<br />
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वरना ... भागकर आ जाते, यही ना ? नहीं शेखो, ऐसा कभी नहीं... वतन से गद्दारी मत करना। थोड़ी तकलीफ तो सब जगह मिलती है, वरना लोग मुसलमानों की नेकी पर सवाल उठा देंगे।<br />
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परिवार के साथ छुट्टियां बड़े मजे से कटने लगी, कभी उसके पसंद की घर में गोष्त बनती तो कभी चिकन पनीर। सेवईयां और इडली तो जैसे रोज का नाष्ता था। दो साल की बिटिया के साथ खेलते हुये उसे घर पर बड़ा मजा आ रहा था। अभी छुट्टियां गुजरे बड़ी मुष्किल से दो-तीन दिन ही हुये थे कि दोपहर मेजर साहब का फोन आ गया। फरमान सुना दिया गया कि तीन दिनों के भीतर उनके रेजीमेण्ट को लद्दाख की ओर कूच करना है। सरहद के उस पार से बड़ी संख्या में आतंकियों ने धुसपैठ कर दी है। अब्बू ने सुना तो खाने का निवाला जैसे हलक में ही अटक गया, खाला रो -रोकर बेहाल हो गयीं। सलमा ने फिर समझाया - अब्बू इस तरह मन छोटा मत करो, अल्ला सरहद पर लड़ने वालों के घरवालों को जन्नत में उंचा दर्जा देता है, ऐसे रोने से तो नेकी पर पानी फिर जायेगा और उपर से अल्ला नाराज होंगे सो अलग। सलमा, अब्बू और खाला के आंसू पोंछने लगी तो खाला रो पड़ी। रोते हुये शेखो से कहने लगी- बेटा, सलमा हमारी बहू नहीं बेटा है, बहुत देखभाल करती है। अल्ला इसको लंबी उमर दे, बड़ी शोणी है। <br />
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दूसरे दिन सुबह मुर्गे की बंाग के साथ शेखो तैयार होकर तांगे की पहली खेप के साथ शहर को निकल पड़ा। अपने रेजीमेण्ट के साथ उसे अगले दिन जम्मू में मिलना था। जम्मू पहंुचने के बाद अपने साथियों के साथ दो दिनों की थका देने वाली सफर काट वह लद्दाख पहुंच गया। वहंा से उसे लेह में रहने का आदेष दे दिया गया, वहां की खूबसूरत वादियां, बड़ी बड़ी पहाडि़यों के बीच बसे हुये छोटे-छोटे घर और उन्ही के बीच सेना के रहने के लिये दूर-दूर में छोटे-छोटे कैंप। शेखो सोंचता कि कभी ना कभी सलमा को एक बार वहां घुमाने जरूर लायेगा। वहां दिन बड़े मजे से कट रहे थे, बारिश के महीने में वहां का अद््भुत आनंद, बस देखते ही बनता था। बीच-बीच में अब्बू, खाला और सलमा से बात भी हो जाती थी। जब बात होती तो वहां की खूबसूरती का जिक्र करना वह कभी नहीं भूलता। <br />
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शेखो और उसके दो सैनिक साथियों को कैंप में पहाड़ी के पास रहने के लिये भेज दिया गया।अभी वहां उन्हे रहते हुये पखवाड़े भर ही बीते थे कि एक रात पूरे लद्दाख क्षेत्र में तेज बारिष होने लगी। जैसे- जैसे अंधेरा होते गया बारिष और तेज होती गयी। सभी अपने -अपने घरों में दुबककर सोये हुये थे, आधी रात का समय था कि अचानक बादल फट पड़ा। पहाड़ों की चट्टाने और मिट्टियां नदियों की शक्ल अख्तियार करती पूरे लेह को बहा ले गयी । मिट्टी के घर मलबे में तब्दील हो गये, पूरा शहर जैसे हड़प्पा की खुदाई से निकले मलबे की तरह सुबह तहस-नहस सा दिखायी देने लगा। रात भर चीख पुकार मचती रही, कोई कहीं भागता कोई कहीं । एक ही राते के उस जलजले ने जैसे सब कुछ बर्बाद करके रख दिया, बाप बेटे से बिछड़ गया और बेटी अपनी मां से। <br />
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पूरा लद्दाख सुबह-सुबह देष भर के अखबारों की सुर्खियां बन गयीं, सलमा ने पढ़ा तो जैसे होष उड़ गये। उसके मोबाइल फोन से लेकर उसके दिये सेना के टेलीफोन नंबर पर उसने संपर्क करने की कोषिष की लेकिन किसी भी स्थानों पर उसका कोई संपर्क ना हो सका, उस समय पूरे लद्दाख का संपर्क देष से टूट चुका था। सलमा अब्बू को बिना बताये कुछ देर तक तो हड़बड़ती रही लेकिन अब्बू को आखिर पता चल ही गया, पूरे गांव में खबर जंगल के आग की तरह फैल गयी। आस-पड़ोस के लोगों को जैसे-जैसे खबर लगीे घर पर पड़ोस के दो चार लोग इकट्ठे भी होेेे गये। देर रात पड़ोस के बुजुर्गों ने कोशिश की तो दिल्ली हेडक्र्वाटर से बड़ी मुष्किल से संपर्क हो सका, वहां पता चला कि दर्जन भर से अधिक जवान लापता है उसमें से एक शेखो भी है। अब्बू तो सुनते ही बेहोश हो गये, खाला का रो-रोकर बुरा हाल था।सबने तसल्ली देने की कोषिष की कि खोज चल रही है, बता रहे हैं जल्दी मिल जायेंगे, पर दिन बीतते गये, कुछ पता ना चला। <br />
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इधर महीने दो महीने बीत गये ना सेना के हेडक्र्वाटर से कोई मुफल्लिस जानकारी आयी और ना ही सलामती की कुछ खोज खबर ही मिल सकी। धीरे-धीरे अब्बू और खाला के आंखों के आंसू बेटे की याद में रोते हुये सूख गये। सलमा भी सबको ढाढस बंधाती पत्थर सी हो गयी। कभी वह खाला को सम्हालती तो कभी अब्बू की बूढ़ी आंखों को दिलासा देती, अपने गम और दुखों को बांटने के लिये उसके पास तो जैसे वक्त ही नहीं था। <br />
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सेना के रेजीमेण्ट से हाल पूछते -पूछते वह थक गयी ना कोई शोर संदेश आया और ना कोई पता ठिकाना। महीने दो महीेने तक तो कूदती-फांदती रही पर आखिर में उसका भी धैर्य जवाब देने लगा। पास के जमा पैसे धीरे-धीरे खत्म होने लगे, कमर तोड़ महंगाई में रोज के खाने -पीने के खर्च और गुहार लगाने रोज शहर जाते हुये आखिर खाली घर में जमा पैसे कब तक चलते? शेखो इस बार घर आया था तो उसने अब्बू की दुकान भी बंद करा दी थी। शेखो की नौकरी से पहले तब वही केवल घर में कमाई का एक जरिया हुआ करती थी। <br />
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इधर घर की हालत दिन ब दिन खराब होती गयी। अब तो ना घर में खाने को पसेरी भर चांवल बचे और ना खाला के खखारते गले में दो बूंद दवा उतारने के लिये आने भर पैसे। बिटिया मुर्रे और पीपरमेंट के लिये कभी रोयी तो डपट कर चुप करा दिये पर अब्बू के बीड़ी के चुलुक का क्या करे? कभी किसी साड़ी के अंाचल में ढूंढ़ते हुये गांठ से एकाध आने निकल आये और अब्बू को दे दिया तो अब्बू रो पड़ते- नहीं बेटा, तेरा अब्बू इतना गुलाम नहीं है। अब्बू की बात सुन सलमा की आंखें नम हो जातीं।<br />
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<br /><br />सलमा अब्बू को लेकर रोज शहर के चक्कर लगाती, कौन तहसील साहब, कौन कलेक्टर, कौन बाबू, कौन चपरासी। सबके सामने हाथ जोड़कर दोनो गिड़गिड़ाते लेकिन किसी को क्यों भला इतनी परवाह... थक-हार जब शाम खाली हाथ दोनो घर लौटकर आते तो रास्ते में अब्बू खुद को खूब कोसते, कभी-कभी सलमा पर बिफर जाते, कहते- <br />
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<br />
बेटा, आज तक सिवा खुदा के कभी किसी के सामने इस पठान का सर नहीं झुका, पर अब तो इन हरामजादों के पैर की जूती छूने में भी गुरेज नहीं। बस किसी तरह कुछ सब्र और तसल्ली के दो लब्ज मिल जायें पर लगता है वो भी नसीब नहीं...। <br />
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सलमा कभी बातों ही बातों में कह देती- थोड़ा धीरज रखो अब्बू, तो उनका गुस्सा एक ही लब्ज में निकल आता। कहने लगते-बेटा इस आजाद हिंदुस्तान से अंग्रेजों की गुलामी अच्छी थी। <br />
<br />
<br />
ऐसा नहीं था कि वतन के लिये अब्बू के मन में प्यार नहीं था, उन्होने दस साल की उमर में ही आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था, पर आजादी के बाद कभी गुजर के लिये पेंषन लेना मंजूर नहीं किया। कहा करते -वतन के लिये ये हमारा फर्ज था फिर उसकी कीमत क्यों? भूखों मर गये पर मजाल है कभी किसी के सामने, चवन्नी के लिये एक बार भी हाथ फैलाया हो। पर वक्त और हालात को देख धीरे-धीरे मन, पूरी व्यवस्था से उचटते गया और अब तो हालत ऐसी हो गयी कि कोई वतन के प्रति हमदर्दी दिखा देता, तो भड़क उठते। वे मंच पर नेताओं के मुंह से भाषणबाजी सुनते तो कहते कि ये देखो, ढोंगी पाखण्डी और बहुरूपियों को। वे अक्सर कहा करते- हमारे जमाने में बहुरूपिये आते थे, पल-पल में भेष बदलते और पैसे मांगते। खूब मजा आता देखकर, पर जब से इन नेताओं और अफसरों ने अपना रूप बदलना शुरू किया तब से उन बेचारों का धंधा ही चैपट हो गया। <br />
<br />
<br />
सलमा के सब्र का बांध भी अब धीरे-धीरे टूटने लगा था। एक शाम अब्बू ने कहा- बेटा सलमा! इस तरह रो धोकर कब तक गुजारा करते रहेंगे। मेरे बाजू बूढ़े जरूर हुये हैं पर अभी ताकत मरी नहीं है, इन हाथों में अभी भी दम बाकी है। <br />
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<br />
सलमा ने सुना तो आंखें भर आयीं कहने लगी - नहीं अब्बू, आप काम करोगे तो मैं शेखो को क्या मुंह दिखलाउंगी, उन्होने आप लोगों की हिफाजत का मुझे जिम्मा सौंपा है। मैं कल से सिलाई सीखने जाउंगी, दो रोटी के लिये जुगाड़ हो जायेगा, आप चिंता मत करो। <br />
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<br />
लेकिन अब्बू भला कहां मानने वाले थे, सुबह निकल पड़े ईंट भट्ठे की ओर। पंसारी की दुकान खोलने से पहले अपनी जवानी में इन्ही ईंट भट्ठियों में ईंटे ढोकर गुजारा किया करते थे। अब्बू को जाते देखा तो खाला से भी रहा नहीं गया, वो भी उनके साथ हो ली। अब्बू दिन भर ईंट भट्ठे में काम करते और शाम होते-होते लौट आते, लेकिन उन बूढ़े हाथों में ताकत को आखिर वे दोनों कितने दिनों तक जिंदा रख पाते। एक हते में ही पूरी तरह थककर चूर हो गये लेकिन सुस्ताने का तो े उनके पास वक्त भी नहीं था। घर के लिये दो जून की रोटी का सवाल था। एक दिन अचानक ईंट भट्ठे से ईंट उठा रहे थे कि पूरा ईंट का भट्ठा भरभराकर गिर पड़ा, खाला तो वहीं ईंट भट्ठे में ही दब गयी, अब्बू को बड़ी मुष्किल बाहर निकालकर सरकारी अस्पताल ले जाया गया।<br />
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सलमा पर तो जैसे वज्रपात सा हो गया, रो-रोकर बुरा हाल। कोई रिष्ते-नाते होते तो कुछ मदद की उम्मीद भी होती, लेकिन उनका तो कहने को कोई भी अपना नहीं था। अब तो हालत ऐसी हो गयी कि सलमा के पास ना तो खाला के कफन के लिये कपड़े खरीदने गांठ में एक आने थे और ना अब्बू के इलाज की कोई औकात ही बची थी। आस-पड़ोस से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन वक्त पर कोई काम ना आया। सलमा को वक्त की परख नहीं थी, उसे मालूम ही ना चला कि परिस्थितियां कितनी बदल गयीं। अब गांवों में वो दिन थोड़े ही रहे कि लोग किसी के घर आफत देखे और कूद पड़े।वो तो बीतेे जमाने की बात हो गयी कि जब गांव में किसी को उल्टी-दस्त भी हो जाती तो लोग चैपाल पर बैठ खोज खबर लेते पूरी रात बिता देते। अब तो हालात गांव के ऐसे हो गये कि लोग मूर्दे की जेब से भी पैसे चुरा लें। किसी के घर कुछ आफत आयी नहीं कि पड़ोसी की निगाह जमीन-जायदाद पर गड़ जाती है, लगता है जैसे पूरी दुनिया उठाकर वे अपने साथ ही ले जायेंगे।<br />
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इधर घर पर मुर्दा और उधर अस्पताल में अब्बू का अधमरा शरीर। अब तो सलमा की हालत धण्टे दो धण्टे में ऐसी हो गयी कि लगने लगा कि कहीं खाला को बिना कफन के दफन ना करने पड़ जायें। लेकिन सोंचने लगी कि ऐसा करेगी तो शेखो को क्या मुंह दिखलायेगी, शेखो को जब पता चलेगा तो मेरा मुंह भी ना देखेगा। सलमा ने सुन रखा था कि इंसानों के खून भी बिकते हैं जगह-जगह एजेण्ट हैं, सौ पचास में कोई भी खरीद लेता है। किसी से पूछा तो एजेण्ट का भी पता चल गया। खाला के कफन का सवाल था सो एक एजेण्ट के पास तुरत-फुरत में खून निकलवाने पहुंच गयी, जो सौ रूपये मिले उसके कफन के कपड़े खरीद कर ले आयी। खून की कीमत पर कफन के कपड़े का इंतजाम हुआ भी तो कंधे देने के लिये चार आदमी ढूढ़ने पड़ गये। अब पूरे गांव में चार पठानों का ही तो घर था, उसमें भी एक ठहरा तांगे वाला, मिट्टी में जायेगा तो क्या कमायेगा, क्या खायेगा ? बाकी बचे दोनों को कारोबार से फुर्सत नहीं। कुछ गैर पठानों से मदद मांगी तो बड़ी मुष्किल से नाक भौं सिकोड़कर चार झन राजी हुये भी, तो ऐसे अहसान जताने लगे मानों उन्हे कंधा देने जन्नत से अल्ला आयेंगेे। <br />
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इधर खाला का बड़ी मुष्किल से दफन हुआ भी तो उधर अब्बू की हालत रोज बिगड़ने लगी, दवाई के लिये रूपये का इंतजाम करने सलमा इधर से उधर भागती रही। एक बार फिर मन हुआ कि कलेक्टर साहब से मिलकर अपनी दुखभरी कहानी सुनाये, शायद कुछ आस की किरण नजर आ जाये। बस मन में विचार आते ही धड़धड़ाते हुये बिना परमिषन लिये घुस गयी दतर के भीतर। संतरी नाराज हुआ, तो होने दो। उसे काहे की फिक्र अब फांसी में तो नहीं लटका देगा, जितना बिगड़ना था, बिगड़ गया अब इससे ज्यादा और क्या बिगड़ेगा। साहब भी सलमा को आफिस के भीतर अचानक देख भौंचक्के से रह गये। कुछ देर नाराजगी से घूरकर देखा, फिर अपना काम करने लगे। <br />
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सलमा तो जैसे सब कुछ एक ही बार में सुना डालना चाहती थी, रतार से गिड़गिड़ाते हुये सब कुछ सुना डाला पर साब की नजरें मेंज से उपर ही ना उठी। बीच में ही जब बात अधूरा छोड़ साब जाने लगे तो सलमा ने पैर पकड़ लिया, कहने लगी- <br />
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साब! अब्बू बहुत बीमार हैं, उनका बेटा वतन की हिफाजत के लिये लड़ने गया है। वो होता तो जरूर कुछ करता, कुछ कर दो साहब वरना... मेरे अब्बू ... ।हाथ जोड़ती हूं साहब, उसके बेटे का जलजले में अब तक कुछ पता नहीं, मैं आयी थी ना... आपके पास .... याद होगा ना... । <br />
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कलेक्टर साहब के पास वक्त ही नहीं था, चलते-चलते कहने लगे-मुझे एक बहुत जरूरी मीटिंग में जाना है, तुम अप्लीकेशन छोड़ जाओ, हम देखेंगे क्या हो सकता है...।<br />
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लेकिन दो चार दिन क्या हते भर हो गये कुछ जवाब नहीं आया, इधर डाॅक्टरों ने कह दिया कि दिये दवाईयों और इंजेक्षन को जल्दी से खरीदा ना गया तो कुछ भी कहना मुष्किल है। सलमा बिटिया को लेकर बरसते भींगते पानी में कभी इधर भागती कभी उधर। दौड़-धूप करते हुये इसी आपाधापी में दो साल की बिटिया को डबल निमोनिया हो गया। सलमा बेबस सी हो गयी, आखिर क्या करती, उसको भी अब्बू के साथ अस्पताल में भर्ती करा दी।<br />
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अब तो वह टूट सी गयी, रात-रात भर जागकर दोनों की देखभाल करती, सुबह होते ही इधर-उधर जुगाड़ में फिर भागा-भागी। कभी घर से रोटी बना ले आती तो कभी अस्पताल में मिलने वाले बे्रड से ही जैसे तैसे शरीर में प्राण बचाने के लिये यत्न करती हुई अल्ला से खैरियत की दुआ मांगती। पर अब खुदा के पास तराजू तो हैं नहीं कि नापकर थेाड़े दुख और थोड़ी खुशी दोनो साथ-साथ दे दे । जिसको दिया, जो दिया छप्पर फाड़कर। <br />
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अचानक दूसरे दिन बिटिया का स्वास बढ़ने लगा, नाड़ी की गति धीमी हो गयी और सुबह होते-होते प्राण उखड़ गये। इधर अब्बू को चार दिन से होश नहीं था और उधर बिटिया की एक और लाश, सलमा दिल पर पत्थर रखकर सब भोगती रही पर हिम्मत का दामन नहीं छोड़ी। उसे उन क्षणों में अब्बू की बात याद आती कि सचमुच सरहद पर मिटने वालों की बीबीयां अपने शौहर के विछोह के साथ सारी दुनिया से तनहा अकेले लड़ती है। पूरा वतन उसे ऐसे अजनबी की तरह देखता है जैसे वह अफ्रीका के जंगलों से भटककर यहां पहुुंच गयी हो। <br />
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आफत आने पर मषविरा देने वाले पचार ठहरे, किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ। किसी ने सलाह दी कि अब्बू के लिये इतने महंगे इंजेक्शन रोजी मंजूरी के पैसे से नहीं लग पायेंगे, उसके लिये लंबी रकम चाहिये। या तो कोई अहुंच-पहुंच वाला आदमी भिड़ाओ जो कलेक्टर कमीष्नर से मिलकर पैसे पास करा सके या फिर रात भर मुजरा कर पैसे कमाओ और उस पैसे से दिन में इलाज करा लो। तवायफ की जिंदगी में दोनेा मिलते हैं, पैसे भी और पहंुच वालों से जान-पहचान भी। सलमा ने इंकार करते हुये साफ कह दिया- मेरे अब्बू ऐसे पैसे से इलाज नहीं करवायेंगे, उनको पता चलेगा तो वेा मरना पसंद करेंगे ...। जब अगल-बगल में बैठी औरतें कहने लगती कि- अरे! पैसे में कोई थोड़े ही लिखा होता है कि कहां से आये हैं तो ... सलमा अपने उसुलों और तहजीब को लिये वहां से चुपचाप किनारे हो लेतीं।<br />
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इधर शेखो उस भयानक जलजले से सड़क के रास्ते बने दरिया में बहते हुये सरहद के उस पार पहुंच गया था। चट्टानों की ठोकरों से दो-तीन दिनों तक तो बेहोश पड़ा रहा, लेकिन जब होश आया तो अपने को एक सुनसान जंगल में पाया। इधर-उधर रास्तों की तलाष करता किसी तरह जंगल के फलों से गुजारा करते हुये एक पगडंडी रास्ते के सहारे उसके कदम आगे बढ़े तो नीली शेरवानी पहने कुछ बंदूकधारी दिखे जिनके हाथों में राकेट लांचर और बड़े-बड़े हथियार थे। शेखो को यह समझते देर ना लगी कि वह सरहद पार आतंकियों के चंगुल में फंस गया है। ये वही घुसपैठिये थे जो सीमापर से भारत में आतंक का कारोबार किया करते थे। शेखो को देखते ही वे कुत्ते की तरह झपट पड़े और पकड़कर एक केंपनुमा स्थान में ले आये और फिर एक मदरसे में छोड़ दिये, मदरसा क्या वह तो एक आयुधषाला थी जहां बड़े-बड़े राकेटलांचर सहित पिस्टल और गोले बारूद के खेप ट्कों से रोज उतारे जाते थे।उसे तरह-तरह की यातनायें दी गयी। बदन पर मिर्ची का लेप लगा उस पर रोज कोड़ो की बरसात की जाती और फिर कुछ दिन ठीक होने तक खुला छोड़ दिया जाता। उसे हिंदुस्तान की सरजमीं और सेना का भेद जानने के लिये कठिन से कठिन यातनाएं दी गयी लेकिन शेखो टस से मस ना हुआ।साफ-साफ कह दिया कि वह हिंदुस्तान का पठान है, मर जायेगा पर अपना ईमान नहीं बेचेगा। मौका देख एक दिन आतंकियों की गैरहाजिरी में भारी बरसात के बीच जब सबकुछ पानी से लबालब था चकमा देकर चंगुल से छुट भारत आ पहुंचा। <br />
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सलमा शेखो की राह तकते हुये थक गयी, इधर अब्बू की हालत रोज-रोज बिगड़ते गयी और एक दिन दवाईयों के लिये संघर्ष करते हुये अब्बू इस दुनिया से जन्नत को कूच कर गये। सलमा के समक्ष कफन का प्रष्न फिर से एकबार मुंहबायें खड़ा था। पिछली बार जवानी के नसों में बची ताकत इस बार जिंदा नहीं थी, तरह-तरह की बीमारियों ने गरीबी में घेर रखा था सो इस बार पुराने पैंतरे भी काम ना आ सके । एजेण्ट ने खून खरीदने से मना कर दिया। <br />
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अब्बू के दफन का प्रष्न था सो वह किसी भी हालत में उसे सलीके से करना चाहती थी, अब्ब्ूा बड़े स्वाभिमानी थे, कह गये थे मरने के बाद मेरे मुर्दे को उन कायरों के हाथ मत लगने देना जो जीते जी हमारे काम ना सके। पिछली बार जब शेखो घर आया था तो एक बड़ा सा तिरंगा गांव की चैपाल पर फहराने के लिये ले आया था। सलमा ने उसमें अब्बू को लपेट सायकल से लाश को कमर में बांध निकल पड़ी कब्रिस्तान की ओर। रास्ते भर लोग देख तरह-तरह की बातें करते, पर सलमा ने एक परवाह ना की। <br />
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वापस जब घर लौटकर आयी तो घर पर हथकड़ी लिये पुलिस खड़ी थी। हथकड़ी पहनाते हुये तरह-तरह की पूछा-पाछी की गयी। एक महिला हवलदार ने तो उसे एक तमाचे जड़ दिया, बुराभला सुनाते हुये कहने लगी- बदतमीज औरत, तुझे तिरंगे का अपमान करते हुये शर्म नहीं आयी। थेाड़ी बहुत तो पढ़ी होगी, ये तो मालूम होगा ना कि एक आम इंसान को तिरंगे में लपेट दफन नहीं किया जाता। यह शहीदांे केा नसीब होता है। गंवार कहीं की... <br />
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सलमा कुछ कहना चाहती थी लेकिन हिम्मत नहीं बची थी, वह उसके तमाचे से आहत होकर हथकड़ी लगे हाथों की भुजाओं से गाल को सहलाने का प्रयत्न करने लगी। कुछ कहने का प्रयत्न करने की, लेकिन आवाज ही बाहर ना निकल सका।उसके होंठ बुदबुदाने लगे, शायद वह कहने का प्रयत्न कर रही थी कि मेरे अब्बू शहीद थे, सरहद पर लड़ने वाला तो केवल एक बार शहीद होता है, पर उसके परिवार के लोग इस वतन के भीतर अपने हक के लिये लड़ते हुये हजार बार शहीद होते हंै। वो सही में तिरंगे के कफन के हकदार थे। <br />
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इसी बीच उसका बुदबुदाना एक दूसरी महिला हवलदार को नागवार गुजरा और उसने जोर का एक डंडा उसके सिर पर मारा, वह बेहोश होकर गिरने लगी। ठीक उसी क्षण शेखो अपने जीवन का एक जंग जीतकर तांगे से उतरा और घर पर भीड़ को देख, उस भीड़ को चीरता हुआ सलमा के पास पहुंच गया और उसके मुर्छित शरीर को अपनी बांहो में समेट लिया।<br />
------------------------------------------------</div>राकेश कुमारhttp://www.blogger.com/profile/08397280715413909061noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-5944616234087359061.post-45688553020417520072011-10-24T22:25:00.001-07:002012-01-13T02:50:30.927-08:00आओ लौट चलें...आओ लौट चलें...<br /><br />सेठ खजानसिंह अब गांव के धन्ना सेठ बन गये थे, पूरे गांव में तूती बोलती थी। चालीस सालों में अपने दम पर पैसे इकट्ठे किये तो नाम, पद, प्रतिष्ठा सब कुछ देखते-देखते बदल गयी, वरना एक समय तो बाप के जमाने में बहनों के ब्याह करते हुये पूरा घर कंगाल हो गया था। पैसे पास आये तो बीते सालों में पूछ-परख इतनी बढ़ी कि गांव के प्रधान से लेकर हाकिम बनते तक देर ना लगी। कहते हैं धन धरावै तीन नाम-परसु, परसराम, पुरूषोत्तम। जैसे-जैसे संपत्ति पास आती गयी, गांव का खजरू अब सेठ खजानसिंह हो गया। पढ़े-लिखे तो थे, लेकिन दरिद्रता ने कदर ताउम्र आने भर की ना की। पर जैसे-जैसे पैसे पास आते गयी, कद काठी भी बढ़ती गयी।गांव में कोई भी सरकारी मुलाजिम मजाल है बिना इनके पूछे पग धर दे। पत्नी लक्ष्मी भी इस रसूख पर गर्व करते अघाती ना थी। पास सब कुछ था, धन, संपत्ति, ऐश्वर्य सब, पर यदि कुछ नहीं था तो वह था वंश को प्रवाहमान रखने और इस बुढ़ापे में लोटे भर पानी परोसने के लिये एक पुत्रवधू और यही चिंता उन्हे हाय के रूप में पिछले कई वर्षों से लगातार खाये जा रही थी। बेटा चैत में ही चालीस पार कर चुका था, पर बेटे की हाड़ में हल्दी रचा देखने की लक्ष्मी और सेठ खजानसिंह की ख्वाईश अब तक पूरी ना हो सकी थी। <br /><br />सेठ खजानसिंह पिछले दशक भर से अपने लाडले इकलौते संतान के लिये एक वधू की तलाश कर रहे थे किंतु ना तो बेटे के ग्रह नक्षत्रों में शुक्र की दशा-महादशा का ऐसा कोई योग आया और ना ही बदलते हुये सामाजिक परिवेश में कभी कोई ऐसा संयोग ही बैठा कि कोई भी लड़की का पिता उसके वैभव और ऐश्वर्य के समक्ष सहज समर्पण कर इस ढलती उम्र में बहू के हाथों भोजन पाने की उसकी मुराद पूरी कर दे। ऐसा नहीं था कि सेठ खजानसिंह के बेटे में कोई खोट रहा हो, पढ़ा लिखा अच्छा खासा छः फीट का मजबूत गोरा नारा इकलौता बेटा था। शरीर से स्वस्थ और आदत व्यवहार में भी शालीन। पेशे से इंजीनियर था सो अलग परंतु इन सबके बावजूद बीते दस सालों में बेटे की तकदीर को कोई पड़ाव रास ना आया। ऐसा भी होता कि सेठ खजानसिंह में इकलौते बेटे का गुमान हो या धन-दौलत की कोई हेकड़ी रही हो जिसके कारण स्वयं के लड़के पक्ष होने की अहम् की तुष्टि के लिये, घुटने तले किसी कन्या के पिता के दीन-हीन करूण रूदन की बाट जोह रहे हों तो वह भी नहीं था, जहां जब, जिस किसी विवाह योग्य कन्या का शोर पता चलता किसी मध्यस्थ को साथ ले ठौर-ठिकाना पूछते, देहरी खटखटाने में जरा भी संकेाच ना करते। ना कभी अमीर गरीब का भेद और ना ही ऊंच-नीच का भ्रम। बस किसी तरह वंश को प्रवाह का आधार मिल जाये, यही कामना लिये पिछले कई वर्षों से शहरों और गलियों की खाक छाना करते परंतु बीते वर्षों में कोई भी प्रयास किसी सार्थक परिणाम पर ना पहंुच सका। इस प्रौढ़ावस्था में पुत्रवधू पाने की आष लिये दौड़भाग करते हुये कभी-कभी तो वे बेहद हताश हो जाते। लेकिन आखिर किया भी तो कुछ ना जा सकता था... ? अब लड़कियां कोई बाजारों में बिकने वाली गुड्डे, गुडि़यों की तरह तो रह नहीं गयी थी, कि गये और जेब से पैसे चुकता कर मनपसंद खरीद ले आयेे और ना ही इतनी सहज ही थी कि जब जी चाहे और जितना चाहे, तुलसी के पौधे की तरह किसी के घर- आंगन से उखाड़ अपने आंगन में खोंस दिये।<br /><br />सब कुछ होते हुये भी दिन, व्यथा में जैसे-तैसे बीत रहे थे। चिंता में बाप खजानसिंह की कमर झुकती जा रही थी। मां के चेहरे पर झांइयों ने कुछ अरब सागर की लहरों की तरह आकार-प्रकार बना लिये थे। उम्र ढलान पर थी, स्वास्थ्य प्रतिकूल रहने लगा था, किंतु उम्मीद की जवानी ने अभी हार ना मानी थी। तभी तो सेठ खजानसिंह जब कभी कहीं कोई लड़की देखने जाते, पत्नी लक्ष्मी कौतुहलभरी निंगाहों से देहरी पर बैठ राह तकते हुये किसी उम्मीद में सांझ ढलने तक घंटों प्रतीक्षा किया करती। इस बीच कभी बिल्ली पलक झपककर मलाई मार गयी या फिर पड़ोस का झबरू कुत्ता किचन में घुसकर रोटी चुरा खा ले, उसे भनक तक ना लगती। वह तो बस ऐसे सपने बुनती हुई कल्पना में खोयी होती जैसे अब-तब बेटे के ब्याह होने ही वाले हैं और खुशी के आंसू जब सपनों में फेरे पड़ते देख अचानक झरझराकर गिरते तो लगता मानो पोते ने गोद में बैठ सू ... सू कर अंाचल गीली कर दी हो। <br /> <br />आज खजानसिंह दसीं बार लड़की देखने गये थे, सुबह से सुखद समाचार की आश लिये प्रतीक्षा में लक्ष्मी ने चूल्हे पर हांडी भी ना चढ़ायी थी। रह-रहकर घड़ी के कांटे की तरफ ध्यान जाता और ऐसा लगता जैसे बस में हो तो हाथ से घुमाकर कांटे, छः पर लाकर रख दे। अंधियारा हो चुका था। आकाश पर छिटकी हुई चांदनी ऐसे प्रतीत हो रही थी, जैसे चंद्रमा के उदय होने की प्रतीक्षा में किसी नवयौवना ने थाल में फूलों को पंक्तिबद्ध सा सजा रखेे हों। लक्ष्मी, आंगन में लगे तुलसी के पौधे में दिये जला प्रतीक्षा में आंचल फैला देहरी पर बैठ गयी, थोड़ी उंघ आ गयी, लेकिन खजानसिंह के खखारने की आवाज ने जब तंद्रा भंग की तो उत्सुकता के मारे झटपटाकर उठ बैठी। कौतुहल से पास तक पहुंच गयी, लेकिन पति के चेहरे पर छलकते मायूशी को देख विचलित सी हो गयी, मन एक बार फिर उद्विग्न हो गया, पारा सिर के उपर तक चढ़ गया, खिसिया सी गयी। तन-मन में आग सी भुरभुरी होने लगी। मन ही मन भुनभुनाते हुये कहने लगी- अरे! दस साल में एक बहू ढूढ़ पाने की कूबत ना बची तो काहे का मूछों पर ताव देतेे झूठी मर्दानगी बघारते फिरते हैं, वृंदावन चले जाते भजन-पूजन करते। पर मंुह फुटकार डर के मारे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। क्या पता कब पीछे गोटानी से कोचक्की मार दे, हाथ पैर ढीले जरूर हो गये पर वो मर्दों वाली ऐंठ अभी गयी कहां।वह देर तक बुदबुदाते रही.... हूं...बड़े भट्ट विद्वान बनते हैं, बेटे की दाढ़ी मूछों पर सफेदी छिटक आयी पर इन्हे आज तक सुध नहीं। दिन भर अखबार और दुनियाभर को सलाह बांटने से फुर्सत मिले तब तो ना...।<br /><br />लक्ष्मी को इस तरह भुनभुनाते देख सेठ खजानसिंह की त्यौरियां चढ गयी, लाठी को दालान पर पटक गुस्से से बिफर पड़े, कहने लगे-क्या बुड़बुड़ा रही हो? जब देखो तब तुम्हारा यही किस्सा, सुकुन से बैठ तो लेने दिया करो। आकर दम भी नहंी भरे कि हो गये शुरू...। <br /><br />मैं क्यों बुड़बुड़ाने लगी ? मैं तो देखते ही समझ गयी थी कि ये भी राजी नहीं हुये होंगे। सब जानती हूं ... बस बेटे को साठ साल का कर दो, तुम्हारे भी कलेजे को ठण्डक मिल जायेगी। <br /><br />हां मैं तो तुम्हारे बेटे का दुश्मन जो हूं ना...!<br /><br />और नहीं तो क्या ? देखते नहीं जवानी बिदकने लगी है... गाल चिपटने लगे हैं।नाक पर झांइयां आ गयी, पर तुम्हे वह सब कहां दिखेगा। किसी और के छोरे की तरह होता तो अब तक मुंह पर कह दिया होता, पर मेरा बेटा है आज तक जुबान भी ना खोली। <br /><br />तो क्या करूं ? कहां जाउं ? किसी की बेटी चील कौओं की तरह झपटकर ले आउं ? <br /><br />हां हां ... एक तुम्हे ही ना मिल रही वरना सबकी हो गयी। पुष्पा के बेटे का ब्याह हुआ ? लक्षम्मा के दोनों बेटों की शादी हुई ? ओ बजरू अनपढ़ गंवार की काया पीली हुई कि नहीं?<br /><br />अब मेरा मुंह मत खुलवाओ ! कैसे हुई ये तुम्हे भी पता है। खजानसिंह ने अंगोछे से मुंह पोंछते हुये कहा। <br /><br />हां हां... दुनिया में आग नहीं लग गयी है। तुम्हारे ही मन में भरम है। खुद भी कुंठा पालकर रखते हो, मुझे भी जीने नहीं देते, बार-बार कोसते रहते हो। अरे बेटी ना लिये तो क्या बेटे के लिये बहू ना मिलेगी, इतने अकाल नहीं पड़ गये छोरियों के। <br /><br />ठीक है ना अगली बार तुम भी साथ चलना, तुम्हे भी पता लग जायेगा। <br /><br />हां. हां । मुझे ले चलना। देखना चट मंगनी पट ब्याह ना की तो ... मेरा नाम भी लक्ष्मी नहीं । <br /><br />अब तक खजानसिंह सोफे पर पैर पसार आराम की मुद्रा में बैठ चुके थे। लक्ष्मी भी जले हुये कंडे के गरम राख की तरह जल-भुनकर थोड़ी ठंडी हो चुकी थी। सेठ खजानसिंह पास रखे गरम चाय के प्याले को होंठ पर ले जाते हुये अतीत में खो गये। उसे बीते जमाने के वे दिन याद आने लगे जब लड़कियां गली-कूचों में मारी-मारी फिरती थीं। दुल्हे की तलाश में लड़की के पिता के चप्पल घिस जाया करते। ब्याह होने के बाद भी लुगाई की खूबसूरती से मन ना भरा या कानी-कुबड़ी, लंगड़ी हो गयी तो दूसरी को सौतन बनने मंे भी परहेज नहीं। और कभी किसी पुरूष को विधुर बनने का सौभाग्य मिला तो फिर तो क्या कहने होते। एक मर गयी तो दूसरी, दूसरी मरी तो तीसरी, चैथी और पांचवी तक। गबरू महराज ने सात ब्याह रचाये थे, और वो दर्जी ढक्कन मियां! बाप रे बाप ग्यारह! सबके अपने-अपने नखरे, अपने-अपने स्वाद। वाकई तब मर्दों के क्या जलवे होते थे! लेकिन देखते-देखते इन चालीस सालों में समय कितना बदल गया, लड़कियां तो समाज से उसी तरह विलुप्त होने लगीं जैसे घरों से गौरैया के घोसले। खजानसिंह यही सब सोंचते-बिचारते सोफे पर बैठे हुये थे। <br /><br />लक्ष्मी भी चूल्हे पर तवा रख रोटी सेंकते-सेंकते कहीं विचारों में खो गयी, मन खिन्न सा हो गया। बेटे की ढलती उम्र की चिंता बार-बार हुदालें मारने लगी। मन में बुरे खयाल आने लगे, एक प्रकार से डर सा लगने लगा कि कहीं बेटा सचमुच कुंवारा बूढ़ा ना हो जाये। उसे अपने ब्याह के दिन याद आने लगेे, स्मरण आ रहा था जब उसके खुद के ब्याह हुये तो वह पंद्रह की भी नहीं थी, मुन्ना के बापू तो बमुश्किल सत्रह के रहे होंगे पर आज तो बेटे की पैंतीस पार होने के बाद भी ना कुछ ठौर ना ठिकाना। भगवान जाने कब होगा, होगा भी कि नहीं ? अतीत के कड़वे पृष्ठ चलचित्र की भांति आंखों के सामने घूमने लगे। अस्थिर और उद्विग्न मन जैसे उन क्षणों में बार-बार सोंचने लगा कि कहीं वाकई बेटी ना लेकर उसने कोई अनर्थ तो ना कर डाला। लेकिन अगले ही क्षण मन अनेकानेक तर्क उपस्थित कर भीतर पश्चाताप के उठते आवेग को रोकने का प्रयत्न करने लगी। मन ही मन कहने लगी- नहीं! उसने कुछ भी गलत नहीं किया है। आखिर कौन लेता, इस जमाने में बेटी की सुरक्षा की गारंटी! देख तो रहे ना जमाना कितना खराब आ गया। समाज के दरिंदे और गिद्ध जीना दूभर कर द रहे। उपर से विवाह लायक होते ही पाई-पाई जोड़ जिंदगी भर की बाप की कमाई पल भर में फुर्र। तब भी चलो उम्र भर सुरक्षा की गारंटी तो मिले। पर वो भी नहीं... क्या पता? ब्याही बेटी का दुख कब मां-बाप के बुढ़ापे में घुन की तरह घुसकर अंदर खोखला कर दे। वरना भला किस मां को इच्छा नहीं होती कि उसकी भी एक प्यारी सी बिटिया हो। <br /><br />लक्ष्मी यही सब उधेड़बुन में लगी थी कि अचानक टेलीफोन की घण्टी घनघना उठी। खजानसिंह ने फोन उठाकर बात की तो जैसे माथे की शिकन कुछ देर के लिये कम हो गयी।<br /><br />क्या हुआ ? किनका फोन था ? लक्ष्मी ने कौतुहल से पूछते हुये कहा। <br /><br />दीनानाथ जी का। बता रहे थे... बनवारीलालजी के घर एक लड़की है... इलाहाबाद में..., एक ही बेटी है उनकी... कह रहे थे अच्छा घर-घराना है... पंद्रह दिन बाद अगहन के शुक्ल पक्ष की पंचमी की तिथि को चलने का आग्रह कर रहे थे। <br /><br />अरे वाह! मुझे लगता है, इस बार जरूर तय हो जायेगा। वैसे मुन्ना की कुंडली में भी लिख रखा है पश्चिम दिशा में विवाह का योग... पता है ना ? <br /><br />भगवान जाने! अच्छा है, जल्दी निपट जाये, मैं भी गंगा नहाउं...। खजानसिंह ने लंबी सांस लेते हुये कहा। <br /><br />प्ंाद्रह दिन बाद सेठ खजानसिंह, दीनानाथ जी को साथ ले इलाहाबाद के लिये निकल पड़े। इस बार उन्होने लक्ष्मी को भी साथ ले लिया था। लड़की के पिता बनवारीलाल जी की इलाहाबाद में आजाद पार्क के पीछे संकरी गलियों में एक मिठाई की दुकान थी। उनके एक बेटा और इकलौती लाडली बेटी थी। बेटी बड़ी सौम्य, शालीन व रमणी थी। लड़की के रंग-रूप और हाव-भाव को देख लक्ष्मी तो तत्क्षण जैसे गद्गद हो गयी। विवाह का प्रस्ताव रखने में तनिक भी देर ना करते हुये कहने लगी- भाई साहब! बेटे के बारे में पंडितजी ने तो पहले ही बता दिया होगा, फिर भी यदि लड़के कोे देखने की इच्छा हो तो कानपुर चले जाईये, वहां देवल इण्डस्ट्ीज में बेटा असिस्टेंट मैनेजर है। <br /><br />ना बहनजी ! हमने लड़का पहले ही देख लिया है, लड़का हमें बहुत पसंद है। बनवारीलाल ने तनिक औपचारिक होते हुये हल्की मुस्कान बिखेर कहा। <br /><br />तो फिर देर किस बात की। चलिये जल्दी से सगाई की रस्म पूरी कीजीये। पंडितजी! विवाह का कोई अच्छा सा मुहुर्त देखिये तो, ये लीजीये पंचांग। लक्ष्मी ने सोफे पर गुण मिलान के लिये रखी पंचांग, पंडित दीनदयाल के हाथों में थमाते हुये कहा। <br /><br />लेकिन बनवारीलाल प्रतिक्रियाहीन खामोश बैठे हुये थेे। उन्हे इस तरह देर तक खामोश बैठा देख लक्ष्मी से रहा ना गया। क्या हुआ भाई साहब! चलिये ना पूजन सामग्री की व्यवस्था कीजीये। <br /><br />बहन जी वो तो ठीक है पर...! खजानसिंह ने सकुचाते हुये कहा। . <br /><br /><br />अरे भाई साहब...आप तो बहुत संकोची हैं। यदि दहेज-वहेज की चिंता कर रहे हों, तो हम पहले ही बता देते हैं, हमें कुछ नहीं चाहिये। भगवान का दिया सब कुछ है, हमारे पास। <br /><br />पर बहनजी ! <br /><br />ओहो ...! चलिये छोडि़ये, जो बात होगी बाद में कर लेंगे। अभी जल्दी से सगाई की रस्म पूरी कीजीये, हमें शाम होने के पहले घर भी निकलना है। <br /><br />पर बहनजी ...! आप तो जानती हैं, हमारा एक बेटा भी है। अभी छोटा जरूर है पर वक्त ही कितना लगता है... बड़ा होने में। देखते-देखते बच्चे शादी के लायक हो जाते हैं। अब देखिये ना गुडि़या को! कल की बित्ते भर की छोकरी, कितनी बड़ी हो गयी..., लगता है जैसे सब अभी-अभी की बात हो। बेटा जब बड़ा हो जायेगा, तो उसके लिये कहां ढूंढ़ेगें लड़की, आप ही बताईये ना! हमें एक बेटी दे दीजीय,े हम अपनी गुडि़या आपको कन्यादान कर देंगे। <br /><br />बनवारीलाल की बात सुन लक्ष्मी आग बबूला हो गयी। सब किये घरे पर पानी फिरते देख मन अकुला गया। फिर भी अपने क्रोध और उद्विग्नता पर नियंत्रण रखते हुये व्यंग्यात्मक लहजे में मुस्कुराते हुये कहने लगी- भाई साहब अब बेटियां किराये पर तो मिलती नहीं हैं, फिर आप तो जानते हैं, हमारा एक ही बेटा है, हमे कोई बेटी नहीं है। <br /><br />बहनजी तो आप ही बताईये ना ...! बनवारीलाल ने असमंजस भरे लहजे में कहा। <br /><br />बहनजी रिश्ते नातों में किसी की तो बेटी होगी ? हम उससे ही अदला-बदली कर लेंगे। पास बैठी बनवारीलाल की पत्नी कहने लगी। <br /><br />ना बहनजी! यदि यही सब पास होता, तो हम आपके घर रिश्ता मांगने भला क्यों कर आते ? अब ये सब तो टरकाने वाली बात हुई। लक्ष्मी ने तनिक क्रोध प्रदर्शित करते हुये कहा। <br /><br />ना ... ना ... बहन जी हम टरका नहीं रहे ... अब बेटियों को घर में कोई आचार डालकर थोड़े ही रखता है। वो तो परायी ही होती है, इसका ब्याह कर देंगे तो... अब आप तो सब देख रहे हैं ना... कुछ कहने-सुनने को बचा ही कहां है। क्या करें बहनजी! जमाने के बदलते रिवाज के हिसाब से खुद को बदलना पड़ता है। देख तो रहे हैं ना! बेटिया कितनी अनमोल हो गयीं। बनवारीलाल ने शालीनता प्रदर्शित करते हुये कहा।<br /><br />लक्ष्मी खामोश चिंतित मुद्रा में बैठी थी। इसी बीच बनवारीलाल की पत्नी भावावेश में पति की बातों पर मक्खन लगाते हुये कहने लगी-बहनजी आज तो औरत ’बेटी बिन बांझ’ की तरह हो गयी है, बांझ औरत तो जवानी में फिर भी केवल एक बार संताप से मरती होगी किंतु जिस औरत को बेटी ना हो वह पश्चाताप के आंसू लिये बेटी की चाहत में उम्र भर में सैकड़ों बार ग्लानि से मरती है। उसे बोलते समय यह ध्यान ही ना रहा कि लक्ष्मी को भी बेटी नहीं है। <br /><br />बनवारीलाल की पत्नी के मुंह से इतना सुनना था कि लक्ष्मी बिफर पड़ी। वह गुस्से में नियंत्रण खो बैठी। दांत अपने आप, होंठ से गुत्थमगुत्था करते हुये कटराने लगे। वह आक्रोश से, जाकर गाड़ी में चुपचाप बैठ गयी और दूर से पंडित दीनानाथ और खजानसिंह को विदा लेते हुये देखने लगी। <br /><br />औरत को सच के आईने से नफरत होती है। वह उसी दर्पण में अपना चेहरा देखना पसंद करती है जिसमें उसकी बदसूरती के सच प्रतिबिंबित ना होते हों, तभी तो बदसूरत औरत भी कभी आईने के सामने खड़ी स्वयं को सौंदर्यविहीन नहीं समझती।वह कहीं ना कहीं उस सत्य में भी झूठ के संतोष तलाश ही लेती है कि लोग उसे संुदरता के इस कोण से क्यूं नहीं देखा करते। वास्तव में औरत झूठ रूपी कीचड़ पर खिली कमल की तरह होती है, उसे सच से उतना ही बैर होता है, जितना कमल को स्वच्छ जल से। लक्ष्मी उस समय उस सच को बिल्कुल नहीं पचा पा रही थी, जो सच बनवारीलाल की पत्नी के मुंह से अनायास ही निकल पड़े थे। बेटी बिन बांझ शब्द ने उसके तन-बदन में भुरभुरी पैदा कर दी थी। <br /><br />गाड़ी में बैठ लक्ष्मी, अपने पति को कोसते हुये कहने लगी- बड़े निल्र्लज हैं ये लोग! क्या बेटियों के इतने लाले पड़ गये ? देखा नहीं! कैसे कह रही थी ... डायन। बोलने तक की तमीज नहंी है...। बड़ी आयी, बांझ कहती है... डायन कहीं की ..., <br /><br />अरे! कह दिया तो इसमें इतना चिढ़ने की क्या बात है। खजानसिंह ने तनिक सहलाते हुये कहा। <br /><br />कैसे कह देगी ? तुम भी गजब करते हो, जब देखो तब बैर चुकाते रहते हो। लक्ष्मी ने भौं सिकोड़ते हुये कहा। <br /><br />अरे तो क्या गलत कहा उसने, आखिर बांझ की तरह तो हैं हम दोनों। इस पीढ़ी के बाद कौन है खाने वाला? अरे! लक्ष्मी तुमने घर के बाहर कदम रखा नहीं , इसलिये पता नहीं है। अब शहर में उतनी भी बेटियां ना होगी जितने बरगद और पीपल के कुल जमा पेड़ होंगे। खजानसिंह जैसे लक्ष्मी का गुस्सा ठंडा करने का उपदेश देते हुये प्रयत्न करने लगे। देखो ना! पहले पेड़ कटे, खेत -खलिहान पक्षियों से रिक्त हुआ, पशु जा रहे, पुत्रियां कगार पर है, फिर कौन बच जायेगा, केवल पुरूष ? फिर क्या होगा ? कभी सोंचा है लक्ष्मी!<br /><br />बस...बस....! मुझे ये सब ढकोसले भरे उपदेष मत दोे। मैं कुछ नहीं जानती... मुझे मेरे बेटे के लिये बहू दे दो, चाहे पूरी जायदाद दांव पर क्यूं ना लग जाये।<br /><br />कहां मिलेगी बेटी? सारे अनाथालय लड़कांे से भरे पड़े हैं। तुम्हे याद है, हमारा एक नौकर जग्गू था, उसकी एक नन्ही सी बेटी थी रोमा। जात-पात का बंधन छोड़ उसे ही ब्याह कर लेते तो अब..वो भी ... खजानसिंह ने सिर खुजलाते हुये कहा। <br /><br />क्या ब्याह हो गये उसके ? लक्ष्मी अतीत की धंुधली तस्वीरों के बीच उसके बचपन को याद करने लगी। <br /><br />हां साल भर पहले हो गया । <br /><br />कितनी प्यारी सी थी ना वो! उसके मुंह से अचानक निकल पड़ा। <br /><br />उसे वे क्षण याद आने लगे, जब वह चने और पुलाव एक पत्तल में देकर उसके खाने के तहजीब को बड़े गौर से देखा करती। एक-एक दाने को सलीके से चबा-चबाकर नन्हे अदाओं के साथ खाती। दिखने में भी बहुत सुंदर, एकदम गोरी-चिट्टी थी, पर जात की नीच थी यही कमीं कर दी थी भगवान ने। एक दिन वह खेलते हुये किचन में घुस क्या गयी, लक्ष्मी ने उसकी हजामत बना दी। इतनी धुनाई की कि हाथ की कलाई टूट गयी थी। फिर तो उसने उस नौकर जग्गू को भगाकर ही दम ली। खजानसिंह को साफ कह दिया कि ऐसे नीच लोग को ज्यादा मुंह देने का नतीजा सिवाय परेशानी के कुछ नहीं होता। जग्गू मुंह लटकाकर बड़ी बेईज्जती से घर से निकला था। इस घटना को जैसे पच्चीस साल बीत गये थे, पर रोमा की याद आते ही मन आज फिर ग्लानि से भर आया। <br /><br />चलो... अब सब ईश्वर पर छोड़ दो। तकदीर में होगा, तो सब ठीक हो जायेगा। खजानसिंह ने प्यार से सहलाते हुये कहा। <br /><br />लक्ष्मी अपमान की आग में जलने लगी। उसे उस क्षण यह कतई गंवारा नहीं था कि उसके उर्वर गर्भस्थल पर कोई इस तरह का कटाक्ष करे। बांझ शब्द किसी औरत के लिये गाली से कम नहीं हुआ करती। वह इस गाली और अपमान से मुक्त होने छटपटाने लगी। मन में कई तरह के विचार हिलोरें मारने लगी और अंत में उस क्षण जैसे वह ठान बैठी कि उसे इस दाग से मुक्त होने हर हाल में एक बेटी चाहिये। खजानसिंह का हाथ जोर से पकड़ कहने लगी- मैं ’बेटी बिन बांझ’ के इस दोख से मुक्त होना चाहती हूं। मुझे बेटी दोगे? बोलो! <br /><br />इस उम्र में ? तुमहारा दिमाग तो नहीं सठिया गया है ? खजानसिंह ने तनिक गुस्से से कहा। <br /><br />कौन सी बूढ़ी हो गयी हूं? पचास -बावन की तो हूं । मैं कुछ नहीं जानती , मुझे एक बेटी चाहिये। <br /><br />अरे! कैसी बात करती हो ? क्या तुम्हे याद नहीं कि तुमने तीस साल पहले अपना बंध्या करा लिया था ? नाक फुलाते हुये आश्चर्यमिश्रित क्रोध से खजानसिंह ने कहा। <br /> <br />वो सब खुल जाता है.... अन्नू दीदी का खुला था कि नहीं ? <br /><br />हूं... तुम जानो । खजानसिंह झुुंझलाते हुये कहने लगे । <br /><br />उस क्षण वह क्रोध के आवेग में उबल रही थी, उसे जैसे जुनून सवार था। उसके धुन को देख, उस क्षण यह कह पाना नितांत कठिन था कि वह अपने तीस साल पहले के बेटी के गर्भपात से बार-बार उभरते टीस को धोना चाहती है या फिर बनवारीलाल की लुगाई के मुंह पर उस अपमान के घुंट के एवज में उसे एक तमाचा मारना चाहती है। उसने अस्पताल जाकर टांके खुलवा लिये। उसके जुनून को देख अस्पताल की मेहतरानी से लेकर डाॅक्टरनी तक सभी हैरान थे। चिकित्सकों ने भी लाख मना किया कि इस उम्र में बच्चे पैदा करना किसी रिस्क से कम नहीं। लेकिन उसे तो उस क्षण उस अपमान से मुक्त होने, भूत सवार था। आज उसे वही बेटी चाहिये थी, जिसे जवानी में उसने पांच बार खोया था। <br /><br />कहते हैं, जहां चाह वहां राह। ठीक चार महीने बाद लक्ष्मी पर सचमुच ईष्वर की कृपा हो आयी। उसे गर्भ ठहर आया। उसके खुशी का ठिकाना ना था, वह मारे प्रसन्नता के पागल हुये जा रही थी। ठीक कुछ महीने बाद उसे उस टीस से मुक्ति मिलने वाली थी, जो उसे इस ढलती उम्र में वेदना पहुंचा भीतर तक खोखला कर रही थी। बेटी पैदा होने के संभावना भरे सुख और पुत्रवधू पाने की आश ने उसने अंदर एक नयी उर्जा भर दी। वह तो ईश्वर पर भरोसा रख बस उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगी जब एक अर्से बाद उसकी गोद में बिटिया खेलेगी।लेकिन विधाता को कुछ और ही मंजूर था। लक्ष्मी को यह पता ना था कि ईश्वर बार-बार ठुकरायी हुई चीज उन क्षणों में तो उसे कदाचित ही दिया करता है, जब उसे उस चीज की सर्वाधिक आवश्यकता हुआ करती है। नौ महीने बाद एक बड़े एवं कष्टकारक आॅपरेशन के बाद लक्ष्मी को जो संतान नसीब हुआ, वह बेटा निकला। <br /><br />लक्ष्मी तो उन क्षणों में बेसुध थी, लेकिन खजानसिंह शिशु को बेटे के रूप में पा चिंता से व्याकुल हो उठे। उसे अब तो यह भय सताने लगा कि होश आने पर वह लख्मी को क्या जवाब देगा। <br /><br />ठीक 10 घण्टे बाद होश आया तो वह पूछ ही बैठी- कहां है, मेरी बेटी ?<br /><br />खजानसिंह भला क्या उत्तर देते, हाल-चाल पूछने का अभिनय करते हुये टाल-मटोल करने लगे। लेकिन बार-बार लक्ष्मी के पूछने पर खजानसिंह ने झूठ बोलते हुये कहा- थोड़ा बुखार है, वेंटीलेटर में रखा गया है। खजानसिंह ने उस क्षण शिशु को हटाकर दूर कमरे में रख दिया था। <br /> <br />ओह! ज्यादा खराब तो नहीं है ? <br /><br />नहीं। बिल्कुल नहीं। तुम चिंता ना करो, चलो सो जाओ । खजानसिंह ने चादर ढकते हुये कहा।<br /><br />कैसी है?<br /><br />बहुत सुंदर । बिल्कुल तुम्हारी तरह। लक्ष्मी का सिर थपथपाते हुये खजानंिसंह ने कहा। <br /><br />लक्ष्मी पलकें बंद कर अर्द्धनिद्रा में सो गयी, लेकिन पूरी तरह नींद ही नहीं आयी। बेटी की छटपटाहट मे रात भर करवटें बदलती हुई, सबके सोने की जैसे प्रतीक्षा करने लगी। अर्द्धरात्रि का समय था, चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। पूरे दिन भर शिशु को अलग रखने से लक्ष्मी को संदेह होने लगा था। वह अपने संतान को देखने के लिये अधीर हो उठी। थोड़ी ही देर में उसके कदम अनायास उस कक्ष की ओर लड़खड़ाते हुये बढ़ने लगे, जिस कक्ष में शिशु को रखे जाने का उसे संदेह था। एक-एक अंगुल की दूरी मीलों की तरह तय करती हुई लक्ष्मी, पेट के सिले हुये हिस्से, ग्लूकोज का बाॅटल और निकास थैली को हाथों से पकड़ आगे बढ़ने लगी। एक-एक कदम बमुश्किल उठा पा रही थी। उस अवस्था में छोटे से दालान की महज 16 फीट की दूरी उसे सोलह मील की तरह लगने लगी। अभी वह कुछ ही दूर बढ़ पायी थी कि अचानक सिर चकराने गला, धरती घूमने लगी और लड़खड़ाते हुये पैर का संतुलन बिगड़ गया। वह अचानक गिर पड़ी और गिरते ही पेट का सिला हुआ कच्चा टांका, मांस को खींचता हुआ उखड़ गया और पेट के अंदर की आंते मांस के लोथड़े के साथ बाहर को निकल आयीं। <br /><br />क्षण भर के लिये तो उसे कुछ समझ ही नहीं आया। बेटी को देखने की तीव्र उत्कंठा ने उसके मुंह से उस समय आह तक ना निकलने दी। उन विकट परिस्थितियों में बड़े धैर्य से स्वयं को सम्हालते हुये आंतों को पेट के अंदर वह ऐसे घुसाने लगी, जैसे कुछ हुआ ही ना हो और थैले में जरूरी सामान घुसा रही हो। बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य था, दोनों हाथ और फर्श खून से सन गये, फिर भी घिसटते हुये वहां तक पहुंचने का प्रयत्न करने लगी। किंतु इस बीच आहट से आस-पास सोये हुये मरीज जग गये। चारों ओर अफरा-तफरी मच गयी, आपातकालीन सायरन बजने लगी। तुरंत उसे आपरेशन कक्ष की ओर ले जाया गया।<br /><br />पूरे अस्पताल में अफरा-तफरी का माहौल था, हर कोई उस क्षण यह जानने उत्सुक था कि लक्ष्मी की हालत अब कैसी है। बेटी के प्रति उसकी तड़प देख अस्पताल के सभी मरीज उस पल अचरज में थे। <br /><br />बेटी के प्रति लक्ष्मी की लालसा एक औरत से देखा ना गया... उसने अपनी बेटी चिंतित खजानसिंह की गोद में देते हुये कहा- सेठजी! मेरी पहली बेटी है। इसे मां को दे दीजीयेगा, शायद सुकुन के दो पल मिल जायें।<br /><br />पर तुम कौन ? उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुये कहा। <br /><br />उतने में ही थोड़े आढ़ से बिखरी हुई सफेद बालों को घूंघट में छिपाती खड़ी एक औरत ने धीमे आवाज में अनुनय करते हुये कहा - मां जी की तबियत बहुत खराब है, रख लीजीये बाबूजी , वे शायद ठीक हो जायें! संकोच मत कीजीये, बेटियों की जात नहीं होती। <br /><br />उसका इतना कहना था कि खजानसिंह ने झट से पलटकर उस औरत की ओर देखा और क्षण भर में चेहरा ग्लानि से सुर्ख लाल हो गया। पच्चीस साल पहले की वह घटना आंखों के सामने नग्न होकर नाचने लगी। वह औरत और कोई नहीं , वही गज्जू की लुगाई थी, जिसे बड़ी बेरहमी से लक्ष्मी ने उसी रोमा के रसोई में घुसने के कारण घर से निकाल दिया था, जिसने मां के कहने पर आज अपनी पहली बेटी सेठजी के चरणों में अर्पित कर दी थी। <br /><br />टूटे हुये हाथ के साथ अपनी बिटिया को सौंपती हुई खड़ी उस नव ब्याहता को देख, खजानसिंह को यह समझते देर ना लगी कि वह वही रोमा है, जिसे रोती-बिलखती हुई लक्ष्मी ने किचन से घसीटकर बाहर फेंक दिया था और उसी दरम्यां उसके हाथ टूट गये थे। <br /> <br />खजानसिंह बेटी को गोद में ले किंकर्तव्यविमूढ़ हो उसे क्षण भर तो अपलक देखते रहे। अब तक बेटा राहुल भी घर आ चुका था। लक्ष्मी कक्ष में विश्राम कर रही थी। खजानसिंह ने चिकित्सक की अनुमति से जब लक्ष्मी को इस बेटी को सौंपने की इच्छा व्यक्त की तो डाॅक्टरों ने भी कोई आपत्ति दर्ज ना की। उन्हे भी कहीं ना कहीं भरोसा था कि इससे उसकी जीने की इच्छा शक्ति में वृद्धि होगी। <br /><br />दोनों जैसे ही कक्ष में घुसे, बेटी को देख लक्ष्मी की आंखों से तर-तर आंसू बहने लगे। वह खुशी के आंसू थे, आज उसे वही प्रसननता मिल रही थी जो किसी चक्षुहीन स्त्री को आंखों कीं रोशनी पाने पर होती है, वह सीने से लगा उसे देर तक चूमते रही। <br /><br />लक्ष्मी ने दर्द से कराहते हुये कहा- इसे बनवारीलालजी के बेटे ... के लिये कन्यादान कर ... बहू ले आईयेगा। <br /><br />लड़का मां को इस हाल में देख फफक पड़ा- मां ! ये तुमने क्या किया? मुझे नहीं करना विवाह ! <br /><br />नहीं बेटा ! तू नहीं समझेगा इस सुख को ... बेटी की मां बनने का सुख .. बहुत सुकुन... <br /><br />बेटी की मां बनने के उस अकथनीय सुख ने आज उसके जीवन के सारे दाग और अपमान को धो डाला था। <br /><br />वह कराहते हुये कहने लगी- बेटा! कुछ भूलों का संसार मे ंप्रायश्चित नहीं होता। तुम ऐसा मत... अचानक दर्द कुछ ज्यादा बढ़ गया और अटकते हुये कहने लगी- आओ लौट चलें...<br /><br />कहां मां ? लड़के ने अश्रुपूरित नेत्रों से आश्चर्य व्यक्त करते हुये पूछा। <br /><br />लक्ष्मी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट तैरने लगी। और आखिर में , बेटियों की ओर ... ऐसा कहते हुये वह इस संसार से महाप्रयाण कर गयी। <br /><br />....................................................राकेश कुमारhttp://www.blogger.com/profile/08397280715413909061noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-5944616234087359061.post-80696817175957947202011-07-04T01:40:00.003-07:002011-07-04T01:40:58.951-07:00उपेक्षारामधीन बूढ़ा हो चुका था, अस्सी साल की उम्र में वैसे तो नाती पोतों से भरा पूरा परिवार था लेकिन कहने को उनमें से कोई भी अपना नहीं था, वैसे भी जब शरीर के अपने ही अंगों ने साथ छोड़ दिया तब भला परिवार और पड़ोस से क्या उम्मीद ? दांतों ने साथ छोड़ा तो जिव्हा भूने हुये गरम-गरम चने के स्वाद के लिये तरस गयी, कभी मन किया और पोतों से चने पीसकर खिलाने की ख्वाईश कर बैठा तो मानों आफत आ जाती, बहुओं की कड़वी जुबान से गरम-गरम मीठे चने का स्वाद भी जैसे कड़वा हो जाता । उलाहना देते हुये पोतों से कहतीं- साठ से उपर के हो गये, पर जिव्हा तो ऐसे जवान है जैसे कोई नयी नवेली दुल्हन गर्भवती हो गयी हो, तेरे दादू तो दरिद्र हैं, चाहे जितना खिलाओ कभी जी ही नहीं भरता । कब्र पर पांव लटके हुये हैं पर इनकी जीभ तो दिन ब दिन जवान होते जा रही है। रामभजन तो दूर की बात कभी बच्चों को किताब खोलकर पढ़ा दें ऐसा भी नहीं होता । सामने दालान पर गेंहूं सूख रहा है, चिड़िया इधर-उधर फुदक्के मारकर गेंहूं जमीन पर गिरा रही है, पर मजाल है जनाब अपनी जगह से अखबार समेट कभी टस से मस भी हो जायें, कुछ कह दो तो ऐसे मुंह फुला लेते हैं जैसे किसी ने इन्हे घर से निकालने को कह दिया हो। <br />
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जवानी में पूरे महकमें में अपनी हुकुम चलाने वाले रामधीन की हालत अपने ही घर में बहुओं के सामने मिमियायी बिल्ली सी हो गयी थी। बेटे मुसकुण्डे जवान थे पर मजाल है रामधीन को कोसती हुई अपनी लुगाई की तलवार की धार सी चमचमाती जिव्हा पर जरा सा भी नियंत्रण रख पाये । कभी टोकने की कोशिश की तो बेटे और बहू के बीच बातचीत का माध्यम वो नन्हा सा पोता हो जाता। ले देकर मनाने पथाने पर जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आती तो दोनो मिलकर रामधीन को खूब कोसते, बड़ी बहू उलाहना देते हुये कहती - ये खूसट बुढ़उ, जब तक रहेगा हम दोनों के बीच इसी तरह खिचिर पिचिर होती रहेगी । अच्छा खासा गांव में पड़ा था, बेकार आने को कह दिया ?एक बार तुमने कह क्या दिया सही में चला आया, एक बार तो सोच लिया होता , मगर दिमाग तो सठिया गया है ना, अब इस उम्र में कहा भला इतनी बुद्धि? । <br />
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रामधीन को अपने बड़े बेटे के घर आये हफ्ते भर ही हुये थे कि अब जी भर गया, वह खुद को कोसता, कि कहां बेकार चले आये, उससे तो अच्छा था गांव के घर में अपने ही हाथ से अंगीठी पर सिंकी हुई जली रोटियों का स्वाद लेकर जैसे तैसे गुजर करते । आखिर इतने सालों से रूखी- सूखी खाकर गुजर तो चल रहा था ना ? लेकिन जिस तरह जवानी में मन पर नियंत्रण नहीं होता उसी तरह बुढ़ापे में चटकारें मारती हुई जीभ पर जितनी बंदिशें लगाओ कमबख्त उतनी ही दगा दे जाती है । अच्छे पकवान की लालसा लिये रामधीन जब घर से निकला तभी मन में आशंका थी कि कहीं बहुयें अनाप-शनाप कहने लगीं तो क्या होगा? लेकिन इंद्रियों का आवेग स्वाभिमान की दीवारों को नेस्तनाबूत कर देता है । क्षणिक सुख की लालसा में कहां किसी इज्जत की चाह और कहां स्वाभिमान को चोंट पहुचने का डर । <br />
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लेकिन अब रामधीन का मन पूरी तरह भर गया था वह अपने गांव लौट जाना चाहता था । बहू से घर लौटने की इच्छा जाहिर की तो हफ्ते भर से मुरझाये चेहरे पर जैसे चमक आ गयी, फुदकते हुये कहने लगी - हां बाबूजी, मैं भी इनके पापा से कल ही कह रही थी, खेती बाड़ी के दिन आ गये, ऐसे में नौकरों के भरोसे बैठे रहने से तो काम नहीं चलेगा ना ? कल सुबह वाली ट्रेन सुपरफास्ट है ज्यादा जगहों पर नहीं रूकती, सीधे लखनउ से बनारस को जाती है । आप कहें तो मैं घर बैठे ही रिजर्वेशन के टिकट निकाल दूं। आजकल न स्टेशन पर टिकट के लिये जाने की झंझट और न ही किसी से कुछ कहने की जरूरत, हां बाबूजी, एक बटन क्लिक करते ही घर में टिकट निकल आता है । <br />
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जाते वक्त सुबह बेटा स्टेशन तक छोड़ने आया और जेब से पचास रूपये के नोट निकालते हुये कहा- बाबूजी, ये रख लो, रास्ते में काम आयेगा । रामधीन पसीने से भीगे हुये पुराने नोटं को देखकर गुस्से से आग बबूला हो रहा था, कभी वह अपने बेटे मनोज के चेहरे को देखता तो कभी मुड़ी हुई बीच से फटी नोट को देख गुस्से से लाल-पीला होता । जी में आ रहा था कि कह दे ,बेटा साठ रूपये की टिकट तो बनारस से गांव तक बस में जाने की लगती है, उससे तो बेहतर है कि तुम इसे अपने पास रख लो, लेकिन वह कुछ कहता इसके पहले ही बेटे ने मुरझाये चेहरे से नीची नजरें करते हुये कहा- बाबूजी, महंगाई बहुत है, घर के खर्च बमुश्किल से चल पाते हैं । <br />
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रामधीन ने गुस्से से कहा- बेटा, महंगाई तो उस समय भी थी जब तेरे बाप को तीन सौ रूपये की तनख्वाह मिला करती और उसमें से ढाई सौ रूपये तुम दोनों बेटों की पढ़ाई में खर्च हो जाते। हर हफ्ते तुम्हारी चिट्ठियों पर हालचाल कम रूपयों की फरमाईश ज्यादा होती । तू जब कभी सौ रूपयों की डिमांड करता तो तेरा बाप तुझे दो सौ रूपये मनिआर्डर भेजा करता, खैर... । <br />
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अभी रामधीन की बातें पूरी भी नहीं हुई थी कि ट्रेन चलने लगी और बेटा जल्दी-जल्दी पिता को विदा कर चलती ट्रेन से उतर गया । गांव के सरहद पर पहुंचकर रामधीन को थोड़ा सुकुन मिला। अब फिर से वही दिनचर्या, वही माटी का चूल्हा , धुंओं के बीच मीचती हुई बूढ़ी आंखें और उन घने धुंओं के बीच खांसता हुआ बुढ़ापा, बस यही तो छोटी सी जिंदगी है। मन किया तो कुछ बना लिया नही तो सुबह की रूखी-सूखी खाकर ही सो गये। लेकिन पूरा बुढ़ापा इस तरह तो नहीं कट सकता था। अनियमित खानपान और पेट की क्षुधा को ढीले होते हाथ पैर का हवाला देकर शरीर को बहुत दिनों तक आखिर कैसे तंदरूस्त रखा जा सकता था ? कुछ दिनों में ही रामधीन की तबियत फिर से खराब हो गयी, मन किया इस बार छोटे बेटे के यहां जाकर इलाज कराया जावे और पेट की बरसों से धधक रही चिंगारी को शांत किया जाये पर छोटी बहू की याद आते ही मन मसोसकर रह गया । छोटी बहू तो जैसे ज्वालामुखी है, बोलती है तो लगता है मानों अंगारे बरस रहे हों। <br />
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रामधीन की बिगड़ती हालत को देखकर पड़ोसियों ने दोनों बेटों को इत्तला करने की कोशिश की लेकिन अपने -अपने परिवार में मगन बेटों को भला इसकी क्या परवाह? बड़े बेटे के मन में पिता को देखने की थोड़ी इच्छा हुई भी तो पत्नी की खरी खोटी सुनकर गांव जाने की हिम्मत ही नहीं हुई। भुनभुनाते हुये कहने लगीं- पिछली बार पूरे एक हफ्ते की छुट्टी खराब करके आये थे, कुछ मिला? अरे बाबूजी को कुछ हो गया तो पड़ोसी तो मर नहीं गये हैं?जरूर खबर भिजवायेंगे। अब आज के जमाने में कोई ऐसे पुण्यात्मा तो बचे नहीं हैं कि तुम्हे खबर ना लगे और बाप की अर्थी का इंतजाम हो जाये । कितनी बार कहा है धर्मात्मा मत बनों, दुनिया को देखकर सीखो, सारे लोग स्वार्थी हैं किसी को किसी की परवाह नहीं है, अरे और कोई नही तो तुम्हारी खेती बाड़ी करने वाला नौकर तो जिंदा है । पिछली बार कितनी दफा मना किया होगा, लेकिन तुम्हारा तो प्यार जैसे छाती से छलकता है, अभी गर्मी में शिमला जाने का प्लान है, सब छुट्टियां ऐसे ही खत्म कर दोगे तो बच्चों को क्या खाक घुमाओगे? <br />
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पड़ोसियों ने इधर-उधर से दवाई के इंतजाम किये लेकिन पेट की आग से झुलसी सिकुड़ी हुई आंतों की कमजोरियों को गोलियां भला कब तक दूर कर पाती? हालत दिन ब दिन बिगड़ती गयी, और अब तो गांव के रिश्तेदारों को लगने लगा कि बेटे तभी आयेंगे जब बाप के अंतिम दर्शन की उनके अंदर अभिलाषा बची हो। बेटों को फिर से खबर की गयी कि यदि उन्हे पिता के अंतिम दर्शन करने हैं तो वे तुरंत सुबह की गाड़ी से ही चले आयें। खबर पाते ही दोनो बेटे भोर में आ गये, इस बार वे पूरी तैयारी के साथ आये थे, बहुओं के चेहरे पर अजीब सी चमक थी, मन में कहीं ना कहीं इस बात की खुशी थी कि चलो इस बुढ़उ के झंझट से हमेशा के लिये मुक्ति मिलेगी। रोज-रोज का वही नाटक, कभी बुखार तो कभी खांसी, कभी पेट दर्द तो कभी बदन में सूजन। बूढ़ा आदमी घर में क्या हुआ मानों आफत ही आफत, कभी सुकुन से रहने को नहीं मिलता, मशीन सी जिंदगी में बुढ़ापा कचरे की तरह घुसकर पूरी दिनचर्या को जैसे जाम कर देती है। <br />
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घर पहुंचते ही अच्छी भली चंगी, रास्ते भर फुदक-फुदक कर खाते पीते आयी बहुओं के चेहरे शोक संतप्त हो गये, आंखें सूर्ख लाल हो गयीं, आंसुओं की धार सहयाद्रि पर्वत से निकली किसी सरिता की तरह प्रवाहमान होकर आंचल को गीली करने लगी। दोनों बहुयें ऐसे रो रही थीं जैसे उनके सर से किसी देवता की छत्रछाया छीन गयी हो। सब कुछ दिखावटी था लेकिन इस बनावटीपन में भी विशिष्टता थी, आखिर आज की व्यस्त जिंदगी में कहां इतनी फुर्सत थी कि देर तक किसी एक ही भूमिका का निर्वाह करते हुये बैठे रहा जाये, आज मनुष्य की जिंदगी भी तो रंगमंच के एक पात्र की तरह हो गयी है जहां ढेर सारी भूमिकाओं का निर्वहन एक व्यक्ति को एक ही समय पर करना होता है, सो समय पड़ा तो रो लिये और मन हुआ तो थोड़ी देर में ही किसी रेस्टोरेंट में बैठकर आइसक्रीम का लुत्फ उठा लिये। <br />
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आस पड़ोस के लोग जानते थे कि दोनों बहुओं की आंखों से जितने लोटे भर आंसू दहाड़ मार-मारकर गिर रहे है, उतने लोटे भर पानी तो इन्होने ब्याह के दिन से अब तक मिलाकर भी कभी ससुर को पानी नहीं पिलायी होगी। लेकिन वो जमाना कहां रहा, अब तो कहां बुजुर्गों की परवाह और कहां लोकलाज का भय। किसी ने कुछ कहा, तो कह दिया कि तुम्हारी तरह बैठे ठाले नहीं हैं, गांव की जिंदगी और पशुओ के घुमंतु फक्कड़पन में कोई अंतर थोडे ही होता है, शहर जाकर देखो, चौबीस घण्टे भी कम पड़ते हैं। <br />
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रामधीन खाट पर लस्त पड़ा हुआ था, यद्यपि वह बोल नहीं पा रहा था, लेकिन सब कुछ सुन और समझ पा रहा था । वह बुढ़ापे की पीड़ा को बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा था, वह मन ही मन विचार कर रहा था कि किस तरह चौथेपन की अवस्था रास्ते में पड़े पत्थर की मानिंद अस्तित्वविहीन हो जाती है, अपने पराये हो जाते हैं और खून के रिश्ते कन्नी काटने लगते हैं। जिसके मन में जो आया कहकर निकल गया । जिंदगी भर ठोकरें खाकर अनुभव इकट्ठी की, पर किसी को कहां इतना वक्त कि तनिक बैठकर पूछ लें, थोड़ी राय लें लें, पड़ोसी तो गैर हुये अपनों को भी बिन मांगे नसीहतें दो तो ऐसे घुड़कते हैं, जैसे दुनिया भर के पाण्डित्य और नीति शास्त्र में शोध कर लिया हो । कुछ कहने का शुरू करो इसके पहले ही एक ही वाक्य में पूरी बात कैंची की तरह कतर देते हैं, कहे देते हैं, बाबूजी आप नहीं समझ पाओगे । अरे! जिन औलादों को पाला पोंसा बोलना, चलना,हंसना और समाज में उठना-बैठना सिखाया वे ही जब कहते हैं कि ये बस का नही ंतो मन करता है खींचकर तमाचे जड़ दूं, पर मन की पीड़ा मन में दबा कर रखने में ही बुढ़ापे में भलाई है। रामधीन मन ही मन बुदबुदाते हुये सोंच रहा था, सचमुच बुढ़ापा नरक का प्रवेश द्वार है, नरक के सारे रास्ते बस यहीं से होकर जाते हैं। ना शरीर में वो ताकत और ना घर में दो कौड़ी की कीमत। स्वाभिमान को दीवार में लगी खूंटी में टांगकर बची खुची जिंदगी घुट-घुटकर जी लो, नहीं तो मौत तो दोस्ती के लिये किनारे खड़ी ही होती है। वह सोंच रहा था कि कैसे एक पिता उन्ही बच्चों के जन्म पर बाजे-गाजे बजवा खुशियाँ मनाता है, मिठाईयां बांटता है, लोंगों के सामने इतराते हुये बांहों के झूले बना नाच-नाचकर सबको दिखाता है कि देखो ये मेरा बेटा है, बड़ा होकर मेरा नाम रोशन करेगा और वही बेटे जब जवान होकर दुलत्ती मारते हैं तो एक बूढ़े पिता को कितना दुख होता होगा? आज वह उस पीड़ा को महसूस कर रहा था । उसे इस बात का भी अहसास हो रहा था कि एक पिता अपने सभी संतानों की हर ख्वाईश , हर जिद्द अपनी हैसियत से आगे बढ़कर पूरा करता है, पर सभी संतान मिलकर एक पिता की न्यूनतम आवश्यकता की भी पूर्ति नहीं कर पाते।रामधीन कभी बुढ़ापे की अपनी अवस्था को कोसता तो कभी बदली हुई परिस्थितियों को जी भरकर गालियां देता। <br />
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रामधीन के खाट के चारों ओर शोक का माहौल था। बेटे मंुह लटकाए हुये खड़े थे, बिस्तर पर पड़े रामधीन को देखने आने जाने वालों पड़ोसियों का सिलसिला थम नहीं रहा था,सभी से बड़ा बेटा ही मिल रहा था, कह रहा था- बस चाचा, अंतिम समय है, चलो अच्छा है, ज्यादा सेवा नहीं कराये वरना खाट पर महीनों पचते तो कहां इतनी फुर्सत थी कि हम नौकरी भी देखें और इधर भी। छोटा बेटा दही और गंगा जल हाथ में लेकर बड़े भाई से कह रहा था -भैया, इसमें तुलसी की पत्तियां मिलाकर जल्दी पिला दें वरना कहीं ऐसा ना हो कि बिना दही और गंगा जल लिये बाबूजी के प्राण छूट जायें । जब दोनो ने मिलकर पिता को खाट से जमीन पर लिटाया तो बहुएं बिलख-बिलखकर रोने लगीं , उनके विलाप को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे रामधीन स्वर्ग सिधार गया हो। इसी बीच छोटी बहू एक मरही सी पतली दुबली बछिया को खींचते हुये रामधीन तक लाने का प्रयास करते हुये अपने पति से कहने लगी - अजी सुनते हो! बाबूजी को बछिया के पूंछ छुआ दो, बैतरणी पार करने में मदद मिलेगी, वह बछिया को बड़ी ताकत से खींच रही थी, लेकिन बछिया थी कि अपनी जगह से टस से मस नहीं हो रही थी,बड़ी बहू ने मदद करने की कोशिश करते हुये बछिया को थोड़ा धक्का क्या दी, बछिया वहीं धड़ाम से गिर गयी और एक ही झटके में दम तोड़ दी । रामधीन यह सब बड़े इत्मीनान से देख रहा था । जिंदगी भर पाई-पाई जोड़ अपने बेटों के लिये महल खड़ा करने वाले रामधीन को जीते जी ना तो पेट भर खाना नसीब हो सका और ना मरते समय भली चंगी बछिया के पूंछ की कोई आस दिखायी दे रही थी।<br />
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घर में पूरा माहौल गमगीन था, सुबह से ही भजन कीर्तन कराये जा रहे थे, पंडित मनसुख को भोर में ही गीता सुनाने के लिये बुला लिया गया था और कह दिया गया था कि बाबूजी के प्राण छूटते तक लगातार गीता पाठ का क्रम चलता रहे, पंडित मनसुख श्लोको का भावार्थ बताते हुये रामधीन को मृत्यु के भय से निजात दिलाने का प्रयत्न करते हुये कह रहे थे, कि मृत्यु शोक का विषय नहीं है, और ना ही इससे किंचित मात्र भी भय की आवश्यकता है। वे कह रहे थे, जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को त्यागकर नये कपड़े धारण करता है, वैसे ही यह आत्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर धारण करती है। <br />
सुबह से ही बड़े बेटे ने दो पहलवान से दिखने वाले हट्टे कट्टे जवान मजदूरों को कंधा देने के लिये मजदूरी पर बुला लिया था, बांस की लकड़ी से चिता बना ली गयी थी, बड़ा बेटा चिता को उलट पलट कर देखते हुये कह रहा था कि जरा बीच में एक लकड़ी और डाल दो, बाबूजी थोड़े हट्टे कट्टे हैं। कफन के कपड़े पहले ही रामधीन के सिरहाने पर रखी हुई थी । <br />
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बड़ा बेटा पिता के पास बैठकर अपने भाई के साथ पूरे तेरह दिन तक आयोजित होने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार कर रहा था। छोटू की शादी के बाद एक अर्से से घर में कोई समारोह भी तो आयोजित नहीं हुये थे, इस बीच परिस्थितियां कितनी बदल गयीं पर अपनी भव्यता दिखाने का कोई अवसर ही हाथ नहीं आया था, सो इस बार वे बता देना चाहते थे कि उनकी हैसियत गांव में किसी से कम नहीं है । टेंट के आर्डर पहले ही दे दिये गये थे । हलवाई को पास बिठाकर पूरे तेरह दिन के मीनू के बारे में समझाया जा रहा था।बड़ा बेटा मनोज हलवाई को समझाते हुये कह रहा था - खानपान में किसी प्रकार की कोई कमीं ना रहे, अभी नौ दिन तक तो केवल खिचड़ी ही बनानी होगी, रिवाज है, आखिर पालन तो करना होगा ना, लेकिन खिचड़ी भी मूंगदाल मिलाकर तीन तरह की होगी। साथ ही यह बात भी ध्यान रखना होगा कि जो खिचड़ी नहीं खाना चाहते उनके लिये विकल्प के तौर पर छोले, पूड़ी, गाजर का हलवा और दाल चांवल की भी व्यवस्था हो । कहीं ऐसा ना हो कि रिवाज के चक्कर में एकाध को अस्पताल ले जाना पडे़ और लेने के देने पड़ जायें। दसवें दिन और तेरहवें दिन के लिये विषेश व्यवस्था रहेगी। मीठे में छः प्रकार के आईटम होंगे - गुलाब जामुन, मूंग का हलवा, काजू की बरफी, इमरती और खीर के साथ ही छः प्रकार की सब्जियां होंगी । सब्जियों में पालक पनीर और कोफते की सब्जी अनिवार्य रूप से हाने चाहिये,ये बाबूजी को बहुत पसंद थे। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम जब छोटे थे, तब बाबूजी तनख्वाह मिलने पर हर महीने की पहली तारीख को हमें रेस्टोरेंट जरूर ले जाया करते थे । अच्छा, हां खाने में पूड़ी के साथ जीरा फ्राई चांवल और पुलाव जरूर होने चाहिये । तेरह ब्राह्मणों के लिये लिये विषेश व्यवस्था होगी, उन्हे मोहनभोग और रसमलाई अतिरिक्त रूप से परोसे जायेंगे। फल में आम, सेब और अंगूर जरूर होंगे,भले ही अभी आम की सीजन नहीं है पर चाहे जितने महंगे मिलें पर्याप्त मात्रा में परोसे जायें, पैसे की कोई चिंता नहीं है। आसपास के सारे भिखारियों को भरपेट भोजन कराये जायें ताकि बाबूजी की आत्मा को पूरी तरह शान्ति मिल जाये। <br />
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रामधीन जमीन पर लेटे हुये अपने बेटे की बात बड़े गौर से सुन रहा था। इतनी सारी खाने की चीजों के नाम सुनते ही मुह में पानी आने लगा, बरसों से जीभ इन पकवानों के स्वाद के लिये जैसे तरस सी गयी थी, आंते भूख में अकुला कर पूरे चार इंच सिकुड़ गयी थी । थोड़ी देर के लिये मन में विचार आया कि कह दे, बेटा मेरी तेरहवीं जीते जी क्यों नहीं कर देते ? मैं भी छककर खा लेता और जीते जी ही मेरी आत्मा को शान्ति मिल जाती। सूखी लकड़ी की तरह सूख चुके इस हड्डी के ढांचे में फिर से एक नयी जान आ जाती और दो चार साल इस दुनिया को थोड़ा और देख लेता । पर मन की बात जुबां तक आयी भी तो बोलने की हिम्मत ही कहां थी? ले-देकर हिम्मत जुटा इशारो से कुछ बोलने की कोशिश की भी तो छोटी बहू ने तपाक से गिलास मुह में ठुंसते हुये वहंा बैठे लोगों पर बिफर पड़ी, कहने लगी- अरे!सब कितने निर्दयी हो, बाबूजी जब से पानी मांग रहे हैं पर सब अपने-अपने में मगन हैं किसी को परवाह नहीं है, रामधीन इधर-उधर मुंह बिदकाता रहा पर छोटी बहू ने पानी पिलाकर ही दम लिया । खुद पर इतराते हुये अपने पति से कान पर कहने लगी - अजी, आपने देखा मैं कितनी पुण्यात्मा हूं, तभी तो बाबूजी को अंतिम बार पानी पिलाने का सौभाग्य मुझे मिला है । पर रामधीन तो सिर्फ उन लजीज पकवानों के स्वाद को महसूस करता हुआ उन क्षणों की यादों में खोया हुआ था, जब रिटायरमेंट पर उसे एक शानदार पार्टी दी गयी थी । बड़े -बड़े तीन रसगुल्ले खाये थे। बोस ने कितनी बार कहा होगा दो और खा लो पर जैसे उस दिन हिम्मत ही नहीं हुई । रसगुल्लों की याद आते ही मुंह से लार बहने लगा। <br />
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बड़ी बहू वहीं पास में सिरहाने पर बैठी कफन की लंबाई- चौडाई नाप रही थी। कभी वह रामधीन को अपने हाथ की लंबाई से नापती तो कभी कफन को बित्ते से, देख रही थी कि कहीं से छोटा ना पड़ जाये। मुंह से लार बहता देख छोटी बहू से कहने लगी - छुटकी, बाबूजी के मुंह से तो अब लार बहने लगा है। कहते हैं जब अंत समय निकट होता है तो मुंह से लार बहता है, कभी-कभी झाग भी आने लगता है। छुटकी, तुम देर मत करो , जाओ और जल्दी से कंडे सुलगा लो, हवन में जरूरत पड़ेगी और हां पिण्डदान के लिये थाली में पूरे सामान तैयार कर लो। <br />
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लेकिन छोटी बहू, जेठानी की बातों में कम अपने जेठ की योजनाओं के खाके तैयार करने पर ज्यादा लगी हुई थी। वह देख रही थी कि पंडितजी को दिये जाने वाले दक्षिणा के बारे में बहस चल रही है, वह भी उस बहस में कूद पड़ी । तू-तू, मैं-में होने लगी, वह इस बात पर अड़ गयी कि पंडित जी को दक्षिणा में सोने की अंगूठी देने की कोई आवश्यकता नहीं है, केवल चांदी के चम्मच से काम चल जायेगा । पास में गीता सुनाते बैठे पंडित जी का ध्यान दक्षिणा के बारे में होते बहस को देखकर बंटने लगा, सारे श्लोक उल्टे -पुल्टे होने लगे, भावार्थ बताते हुये अर्थ का अनर्थ कहने लगे । एक श्लोक का अर्थ बताते हुये कहने लगे- जीवन एक शाश्वत सत्य है, मरने के बाद भला किसने देखा है कि अगला जन्म होगा या नहीं, इसलिए समस्त भोग विलास इस जन्म में ही मृत्यु के पूर्व कर लेने चाहिये । पास बैठे शोकमग्न पड़ोसी पंडित मनसुख के भावार्थसे भौंचक्के रह गये, वे कुछ टोका-टाकी करते इसके पहले ही पंडित जी गीता बंद कर उस बहस में कुदते हुये कहने लगे- देखिये भाई साहब , ऐसे काम नहीं चलेगा, मृत्युकर्म के समय दान में सोना देना अनिवार्य होता है , यही नहीं बल्कि रिवाज तो यह भी है कि व्यक्ति मृत्यु के समय जो आभूषण पहने होता है उस पर भी पुरोहित का अधिकार होता है, उसे किसी भी प्रकार से घर में पुनः रखना शास्त्रों में निषिद्ध और पापकर्म माना गया है । <br />
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इतना सुनना था कि बहुओं के कान खड़े हो गये, उनका ध्यान झट उन आभूषणों की ओर चला गया, जो रामधीन उस समय पहने हुआ था। उसके गले में सोने की एक चेन और हाथ में दो अंगूठी थी। एक अंगूठी सगाई के वक्त की थी ओर चेन भी शादी के वक्त सास ने पहनायी थी, पूरे चालीस साल हो गये थे, इस बीच जिंदगी में कितने उतार चढ़ाव आये पर क्षण भर के लिये भी इन आभूषणों को उसने खुद से अलग नहीं होने दिया । एक अंगूठी रिटायरमेंट के समय स्टाॅफ के लोगों ने बतौर निशानी बड़े सम्मान के साथ पहनायी थी । दोनो बहुंये उन अंगूठियों को निकालने में भिड़ गयीं, रामधीन हाथ इधर-उधर हाथ हिलाता, झटकारता हुआ ना-नुकुर करता रहा पर बहुओं को ससुर की उन भावनाओं की भला क्या परवाह। एक अंगूठी जो सगाई के समय की थी निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी, तभी छोटी बहू ने कैंची लाकर अंगूठी काट डाली और ऐसा करते हुये रामधीन के हाथ की चमड़ी थोड़ी सी कट गई, बहू ने रसोई से हल्दी लाकर कटी जगह पर मल दिया और जाते-जाते सोने का चेन भी निकाल ले गयीं । <br />
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सब रामधीन के समीप बैठे हुये उसके मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे, शाम होने को आयी, पड़ोसी उठ-उठकर घर को जाने लगे, पंडितजी का मन भी बिदकने लगा था। उसने अपनी पोथी पत्रा बंद करते हुये कहा- भाईसाहब मैं थक गया, पूरी गीता तीन बार सुना डाला पर इनकी आत्मा तो जैसे कहीं अटकी हुई है, निकलने का नाम ही नहीं लेती । बहुओं ने लाख मिन्नतें की पर पर पंडित जी कहां मानने वाले थे, छुटकी ने कहा- पंडित जी, थोड़ी देर और देख लीजीये, शायद कुछ ही देर में प्राण निकल जाये पर पंडित जी क्षण भर रूकने को तैयार नहीं थे । उन्होने अपनी दक्षिणा मांगनी शुरू की तो बड़ी बहू ने एक सौ एक रूपये हाथ पर धरते हुये कहा- पंडित जी कल फिर सुबह से आईयेगा। पंडितजी सौ का नोट हाथ पर देख गुस्से से उबल पड़े, नोट को बड़े बेटे की ओर फेंकते हुये कहा- अरे!क्या आप लोग पुरोहिती को मजदूरी समझ रखे हैं?तीन-तीन जगहो पर पूजा थी, दो हजार रूपये से कम नहीं मिलते पर आपके कारण मैने सब छोड़ दिया, अरे चलो किसी की आत्मा को शांति मिल जाये पर सचमुच जमाना भलाई का नहीं है, होम करो तो हाथ जलते हैं। पूरे एक हजार दीजीये, नही ंतो मैं यहां से टस से मस नहीं होउंगा, गुस्से से तिलमिलाये पंडित जी वहीं कुण्डली मारकर बैठ गये। <br />
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छोटी बहू गुस्से से फुफकारने लगी- पंडित जी, एक हजार कोई छोटा-मोटा अमाउन्ट नहीं होता, बाबूजी के फेमिली पेन्शन की महीने भर की रकम पूरे हजार रूपये होते हैं । मै सुबह से शाम तक आॅफिस में काम करती हूं, तब बड़ी मुश्किल से हजार रूपये मिलते हैं। यदि ऐसे पैसे मिलने लगे तो आदमी शहर जाकर माथापच्ची क्यों करेगा, गांव में पुराहिती ही नहीं कर लेगा ? ये लीजीये दो सौ इंक्यावन रू. कल से आपको आने की जरूरत नहीं है, हम खुद ही गीता पाठ कर लेंगे। संस्कृत हमें भी आती है । <br />
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सबके जाने के बाद रात में बड़ी बहू ने घर में पंचायत बुला ली, इस बात पर लंबे चैड़े विचार विमर्श होने लगे कि आखिर बाबूजी की आत्मा अधर में क्यों अटकी हुई है, कहीं कुछ आखिरी ख्वाईश तो नहीं, जो बची रह गयीहो।सबने मिलकर बीते दिनों की बातों को याद करने की कोशिश की लेकिन वे किसी परिणाम पर नहीं पहंुच सके । छोटी बहू ने सुझाव देते हुये कहा- दीदी, गांवों में काला जादू बहुत चलता है, कहीं किसी डायन औरत ने बाबूजी की आत्मा को बांध तो नहीं दिया है? क्यों ना ओझा बुलाकर झांड़फूंक करा ली जाये। बात मान ली गयी, ओझा बुलाया गया पर इससे भी कुछ बात ना बन सकी। थक हारकर सब सो गये। <br />
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बड़ी मुश्किल से रात कटी। सुबह होते ही छोटी बहू ने गीता पढ़नी फिर से शुरू की लेकिन थोड़ी देर में ही पालथी मारकर गीता सुनाती छुटकी जल्दी ही थक गयी, सबने बारी-बारी से गीता पढ़ी पर ऐसा करते हुये दिन भर लग गये। इधर जमीन पर दो दिनों से लेटे हुये रामधीन के बदन की हड्डियां दुखने लगीं, ईशारे से बिस्तर पर लिटाने की इच्छा व्यक्त की तो बहुएं नाक भौ सिकोडने लगी , आपस मे एक दूसरे के कान मे खुसुर पुसुर करते हुये कहने लगी - देखों तो! कितनी ख्वाईश बची है, इस बुड्ढे के मन में जीने की । <br />
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रामधीन वापस बिस्तर पर लिटा दिया गया। पड़ेासी वैद्य ने खिचड़ी बनाकर खिलाने की सलाह दी, खिचड़ी रामधीन के सामने रखते ही पूरे थाली भर खिचड़ी एक ही बार में सफाचट कर गया, पर वह तो गर्म तवा में पानी की कुछ बूंदों की ही तरह था। इस तरह पूरे तीन दिन बीत गये, रामधीन के मौत की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही बहुओं के धैर्य की सीमाएं समाप्त होने लगीं। वे कभी भुनभुनातीं तो कभी अपने-अपने पतियों पर बरस पड़तीं । <br />
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छोटी बहू कुछ ज्यादा ही गरम मिजाज थी । कहने लगी- चलिये जी, अपना सामान पेक करिये, हम अब और अधिक दिन तक नहीं ठहर सकते । आपको अपने छुट्टियों की परवाह ना भी हो तो मैं बिल्कुल नहीं ठहर सकती। मेरे पास इतनी छुट्टियां नहीं है कि किसी के मौत के इंतजार में बेठे-बैठे अपना वक्त गंवाती रहूं । दीदी, कुछ होने पर खबर भिजवा दीजीयेगा, वैसे मुझे नहीं लगता कि इनको अभी कुछ होगा ।पास बैठी जेठानी की ओर मुखातिब होते हुये छुटकी ने कहा। <br />
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बड़ी बहू भी क्रोध से उबल पड़ी- तो क्या हमने ठेका ले रखा है?अभी कुछ दिन पहले बाबूजी पूरे एक हफ्ते हमारे घर पर रूके थे, हमने सेवा की थी, तुम अपने पास एक दिन तो रखकर देखो। <br />
दीदी, अब जाते-जाते मेरा मुंह ना खुलवाओ । छुटकी ने सामान ब्रीफकेस में समेटते हुये कहा। <br />
हां, बोलो-बोलो। तुम क्या कहना चाहती हो, कहो ना, रूक क्यों गयी। बड़ी भी तमतमा गयी । <br />
दीदी, जिंदगी भर बाबूजी की जमा पूंजी लूट-लूट कर आप खाती रहीं, मेरी शादी के पहले तक तो आप ही कर्ता-धर्ता थी ना, अब आप नहीं करोगी तो क्या पड़ोस का रामलाल बाबूजी की गंदगी उठाने आयेगा। <br />
देखो छुटकी तुम हद से ज्यादा बोल रही हो, अपनी जुबान पर लगाम रखो, वरना ठीक नहीं होगा। <br />
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दोनो बहुओं की तनातनी को देख भाईयों ने हस्तक्ष्ेाप करने की कोशिश की पर दोनों नाकाम रहे। दोनो ही झूमाझटकी पर उतर आये, पड़ोसियों ने शांत करने की कोशिश की तो मामला ले-देकर शांत हुआ, पर दोनो उसी वक्त बंटवारे की जिद्द पर अड़ गयी, बेटों ने भी इस झंझट से सदा-सदा के लिये मुक्ति पाने, बंटवारे पर अपनी मुहर लगा दीं ।पड़ोसियों ने समझाया कि पिता मृत्यु शैय्या पर पड़े हुये हैं,ऐसे मौके पर बंटवारा उचित नहीं होगा। पाई-पाई जोड़ने वाले पिता को अपने ही कमाये धन के बंटवारे पर सर्वाधिक कष्ट होता है। थोड़ी प्रतीक्षा और कर लो, अब इतने दिन धीरज रखा तो थोड़े दिन और सहीं । <br />
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पर छोटी बहू थी, कि अड़ गयी, पड़ोसियों पर ही भड़क गयी, कहने लगी- अरे!इनको कुछ नहीं होगा चाचा। अभी सारे पाप निकलेंगे। पुण्यात्मा होते तब ना जल्दी मौत मिलती। सब यहीं दिखता है, स्वर्ग नरक सब यही है। हमारे प्रति सौतेला व्यवहार करते रहे, भगवान उसका भी तो फल देगा ना, चाचा । हम जिंदगी भर किराये के मकान में रहते रहे, पर कभी इन्होने नहीं कहा कि जाओ जमीन बेचकर एक बडा सा फ्लेट खरीद लो, आखिर मकान मालिक की खरी-खेाटी कब तक सुनते रहोगे। गांठ से एक आने नहीं निकले और बड़े भाई साहब यहां से बोरे में भर-भरकर राशन ले जाते रहे पर हमने कभी कुछ नहीं कहा। दोनो मिलकर कमाते हैं, तब बड़ी मुश्किल से गुजर चलती है। <br />
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बंटवारे की जब बात आयी तो खेत-खलिहान, घर सब बांट लिये गये । कपड़े, लत्ते और चादर भी बंाट लिये गये,एक नया चादर अतिरिक्त बच गया वह भी कोई किसी को देने को तैयार नहीं हुआ, आखिर में बीच से फाड कर वह भी आधा-आधा बांट लिया गया । आभूषणों की जब बारी-बार आयी तब रामधीन के जनेउ से चाबी निकालती बड़ी बहू जब थक गयी तो छोटी बहू ने जनेउ को ही कैंची से कुतर दिया और दोनो मिलकर सारे गहने बंाट डाले । <br />
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रामधीन अपनी आंखों के सामने अपने खुद की मेहनत के बल पर खड़ी की गयी इमारत की नींव को ढहते हुये देख रहा था।उसके सपनों का महल उसके सामने तार-तार हो रहा था और वह बिस्तर पर असहाय पड़ा था ।दोनों बेटों के बीच बंटवारा तो हो गया पर पिता के मसले पर कोई बात ही करने को तैयार नहीं था । पड़ोसियों ने उन्हे लाख समझाया कि वृद्धावस्था में पिता का पालन पोषण भी आखिर उनका ही कर्तव्य है, उसे भी इस अवस्था में अपने संतान की तरह समझना चाहिये। दोनों में से कोई भी रख ले, यह तो पुण्य का काम है। <br />
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दोनो भाई इतना सुनते ही एक दूसरे का मंुह ताकने लगे। बड़े बेटे ने कहा - ऐसा करें, हम दोनो बारी-बारी छःछः महीने रखा करेंगे । <br />
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पर, छोटी बहू फिर भड़क गयीं, कहने लगीं - हम इतने ठलहे नहीं हैं कि घर में इनकी गंदगी उठाते फिरें, जहां पाये वहीं थंूक दिया, जहां बैठे वहीं मक्खियां भिनभिनाने लगीं। सौ रूपये का खाना और एक आने का काम नहीं । मैं ये सब फालतू काम नहीं कर सकती । आप अपने घर रखिये, वैसे भी बाबूजी को फेमिली पेन्शन के हजार रूपये मिलते ही हैं, सरकार वृद्धावस्था पेन्शन के नाम पर भी अलग से ढाई सौ रूपये देती है, इन्हे आपके एहसान की जरूरत नहीं हैं। <br />
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लेकिन बड़ी बहू भी तैयार नहीं हुई, कहने लगीं - हम बेकार का आफत मोल नहीं लेंगे, इससे अच्छा इन्हे किसी वृद्धाश्रम में रख दो, चार बूढे़ लोगों के बीच रहेंगे, मन भी बहलेगा । <br />
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बात दोनो बेटो को जंच गयी पडोसी कुछ कहते तो वो तो इनकी तू-तू मै-मै देखकर पहले ही जा चुके थे. दोनो ही सामान समेट अपने-अपने घर को जाने लगे, तय हुआ कि बड़ा भाई मनोज जाते समय शहर के एक वृद्धाश्रम "बसेरा" में पिता को छोड़ आयेगा । मनोज ने सामने की सीट पर रामधीन को बिठाया और पीछे की सीट पर अपनी पत्नी और नन्हे से बेटे को। <br />
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कार गेट के सामने खड़ी कर वहां की सारी औपचारिकताएं पूरी कर पिता को चौखटतक छोड़ते हुये बेटे मनोज ने कहा- बाबूजी, माफ करना, मशीन सी जिंदगी में बिल्कुल भी वक्त नहीं है, प्लीज बाबूजी बुरा मत मानना ।रामधीन की आंखों में आंसू भर आये, वह खड़ा हुआ एकटक मनोज को देखता रहा। <br />
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रामधीन आज बहुत दुखी था, उसे स्वयं पर बड़ी ग्लानि हो रही थी, वह इस बात पर गहन आत्ममंथन कर रहा था कि आखिर संतानों को संस्कार देने में उससे कहां चूक हो गयी? कैसे वह उन पुत्रों के लिये बोझ बन गया, जिनकी जिम्मेदारी को उसने हंसते-हंसते निर्वहन किया, उनकी खवाईशो को अपने शौक के तंदूर से उम्र भर सेंकता रहा,अपनी जिव्हा की तृप्ति को उनके हलक के नीचे उतरे हुये निवालों में महसूस करता रहा, उन बेटो के तनिक उफ पर उसने अपनी कितनी राते स्याह कर डाली, उसे वे क्षण याद आ रहे थे जब बच्चों की किताबों के लिये महाजनों के दरवाजों पर अपने स्वाभिमान की पगड़ी उतारकर कितनी बार उसने गिरवी रखी होगी पर कभी घर में किसी को तनिक भी आभास नहीं होने दिया। <br />
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वह बड़ा उदास हो गया, उसने रात में ही उस वृद्धाश्रम को छोड़ दिया और हांफते हुये किसी तरह वापस अपने गांव आ गया। एक वृद्ध पिता को भोजन की अतृप्त लालसा तो मौत नहीं देती, लेकिन अपनों की उपेक्षा उसे अंदर तक तोड़ डालती है, वृद्धावस्था में हर कदम पर चोंटिल होता उसका स्वाभिमान उसे मुर्दा बना देता है। वह आंसुओं से नहीं हृदय की गहराईयों से रोता है, उसके अंदर की जीने की सारी लालसा वहीं समाप्त हो जाती है जहां पर संतान उसे बोझ समझने लगते है। <br />
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उसकी सारी संपत्ति जिसे बेटों ने अपने बीच मौखिक तौर पर विभाजित कर लिया था, को रामधीन ने एक सिरे से खारिज करते हुये पूरी संपत्ति बेचकर एक ट्स्ट के हवाले कर दिया। बचे हुये रूपयों का उन्होने कई कमरों का एक बड़ा सा मकान बनवा दिया और गांव के प्रधान से आग्रह किया कि उसके मरने पर दाह संस्कार गांव के लोग ही कर दें, बेटों को खबर देने की आवश्यकता नहीं है। उस नये मकान की चाबी प्रधान को देते हुये उसने अनुरोध किया कि उसका बेटा जब गांव आये तो उसे यह चाबी सौंप दीजीयेगा । <br />
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बेटा मनोज जब खेती बाड़ी की बुआई के सिलिसिले में घर आया तो घर पर टंगे एक बड़े से बोर्ड को देख हक्का बक्का रह गया, बोर्ड पर लिखा था - यह जमीन स्वर्गीय रामधीन की याद में बनाये जाने वाले स्कूल भवन और प्रांगण के लिये प्रस्तावित है। <br />
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गांव के प्रधान से मुलाकात की तो उसने सारी बातें बताते हुये कहा- यह सब उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप किया गया है, उन्होने नये मकान की चाबी आपको देने को कहा है। <br />
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मनोज चाबी लेकर उस बड़े से मकान में जैसे ही प्रविष्ट हुआ, बरामदे में मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था - बेटे, मैं एक पिता हूं और कोई भी पिता अपने अंतिम क्षण तक सिर्फ संतानों के लिये जीता है। मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मैने तुम लोगों से जो उपेक्षा बर्दाश्त की, बहुओं के तीखे शब्दों के जो जख्म सहे, वह तुम दोनों को अपने बेटे और बहुओं से सहना पड़े । एक पिता अपना दुख तो हंसकर बर्दाश्त कर लेता है, पर संतानों को होने वाले किसी कष्ट की कोई छोटी सी कल्पना भी उसे अंदर तक झकझोर देती है। मैं यह मकान तुम्हे उस समय के लिये सौंपकर जा रहा हूं जब तुम बूढे हो जाओ और तुम्हारे संतान तुम्हे बोझ समझने लगें तो इसे एक वृद्धाश्रम का रूप देकर उन सबके लिये सहारा बनने की कोशिश करना जिनके बेटे तुम दोनों की तरह अधिकार की चेष्टा तो करते हैं पर कर्तव्यों को कहीं ना कहीं समय के प्रवाह मे भूल जाते हैं ।राकेश कुमारhttp://www.blogger.com/profile/08397280715413909061noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5944616234087359061.post-71522121954255582602011-02-02T02:16:00.000-08:002011-02-02T03:04:53.912-08:00अस्तित्व<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">प्रातः की बेला, रवि की अरूणिम रक्त किरण्ों अपनी छटाओं से मेरी बालकनी को स्वर्णिम आभा प्रदान कर रही थीं और मैं गुनगुने धूप का किन्हीं विचारों और कल्पनाओं में खोयी हुई आनंद ले रही थी । अरूणोदय के उस नयनाभिराम दृश्य को मै बड़े इत्मीनान से निहार रही थी और सूर्य भी क्षण भर के लिये ठहरा हुआ सा मेरे सौंदर्य का चक्षुपान कर रहा था । उस समय यह कहना नितांत कठिन था कि हम दोनों में किन्हें और किसके सौंदर्य को देखने में ज्यादा खुशी की अनुभूति हो रही है। वह अपने बिख्ोरते गुनगुने धूप में मेरे गौर वर्ण और गुलाब के पुष्प की तरह खिले चेहरे को देखकर ज्यादा आह्लादित है या फिर उसके देदीप्यमान तेज में इंद्र के अलौकिक स्वरूप के दर्शन की अपेक्षा लिये मेरी उत्कंठा, उसके ऐसी किन्हीं अभिलाषाओं पर भारी है।<br />
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प्रकृति में प्रिय की तलाश के उन क्षणों में मेरी कल्पना और उन अद्भुत पलों में मेरे समस्त अंगों से प्रस्फुटित प्यार, दिनकर की उन सुनहरी किरणों के समक्ष इर्र्ष्या की अनुभूति कर रही थी। उस समय यदि मैं समस्त चराचर जगत के सौंदर्य का दर्शन उस भानु में कर पा रही थी, तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह भी ठहरा हुआ सा मुझमें अपनी प्रेयसी शशि के शीतल स्वरूप की तलाश करता टकटकी लगाये देख रहा है और उन सुंदर हीरक पलों को जीती हुई मैं भावविभोर हा,े ऐसे सुंदर मनोहारी दृश्य का आनंद लेती हुई, शब्दों के ताने बाने में उलझी, उस प्रकृतिगत् सौंदर्य को बयां करती कुछ पंक्तियों की तलाश में इन्ही कल्पनाओं के इर्द गिर्द भटक रही थी ।<br />
किंतु क्षण भर के ही धूप ने मेरे गौर वर्ण को विचलित सा कर दिया और मैं उस दिवाकर की ओर पीठ दिखाकर बैठ गयी। मेरा यह कृत्य उसे मुंह चिढ़ाने सा लगा और अपने प्रेयसी के वियोग में व्याकुल किसी हाथी की तरह वह अपनी सादगी को रौद्र रूप में परिवर्तित करता हुआ, मेरे सामने रख्ो मेज पर पुष्पित एक नन्हे से कुसुम पर अपना कहर बरसाता, झुलसाने लगा। मुझे यह सब नागवार गुजरा और मैंने बालकनी की खिड़की बंद कर अपनी डायरी और कलम उठा फिर से उन कल्पनाओं में खो गयी जहां से मां सरस्वती की आराधना कर मैं किन्ही शब्दों को शून्य से लाकर पंक्तियों के माध्यम से कोई स्वरूप प्रदान करने की चेष्टा किया करती ।<br />
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मैं प्रातः की उस मधुर बेला में खोयी हुई अपनी सुंदर कल्पना को साकार रूप देने का प्रयत्न कर रही थी, शब्दों को तोड़ मरोड़ अलंकारिक रूप देने के उसी उपक्रम के बीच मेरे नन्हे बेटे की तोतली बोली ने मेरी एकाग्रता भंग कर दी, उसकी कोई भी तुतलाती टूटी फूटी बोली मेरे दिन भर की मेहनत के उपरांत खोजे किसी एक अलंकारिक शब्द से मेरे लिये कहीं ज्यादा कर्णप्रिय हुआ करतीं। मेरी तमाम तरह के मेहनत के उपरांत सृजित सारी कविताएं उसके केवल एक शब्द मां के सामने जैसे नतमस्तक सी हो जाया करतीं। उसकी बालसुलभ हरकतों और उच्चारित ध्वनि गीत मां के समक्ष मैं स्वयं को सदैव एक बौने कवियित्री के रूप में पाती।<br />
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वैसे भी मेरा बेटा इर्श्वर का दिया मेरे लिये सबसे अनुपम उपहार के रूप में था और मेरी सबसे उत्तम रचना भी । अपने बेटे को अपनी एक सर्वोत्तम रचना कहते हुये मुझे कवि हरिवंश राय बच्चन के वे शब्द अनायास याद हो आते जब उनसे किसी पत्रवार्ता में पूछा गया था कि आपकी नजर में आपकी श्रेष्ठ किसी रचना का नाम बताइए तब उन्होने बड़ी गंभीरता व गर्व से अमिताभ जी का नाम लेते हुये उन्हे अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति बताया था ।<br />
बेटे ने मेरे गोद में सिमटते हुये अपनी तोतली बोली में कहा - मम्मी जी, पापा आपको नीचे बुला रहे हैं ।<br />
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मैने अपने बेटे को गोद में उठाते हुये बड़े प्यार से कहा-बेटा, पापाजी से कहना, मम्मी जी बस थोड़ी देर में आ रही है। पापा से यह भी कहना कि किचन में केतली में मैंने चाय बनाकर रख दी है, वे पी लें। फिर थोड़ी देर में मम्मीजी बेटा और पापाजी के लिये गरमागरम नाश्ता बनायेंगी। ठीक है ... ऐसा कहते हुये मै अपने नन्हे से बेटे पर चुंबनों की बरसात करने लगी। मेरा बेटा मेरे चुंबनों से गद्गद् प्रतिदान स्वरूप मुझे कुछ लौटाने की अधीरता से खुसफुसाने लगा मैं उसके हावभाव को भांप गयी और उसे अपने बाहुपास से मुक्त कर अपने आंचल को ठीक करने लगी। मेरे बेटे ने मेरे गालों पर जब लगातार तीन चुंबन लिये तो उस चुंबन ने मुझमें ऐसी उर्जा का संचार किया जो मुझे दिन भर की होने वाली थकान से राहत दिलाने के लिये पर्याप्त थी और ऐसा लगा जैसे किसी भी तरह की विपरीतता से निपटने की एक प्रकार से शक्ति मिल गयी हो ।<br />
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अपने बेटे को जीने के प्रथम पायदान तक विदा कऱ फिर से उन कल्पनाओं में मै खो गयी जहां किसी शब्द को एक पथ पर अधूरे स्वरूप में छोड़ आयी थी, उन शब्दों को कुछ श्रृंगारिक छंदो और किन्हीं रसों से अलंकृत करने का प्रयत्न बस कर ही रही थी कि अचानक एक कर्कश ध्वनि ने मेरे कलम के प्रवाह पर विराम लगा दिया ।<br />
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आशा, तुम्हें जब से बुला रहा हूं, तुम्हें रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता! आखिर तुम क्या बताना चाहती हो? क्या तुम यह कहना चाह रही हो कि तुम कोई महादेवी वर्मा जैसी महान कवियित्री बन गई हो? तुम सिर्फ कल्पनाओं में जीती हो, यथार्थ से तुम्हें कोई लेना देना नहीं? सुबह से सारे काम पड़े हुये हैं, बाई तीन दिनों से काम पर नहीं आ रही, मुझे सुबह 10 बजे ऑफिस जाना है, दिन भर की भागती दौड़ती दिनचर्या के बीच सुबह सुबह कलम और डायरी पकड़कर बैठ जाती हो। तुम्हें न तो मेरी परवाह है और न ही इस बच्चे की।<br />
सुधीर, बस केवल दस मिनट यार, थोड़ा धीरज रखा करो, कुछ पंक्तियां दिमाग पर कौंधने लगी थीं उन पंक्तियों को मैं यदि डायरी में कोई स्वरूप ना देती तो फिर वे कहीं खों जातीं, और तुम इतना तो समझते ही होगे कि जो शब्द एक बार शून्य में खो जाती हैं वे फिर दोबारा वापस नहीं आतीं । मैंने बड़े ही ध्ौर्य से अपने पति के गुस्से को शांत करने का प्रयत्न किया ।<br />
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उसके बाद भी तुम बकवास करती हो, तुम्हें केवल अपनी पड़ी है, तुम सिर्फ अपने लिये जीती हो, अरे दो चार पंक्तियों के लिखने से कोई साहित्यकार और कवि नहीं बन जाता, और यदि ऐसा ही होता ना आशा, तो परचून की दुकान वाला भी कवि सम्मेलन में अपनी कविता पाठ किया करता, तुम्हारी तरह चंद पंक्तियां तो आखिर, वो भी गुनगुना लेता होगा ना...। आशा, तुम्हें शायद पता नहीं कि ठूंठ पर फूल नहीं खिला करते।<br />
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एक ही सांस में इतनी सारी उलाहनाएं सुनकर मैं क्रोध से अपने होंठों को कुतरते हुये डायरी को वहीं मेज पर रख बिना कुछ बोले सीढ़ियों से उतरने लगी। मेरी तनी हुई भृकुटी, बिखरे हुये केश और माथ्ो पर तनाव से उभरी हुई नसों की लकीरें उस क्षण मेरे अंतर्मन में छिपे क्रोध को प्रतिबिंबित कर रही थी, म्ौं अपने लंबे बिखरे हुये केश को जूड़ें के रूप में समेटते हुये शीघ्रता से किचन की ओर प्रस्थान करने लगी।<br />
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मैं मौन थी और जानती थी, कि यह इन क्षणों के लिये एक सर्वोत्तम औषधि है। वास्तव में मैं प्रातः के वक्त किसी भी प्रकार का तनाव मोल नहीं लेना चाहती थी, मैं इस बात से वाकिफ थी कि मेरी थोड़ी भी प्रतिक्रिया न केवल मेरे दिनभर की जीवनचर्या को बुरी तरह प्रभावित करेगी बल्कि बेवजह का वाद विवाद अनावश्यक तूल पकड़ेगा और एक संघर्ष का उद्भव होगा जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं चाहती थी। मैं प्रसिद्ध समाजशास्त्री मेक्सवेबर के इस कथन को अपने एवं आसपास के दैनिक अनुभवों से भली भांति परख चुकी थी कि हर संघर्ष की समाप्ति समझौते के एक बिंदु पर आकर होनी है और जब समझौते पर ही किसी विवाद या संघर्ष को समाप्त करना है तब फिर इसकी शुरूवात ही क्यों ?<br />
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पिता को बाल्यावस्था में ही खो देने के पश्चात मैने मां के रूप में एक दैवीय शक्ति को बहुत करीब से उस सामाजिक ताने बाने और कुव्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करते देखा था, जिसमें एक स्त्री को उसकी हदें बताकर किस तरह उसके कद को बौना करने का प्रयत्न किया जाता है, क्रोध और अपमान के विष को एक कड़वे घूंट के रूप में शिव सदृश हलक में ही रोक कर रखने की महारत मैने लड़कपन में ही हासिल कर ली थी । मां से बचपन में सीख्ो हुये ये गुर, मुझे कई विपरीत परिस्थितियों में बड़ा संबल प्रदान किया करतीं।<br />
यद्यपि मैं पूरी तरह संयत थी, लेकिन गुस्से में समेटे जा रहे कुछ कार्यों से मेरे क्रोध प्रतिबिंबित हो रहे थ्ो, और मेरी यह गंभीर त्रुटि मुझे समझ में भी आने लगी थी, मुझे जैसे ही इसका आभास हुआ मैं स्वयं पर नियंत्रण करने का प्रयास करने लगी, तभी पीछे से मेरा हाथ पकड़ते हुये सुधीर ने जब मरोड़ने का प्रयत्न किया तो मेरे दाहिने हाथ की कुछ चूड़ियां टूट कर बिखर गयीं ।<br />
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उन्होने गुस्से से कहा - आशा तुम कुछ ज्यादा ही रियेक्ट कर रही हो, तुम अपनी हदें पहचानो, तुम्हें शायद यह मालूम नहीं, कि तुम्हारी ये हरकतें तुम्हें नुकसान भी पहुंचा सकती हैं ।<br />
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अब मेरे ध्ौर्य की सीमाएं समाप्त हो गयी थीं, मैने अपने हाथ को झटके से छुड़ाते हुये कहा - देखो सुधीर मैं चुप हूं, इसका तुम नाजायज फायदा न उठाओ, मेरे ध्ौर्य की सदैव परीक्षा ना लिया करो, आखिर क्या मिलता है तुम्हें इस तरह के हाथापाई से ? तुम यह सब कर आखिर कैसी मर्दानगी दिखाना चाहते हो ? अरे सही में मर्द हो तो जाओ, सीमाओं पर जाकर सैनिकों की तरह मुकाबला करके दिखाओ। औरत पर हाथ उठाने वाले मर्द नहीं होते सुधीर, और रही बात जहां तक तुम्हारे ऑफिस जाने के वक्त तक भोजन तैयार करने की, तो वह मै रोज कर ही लेती हूं ।<br />
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मेरी यह तीखी टिप्पणी, उसके मर्दानगी को ललकार गयी और प्रत्युत्तर में मेरे गालों पर पड़े एक जोर के थप्पड़ ने मुझे चारों खाने चित्त कर दिया, उस झन्न की घ्वनि और विद्युत के तरंगों की भांति एक जोर के झटके ने पूरे शरीर में कंपन सा पैदा कर दिया। मैं उन क्षणों में एकाएक घटे उस अनपेक्षित घटना से स्तब्ध थी और गालों पर हाथ रख्ो सुधीर की ओर एकटक देखती रही, इस बीच मेरा बेटा जो बड़ी देर से हमारे बीच की कहासुनी को देख रहा था, मेरे आंचल में सहमा सा आकर रोते हुये सिमट गया । वह डर से चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा और कहने लगा - पापा, मत मारो मम्मी को।<br />
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वैसे, यह सब पहली बार नहीं हुआ था और न ही इस तरह की हाथापाई मेरे लिये कोई नई घटना ही थी, यही नहीं मेरे इस तरह की पीड़ा पर मेरे नन्हे से बेटे का करूण क्र्रंदन भी हम दोनों के लिये किसी तरह का अचरज का विषय नहीं था। वह रोज इस तरह की सुधीर की हरकतों को देख विचलित हो रोया करता और मैं उसे पुचकारते हुये अपनी गोद पर ले उन पलों में उसे बहलाने का प्रयत्न किया करती।<br />
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सुधीर की इस तरह की हरकतों को देख मेरा बेटा हर बार मुझसे पूछा करता - मम्मी, पापा आपको क्यों मारते हैं ? और प्रत्येक बार मैं उसके इस अनुत्तरित सवालों के जबाव में उसे क्षण भर अपलक मौन हो देखती और फिर उसे चूमते हुये अपने चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट बिख्ोर, उसके साथ लिपट जाया करती । मेरे बेटे का बालमन मेरे इस मौन उत्तर से भले ही संतुष्ट ना होता रहा हो, पर वह मेरी मुस्कुराहट के समुंदर में स्वयं को पूरी तरह समाहित कर, अपने प्रश्न सहित स्वयं का अस्तित्व सदैव थोड़ी देर के लिये इन क्षणों में भूल जाया करता ।<br />
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ऐसे किसी वेदना के क्षणों में संतान का निश्छल प्यार, किसी भी स्त्री के लिये दैवीय वरदान से कम नहीं हुआ करता। यदि एकल परिवार की भागती दौड़ती संस्कृति के बीच, बच्चे वृद्धावस्था में अपने माता पिता के लाठी का सहारा न भी बने, तो भी इस तरह के अवसरों पर अपने बाल सुलभ हरकतों एवं निश्छल प्यार से, मां के कोख से जन्म लेने का कर्ज चुका ही दिया करते हैं। एक मां को संतान की लालसा शायद ऐसे ही किन्हीं अवसरों के लिये ज्यादा हुआ करती है। वास्तव में संतान के रूप में एक स्त्री को अपने मित्र, रक्षक और एक ऐसे हमदर्द की तलाश होती है जो एक पति के रूप में कहीं न कहीं अधूरी छूट जाती है।<br />
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किसी स्त्री का एक पुत्र के प्रति प्रेम, यदि विपरीत लिंग के आकर्षण के कारण संभव होता होगा, जैसा कि मनोवैज्ञानिकों का कथन है, तो एक स्त्री उसमें उस निश्छल और पवित्र प्यार की तलाश अवश्य करती होगी, जो उसे अपने पति के रूप में उस इंसान से अपेक्षा थी, जिसके प्यार की कल्पनाओं में गोते लगाना कभी उसके लिये सर्वाधिक सुखद हुआ करता था। यद्यपि यह प्यार संतान के साथ वात्सल्य के पवित्र स्वरूप में परिणित हो जाता है ।<br />
मेरा बेटा अभी तक सिसक रहा था, मैं उसे चुप कराने का प्रयत्न करने लगी, किंतु मेरे बार-बार आंसू पोंछने और मेरी ममता के बीच पीड़ा से सहमा हुआ वह नन्हा सा बालक मेरे गले से लिपटा हुआ मुझे छोड़ ही नहीं रहा था। मैने बेटे को पुचकारते हुये उसी की बोली में तुतलाते हुये कहा - क्या हुआ मेरे राजा भ्ौया को, इस तरह नहीं रोते ! अच्छे बच्चे इस तरह आंसू नहीं बहाया करते, ठीक है .... ऐसा कहते हुये उसे मैं गोद में उठा प्यार करने लगी ।<br />
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थोड़ी देर में मेरा बेटा संयत हो गया और मुझसे कहने लगा - मम्मी, मम्मी ।<br />
मैने कहा - क्या हुआ ?<br />
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मम्मी जी मैं बड़ा हो जाउंगा तो पापा को मारूंगा, आप रोना मत। मम्मी, मुझे भी पापा जितना बड़ा कर दो ना ।<br />
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मैं उस दिन अपने बेटे के बालमन में छिपे, पिता के प्रति आक्रोश को देखकर क्षण भर को सहम सी गयी। मुझे डर सा लगने लगा, मैं यह सोच घबराने लगी की कहीं नित्य की कहासुनी उसके बालमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव ना डालने लगे।<br />
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बेटे को पुचकारते हुये मैने कहा - नहीं बेटा .... ऐसा नहीं कहते । मम्मी से गलती हो जाती है, इसलिए पापा गुस्सा हो जाते हैं। उसके नन्हे से कंध्ो पर हाथ रख मैं उसके प्रति अपने वात्सल्य का प्रदर्शन करते हुये उसी की भाषा में समझाते हुये कहने लगी - देखिये जब आप गलती करते हैं, तो मम्मी जी आपको डांटा करती हैं ना, ठीक वैसे ही मम्मी से भी गलती होती है, फिर पापा के प्रति गुस्सा क्यों? पापा सबसे अच्छे इंसान हैं, बेटा के लिये चाकलेट लाते हैं, ढेर सारे खिलौने लाते हैं, बोलो है ना?<br />
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मेरा बेटा मेरे शब्द जाल में उलझ जाता और मैं उसके मन में किसी तरह पनपने वाले पिता के प्रति क्रोध व प्रतिशोध के बीज को अंकुरित होने से बचा पाने में, हर बार सफल हो जाया करती।<br />
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मैं इस तरह के वाद-विवाद और जुल्म को, इस उम्मीद के साथ हर बार सहा करती कि शायद शारीरिक रूप से प्रताड़ित होने का मेरा यह अंतिम अवसर हो और वह अंतिम दिन मेरे लिये सदैव ही अनंतिम बन कुछ कदम दूर रूठकर खड़ी हो जाया करती। मैं हर रात इसी उम्मीद के साथ बिस्तर पर इन वाद विवादों और आंतरिक असह्य पीड़ा को अंतर्मन में समेट सो जाया करती, कि आने वाली प्रातः की बेला सूर्योदय के साथ मेरे लिये एक नया सबेरा लेकर आयेगा, लेकिन उस क्रूर आश को न तो कभी मुझ पर दया आयी और न ही मेरे निर्लज्ज ध्ौर्य ने कभी मेरा दामन छोड़ा।<br />
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मैं सुधीर को विदा कर अपने ऑफिस जाने की तैयारी करने लगी, आईने के सामने बैठ आंखों के नीचे सूखे हुये आंसुओं की बूंदों को रूमाल से पोंछने के प्रयत्न के बीच मेरा ध्यान गाल पर पड़े उंगलियों के निशान की ओर अनायास ही चला गया और तमाम तरह के सौंदर्य प्रसाधनों के लेप के पश्चात भी मैं उसे ढक पाने में नाकामयाब रही । मेरे गालों पर उभरे हुये रक्तिम निशान, जो धीरे धीरे कालिमा में परिवर्तित हो रही थी, घर की पूरी कहानी खुदबखुद बयां करने के लिये पर्याप्त थी, और ऐसी व्यथाओं को प्रतिबिंबित करती किसी स्मृति चिन्ह के रूप में इस निशान के साथ ऑफिस तक जाना मेरे लिये उस दिन संभव न हो सका। लिहाजा मैने छुट्टी के लिये आवेदन फेक्स कर दिया।<br />
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बिस्तर पर पड़े हुये मैं अतीत की स्मृतियों में खो गयी, मैं याद कर रही थी उन दिनों को, जब मैं सुधीर के लिये सब कुछ हुआ करती थी । मेरे हरेक शब्द उन्हे मोतियों की तरह लगा करते, मात्र कुछेक पंक्तियों के सृजन पर तालियों की गड़गड़ाहट से समूचा कमरा ध्वनिमय हो जाता, वह मुझे मंा शारदा की कृपापात्र एक ऐसी स्त्री के रूप में देखा करता, जिसके हरेक अंगों से विद्वता और प्रतिभा किसी झरने की तरह झरा करती, किंतु अब शादी को पांच साल हो गये थ्ो और पुरूष का मन किसी स्त्री और ऐश्वर्य पर बहुत दिनों तक टिका नहीं रहता। वास्तव में पुरूष का परिवर्तित होता चेहरा नये-नये रूप में नित्य प्रति सामने आता ह,ै जिसे किसी औरत के लिये समझ पाना काफी कठिन हुआ करता है। पुरूष स्वयं को जितना सहज प्रदर्शित करता है, वह वास्तव में होता नहीं और स्त्री को समाज के पहरेदार जितना कठिन समझते हैं, वे सदैव उसके विपरीत हुआ करती हैं, स्त्री और पुरूष में शायद यही अंतर हुआ करता है।<br />
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अभी इसी उध्ोड़बुन में खोयी हुई थी तभी अचानक मां का फोन आ गया, मां ने कहा -<br />
आशा, मैं आज कुछ जरूरी काम से दिल्ली आ रही हूं, बेटा सोच रही हूं, आज रात तुम्हारे यहां रूकूंगी, तुम लेने स्टेशन आ जाओ रात सात बजे के आसपास ट्रेन वहां पहुँचेगी ।<br />
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मेरा इतना सुनना था कि मेरे होश फाख्ता हो गये, मैं कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं थी, म्ोरे हालात उस समय ऐसे नहीं थ्ो कि मैं मां का उस कड़वे स्मृति चिन्ह के साथ सामना कर पाती, मैंने मां से झूठ बोलते हुये कहा -<br />
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मां आज रात हम सुधीर के साथ पार्टी में बाहर जा रहे हैं, तुम छोटे भाई अनिल के यहां आज रूक जाओ, कल सुबह मैं आपको लेने आ जाउंगी ।<br />
मां ने कहा - बेटा, अनिल तो पहले ही दिल्ली से बाहर है, तुम चाबी पड़ोसी के यहां छोड़ जाओ, मैं घर में अकेले रूक जाउंगी।<br />
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एक स्त्री के लिये इस तरह के असमंजस भरे क्षण किसी धर्मसंकट से कम नहीं हुआ करते, यदि झूठ को छिपाना इन क्षणों में कठिन होता है तो सत्य को बयां करना उससे कहीं ज्यादा कठिन हुआ करता है। वह जानती है कि पति के इस तरह के दुर्गुणों को छिपाकर झूठ की नींव पर बहुत दिनों तक संतोष की इमारत खड़ी नहीं रखी जा सकती, लेकिन वह यह भी समझती है कि इससे लोगों की नजरों में उसके पति की प्रतिष्ठा को, यदि एक बार आंच पहुंची तो उसकी पुर्नप्राप्ति में काफी समय लगेगा। उसे मां की सेहत को भी ध्यान में रखना होता है, उसे यह भली भांति पूर्वानुमान होता है कि उसका छोटे से छोटा दुख मां को अंदर तक खोखला कर देगा ।<br />
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ना चाहते हुये भी, हां कहने के अलावा मेरे सामने कोई विकल्प नहीं बचा था, मैने मां से कहा- ठीक है मां, आप स्टेशन पर इंतजार करना, मैं आपको लेने आउंगी ।<br />
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थोड़ी देर में सुधीर भी ऑफिस से आ गया, किंतु मुझे घर में ही पड़ा देख अपने चिरपिरचित कुटील मुस्कुराहट से व्यंग्य लहजे में कहा- अच्छा! तो आज महारानी जी ऑफिस नहीं गयी हैं, क्या घर की दीवारों से गम बांटने का इरादा हो गया या फिर इन्ही गमों के बीच कोई नई कविता उमड़ पड़ी।<br />
मैने एक चाय का प्याला मेज पर रखते हुये सुधीर से निवेदन भरे लहजे में कहा- देखो सुधीर, मैं किसी विवाद को अनावश्यक जन्म नहीं देना चाहती, मां का फोन आया था, वे आज घर आ रही हैं, प्लीज, कुछ ऐसा मत करना जिससे मां को यह सब पता चले ।<br />
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अच्छा, तो मां को भी यह सब खबर हो गयी ।<br />
सुधीर, वे अपने कुछ काम से दिल्ली आ रही हैं, मैं इतनी कायर और डरपोक महिला नहीं हूं कि अपने पारिवारिक विवादों में मायके वालों को घसीटूं और फिर अभी मुझमें तुम्हारे जुल्मों से निपटने का मादा बचा हुआ है ।<br />
मैं थोड़ी देर में मां को लेकर स्टेशन से घर आ गयी, वे थकी हुई थीं, उन्हे उबासी आ रही थी, वे कह रही थीं- बेटा ट्रेन में बहुत भीड़ थी । अच्छा बताओ, तुम कैसी हो, सुधीर कैसा है ? और ये लाडला बेटा... ।<br />
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मां हम सब ठीक हैं, सुधीर कमरे में अखबार पढ़ रहा है ।<br />
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तभी, मां की नजर मेरे गालों पर पड़ गयी, मां के चेहरे से जैसे हवाइर्यां उड़ने लगीं, उसने आश्चर्य मिश्रित लहजे में कहा- बेटा गालों पर उंगलियों के निशान! कहीं सुधीर से कुछ कहा-सुनी तो नहीं हो गयी ?<br />
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अरे नहीं मां, आप तो खामखां कुछ भी संदेह करने लगती हो, ये तुम्हारा लाडला बेटा है ना, बहुत जिद्दी है मां, कल अपने नाखून से मेरे गालों में खरोच दिया, बहुत बिगड़ रहा है, क्या करूं आप ही बताओ ना ?<br />
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इसी बीच मेरा बेटा कुछ बोलने का प्रयत्न करने लगा, मैने उसे बहलाते हुये गोद में उठा लिया और चाकलेट थमाते हुये कहा, जाओ आप ख्ोलो, नानीजी आपके लिये ढेर सारा चाकलेट लायी हैं।<br />
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आशा, मुझे सब कुछ ठीक-ठाक नहीं लगता बेटा, सच-सच बताओ, सुधीर से कुछ कहासुनी हो गयी ?<br />
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मैने चेहरे पर बनावटी हंसी का आवरण ओढ़ते हुये कहा- अजी, सुनते हो! मां को समझाओ भई, मेरी बातों में यकीन नहीं है मां को, वे मानने को ही तैयार नहीं है कि गालों पर खरोंच इस लाडले का काम है ।<br />
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सुधीर को तो जैसे मेरे इस झूठ से एक प्रकार का सुरक्षा कवच मिल गया, अपने दोहरे पुरूषगत् चरित्र का प्रदर्शन करते हुये वह कहने लगा- हां मां, आशा ठीक कह रही है, लड़का बहुत जिद्दी हो गया है ।<br />
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पता नहीं, प्राचीन ग्रंथों में स्त्रियों के चरित्र पर इतनी उंगलियां क्यों उठायी गयी ? क्यों इसे एक आख्यान के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा कि - स्त्री चरित्रं पुरूषस्य भाग्यं, देवो ना जानाति । क्या पुरूष का द्वैत चरित्र, उक्त पंक्तियों को लज्जित करने के लिये पर्याप्त नहीं है ?पुरूष सदैव दोहरे चरित्र में जीता है, वह जितना जटिल होता है, उतने ही सरल स्वरूप का मुखौटा लगाता है।<br />
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वह सदा ही स्वार्थ की पृष्ठभूमि पर अपने सफलता की इमारत खड़ी करने की आकांक्षा रखता है। बचपन में पुत्र के रूप में, युवावस्था में एक छलिये प्रेमी के रूप में तथा विवाह के उपरांत एक ऐसे शोषक के रूप में जो नित नये वेश बदलकर सामने आता है। सच तो यह है कि पुरूष, समाज का एक ऐसा कृतघ्न चरित्र है जो अपनी जन्म देने वाली मां को भी बुढ़ापे में बोझ समझने लगता है और जो चरित्र अपनी जननी का ना हो सका उससे भला कोई स्त्री क्या उम्मीद कर सकती है? कम से कम स्त्रियां तो इस मामले में अवश्य श्रेष्ठ होती हैं, कि वे बहुत दूर रहकर भी मां के प्रति अपने प्यार, अपनापन और लगाव को अंत तक जिंदा रख कोख का कर्ज आखिर तक चुका ही देती है।<br />
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दिन, महीनों और सालों में बीतते गये, पर मैने तानों और उलाहनों के बीच कभी लिखना नहीं छोड़ा। इर्श्वर जन्म देते समय सबकी भूमिका निश्चित कर भ्ोजता है और कदाचित मां सरस्वती ने मेरी रचना इसीलिये की थी। मेरी मेहनत रंग लाते गयी और अब मेरी कविताओं के चर्चे अंतर्जाल से निकलकर साहित्य के यथार्थ धरातल पर भी होने लगी थी। कविताएं मेरी पहचान बनने लगी थी या यूं कह लें कि कुछ कविताओं की पहचान ही मुझसे होने लगी थीं। वैसे भी किसी कवि के लिये वे क्षण बड़े सुखद होते हैं जब कविताओं की विशिष्ट विधाएं उसकी पहचान बन जाती हैं, और एक शोषित नारी की व्यथाओं के बेहतरीन चित्रण के लिये मुझे जाना जाने लगा था।<br />
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अब तो मैं कुछ कवि सम्मेलनों में भी जाने लगी थी,एक कवियित्री के रूप में साहित्य जगत में मेरी पहचान ने, सुधीर के पुरूषोचित दंभ को आहत करना शुरू कर दिया था । वह हर बार मुझे इस तरह के सम्मेलनों में जाने से रोका करता, मेरे साहित्य सृजन पर सभी तरह के रोड़े अटकाया करता परंतु मैं तो उस अविरल प्रवाहमान सरिता की तरह मां शारदा के कर कमलों से प्रस्फुटित हो चुकी थी, जिसे रोक पाना अब सुधीर के बस की बात नहीं थी। सभी तरह के अवरोधों के पश्चात भी मैने लिखना नहीं छोड़ा, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचनः” की तर्ज पर बिना फल की चिंता किये सिर्फ लिखती रही और इस तरह बीते सालों में मैने दर्जन भर से अधिक रचनाएं हिन्दी साहित्य जगत को प्रदान की ।<br />
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समय की सुइयाँ अपने निर्बाध गति से चलती रहीं और अब तो धीरे-धीरे सुधीर की पहचान भी मेरे पति के रूप में होने लगी थी। कई अवसरों पर दूसरों के मुख से मेरी प्रशंसा सुन सुधीर को अब मुझमें खूबियां नजर आने लगी थीं। साहित्य जगत में गहरी होती मेरी पैठ और बनती हुई एक अलग पहचान ने सुधीर के सोच की दिशा में थोड़ा परिवर्तन आरंभ कर दिया था। वह कई अवसरों पर अब मेरी प्रशंसा किया करता, लेकिन अब मुझे उसके इस प्रशंसा की शायद जरूरत ही नहीं थी। पुरूष और स्त्री में शायद यही मूल अंतर होता है, एक स्त्री अपने पति की प्रतिभा को सबसे पहले पहचानती है और एक पुरूष अपनी पत्नी की खूबियों की तब कद्र करना प्रारंभ करता है जब उसे इतने प्रशंसक मिल चुके होते हैं कि उसे अपने पति की सराहना की कदाचित् आवश्यकता ही नहीं होती।<br />
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रात्रि के 9 बज रहे थ्ो, मैं पिछले एक हफ्ते से बीमार बिस्तर पर पड़ी थी। टी.वी. में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हो रही थी। सुधीर भी भोजन के मेज पर बैठा हुआ समाचार देख रहा था, समाचार देखना मेरी आदतों में शुमार नहीं था किंतु सुधीर के साथ बैठकर देखना मेरी विवशता होती थी । अभी पुरस्कारों की घोषणा प्रारंभ ही हुई थी कि अचानक बिजली गुल हो गयी, मुझे अच्छा लगा, थोड़ी शांति महसूस हुई और मैं चादर ढंककर सो गयी ।<br />
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अचानक मेरे सेल फोन पर मेरे एक परिचित मित्र, जिसे मैं अपने एक प्रबुद्ध पाठक के रूप में देखती थी का फोन आया, उसने बताया कि साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिये जिन लेखकों व कवियों के नामों की घोषणा अभी-अभी की गयी है उसमें मेरा नाम भी है। मैं बिस्तर से उछल पड़ी, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वैसे तो हरेक साहित्यकार, स्वांतः सुखाय के रूप में साहित्य की पूजा करता है किंतु इस तरह के पुरस्कार न केवल उसके मनोबल को बढ़ाते हैं बल्कि उसकी इस साधना को पूर्णता प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह एक विवाहित स्त्री मां बनने के पश्चात स्वयं को एक पूर्ण औरत के रूप में अनुभव करती है ।<br />
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सुधीर ने मुझे बधाई देते हुये अपनी बांहों में समेट लिया, किंतु आज वे बांह मुझे शूल की तरह चुभ रहे थ्ो, मैं जिस छाती में आलिंगन भर, कभी स्वर्ग सा सुख महसूस किया करती और जहां सिमट जाने पलों को लम्हों की तरह गिना करती, आज उससे अलग होने को मैं जैसे छटपटा रही थी ।<br />
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उसने मुझे अपने आलिंगन से मुक्त करते हुये कहा- आशा मुझे क्षमा कर दो, मै तुम्हारी कद्र ना कर सका। तुम एक श्रेष्ठ कवियित्री और रचनाकार हो यह तुमने आज प्रमाणित कर दिया ।<br />
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मैं चुप थी, बोलने के लिये मेरे पास भला कोई शब्द क्या हो सकते थ्ो, फिर भी अतीत के वे दर्द बार-बार मुझे उद्वेलित कर रही थीं ।<br />
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सुधीर ने फिर से कहा- आशा, क्या तुम मुझे माफ नहीं करोगी ? कौतूहल से उसकी नजरें मेरी ओर टकटकी लगाये देख रही थी ।<br />
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मैने कहा- सुधीर तुमने बहुत देर कर दी, मेरे शब्दकोष में अब क्षमा शब्द बचा ही कहां है?तुमने तो मेरा सब कुछ रिक्त कर दिया, मेरे अंदर की भावना कुम्हला सी गयी । अतृप्त प्यार आंसुओं के साथ बाहर निकल कोरों पर सूख गयीं, मेरा पल-पल घुटता असहाय जीवन तुम्हारी आस लिये अंत तक सिसकता रहा, पर तुम्हें कभी मुझ पर दया नहीं आयी। सुधीर मैं अपनी पीड़ा को शब्दों के माध्यम से समाज के आइने के रूप में साहित्य जगत को परोसती रही, अपनी व्यथा को कविता का माध्यम बना लोगों के साथ बांट उनकी प्रशंसा के चंद शब्दों के सहारे जीती रही, पर तुमने कभी मुझे पलटकर नहीं देखा। तुम्हारी बेरूखी मुझे हर क्षण तड़पाती रही, मेरा घुटता जीवन मेरे शब्दों में प्रतिबिंबित होता रहा, पर तुमने कभी उसे समझने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की । बताओ ना सुधीर, मैने तुम्हारे प्यार पाने क्या-क्या जतन नहीं किये ?<br />
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इतने निष्ठुर ना बनो, प्लीज आशा मुझे माफ कर दो, सुधीर ने गिड़गिड़ाते हुये कहा ।<br />
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चलो सुधीर, मैं थोड़ी देर के लिये तुम्हें माफ कर भी दूं, तो क्या तुम्हारी आत्मा तुम्हें क्षमा कर देगी? तुम्हारे वे निष्ठुर हाथ, जो कभी मेरे बदन पर चिन्ह छोड़ गौरव अनुभूत करते थ्ो, क्या उन्हे मुझे आलिंगन में लेते हुये लाज ना आयेगी ? तुम कैसे हो सुधीर ? तुमने मुझे जीवन भर इतना सताया है कि अब मेरे पास कुछ भी श्ोष नहीं है, हाड़ मांस के इस देह पर अंदर घुन सा लग गया है, सुधीर, मैं तुम्हें कैसे बताउं ?<br />
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सुधीर कातर दृष्टि से मुझे देखता रहा ।<br />
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एक सप्ताह बाद आयोजित होने वाले पुरस्कार ग्रहण समारोह हेतु मुझे आमंत्रण मिल चुका था । औरत का हदय बहुत विशाल और धनी होता है, वह चाहे जितनी कंगाल हो जाये पर क्षमा से भरा उसका कोष कभी रिक्त नहीं होता, भले ही अपने जीवनकाल में उसे क्षमादान औरों से कदाचित् ही मिल पाती हो लेकिन वह स्वयं जीवन के अंत तक सबको क्षमा करती है। श्ौशव में भाई की हठधर्मिता से लेकर, एक पुरूष की बेवफाई और पति की बेरूखी तक सबको सिर्फ क्षमा ही तो करती है ।<br />
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मैने अपनी उदारता का परिचय देते हुये कहा - सुधीर, पुरस्कार ग्रहण करने तुम चले जाओ, वैसे भी मेरी तबियत ठीक नहीं है, मैं जानती हूं कि यह मेरे जीवन का सबसे गौरवशाली क्षण होगा, जो पुरस्कार मेरी पूजा और साधना के परिणाम के रूप में आज मेरी प्रतीक्षा कर रहा है, उसे तुम्हारे हाथों प्राप्त करते हुये मुझे ज्यादा खुशी होगी। मैं तुम्हें आज अहसास भी कराना चाहती हूं कि उस प्रशस्ति पत्र और छोटे से पुरस्कार जिसमें मां सरस्वती विराजती हैं, को प्राप्त करते हुये कैसा अनुभव होता है। कोई साहित्यकार कैसे शून्य से उकेर कर किन्हीं पंक्तियों को कोई स्वरूप प्रदान करता है, ठीक उसी तरह जिस तरह सुनार एक सोने के एक अनगढ़ टुकड़े को आभूषणों का रूप देता है ।<br />
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नहीं आशा, हम दोनो साथ चलेंगे ।<br />
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मैंने कहा - नहीं सुधीर, मैं नहीं जा सकूंगी ।<br />
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मैं सुधीर के साथ पुरस्कार ग्रहण करने नहीं जाना चाहती थी । औरत के स्वभाव के साथ एक विचित्रता होती है, वह किसी व्यक्ति को उसके किये गये अपराध के लिये क्षमा कर भी दे तो भी पुनः उसे वह स्थान कभी नहीं देतीं, एक बार नजरों से गिरे इंसान को फिर से वही दर्जा देना औरत की फितरत में शायद होता ही नहीं है ।<br />
<br />
मैं आज सुधीर को पुरस्कार प्राप्त करने का अधिकार प्रदान कर, एक ओर जहां उसे क्षमा करना चाहती थी, वहीं दूसरी ओर उसे इस समारोह में अकेले भ्ोज उसके जीवन भर मेरे साथ किये गये जुल्म की सजा भी देना चाहती थी । मुझे मेरे एक पाठक के कहे गये वे शब्द आज याद आ रहे थ्ो , उन्होने मुझे एक बार लिखा था - आप तो उस महान वृक्ष की तरह हैं जो व्यक्ति द्वारा पत्थर मारने पर उसे अपने मीठे फल देकर जहां उसे तृप्त करती है वहीं उसे शर्मिंदगी का अहसास भी कराती है ।<br />
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कार्यक्रम का सीधा प्रसारण मैं देख रही थी, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जब पुरस्कार वितरण समारोह में मेरा नाम पुकारा गया तो मैं गर्व से अभिभूत हो गयी, मेरे आंखों से आंसू छलक पड़े, म्ौं देख पा रही थी कि किस तरह कार्यक्रम के संचालक ने मेरा नाम पुकारते हुये कहा, कि आशा जी का पुरस्कार ग्रहण करने उनके पति मिस्टर सुघीर सक्सेना आये हुये हैं, हम उनसे अनुरोध करते हैं कि वे मंच पर आयें और पुरस्कार ग्रहण करें ।<br />
सुधीर गर्व से फूला नहीं समा रहा था, वह दोनों हाथों को हिलाता हुआ लोगों का अभिवादन स्वीकार कर रहा था । वह उन क्षणों में बड़ा गौरान्वित था ।<br />
मैं इसी दिन की आस में आज तक बैठी थी, आज जहां मेरी साधना का फल मुझे मिल चुका था, वहीं मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हो चुकी थी। मैने आज पुरूष दंभ को औरत के कद का अहसास कराया था। मैं दुनिया को यह बताने में आज कामयाब थी, कि एक औरत किस तरह सभी तरह की प्रताड़नाओं को झेलती हुई, अपने मूल्यों और आदर्शों के बीच अपने शौक को भी मंजिल प्रदान करने में कामयाब रहती है ।<br />
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मैंने ब्रीफकेस में अपना सारा सामान पेक कर लिया था, आज मैं अपने बेटे के साथ उस गुमनाम यात्रा पर निकल जाना चाहती थी, जहां मुझे पहचानने वाला कोई ना हो । म्ौं सुधीर को बस केवल यहीं तक क्षमा करना चाहती थी और उसके साथ इस रिश्ते को इसी मोड़ पर लाकर आज विराम भी देना चाहती थी ।<br />
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मुझे किसी चलचित्र में कही गयी वे पंक्तियां याद आ रही थीं, जिसमें किसी ने कहा था कि- यदि किसी रिश्ते को बहुत दूर तक ले जाना संभव ना हो, तो उसे किसी खूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ देना चाहिये और मेरे लिये इससे खूबसूरत कोई मोड़ हो नहीं सकता था ।<br />
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मैने एक पत्र लिखा और उसे वहीं मेज पर छोड़ चाबी, पड़ोसी के यहां देकर चली आयी ।<br />
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सुधीर जब पुरस्कार लेकर घर आया तो वह मेज पर पड़े पत्र को पढ़ अवाक् हो अनंत आकाश में शून्य को निहारता रहा। पत्र में मैने लिखा था - सुधीर मैने तुम्हें क्षमा कर दी है, किंतु मैं आज तुम्हें छोड़कर उस अनंत यात्रा के लिये निकल पड़ी हूं , जहां तुम मुझे इस जन्म में दोबारा नहीं पा सकोगे। कुछ व्यक्तियों को किसी के महत्व का अहसास उसे खोकर होता है, सुधीर कदाचित् तुम भी उन्हीं लोगों में से हो । तुम खुश रहो, मुझे ढूंढ़ना मत।<br />
अलविदा ।</div>राकेश कुमारhttp://www.blogger.com/profile/08397280715413909061noreply@blogger.com9